संघ क्या है, क्यों,कैसे,क्या करता है?

#सुगम_संघ पुस्तक

अध्याय ८

संघ के आयाम

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यह सम्पूर्ण समाज का संगठन है।
डाक्टर केशवराव बलिराम का उद्देश्य समाज में कोई संगठित टोली निर्माण करने का नहीं था। एक बार नागपुर में हिन्दू-मुसलमानों के दंगे का वायुमण्डल निर्माण हुआ था। हिन्दुत्व पर गर्वित एक नेता ने डॉक्टर केशव राव बलिराम हेडगेवार  से पूछा, ‘नागपुर में दंगा हुआ तो आपका संघ क्या करेगा? डॉक्टर हेडगेवार ने उत्तर दिया, ‘मैं सब स्वयंसेवकों को कार्यालय में बुलाऊँगा और रजाई ओढ़ कर सो जाने के लिए कहूँगा।’ क्या यह उत्तर विचित्र नहीं है ? किन्तु यह उत्तर अर्थपूर्ण है । अर्थ यह कि दंगे के समय समाज अपने-अपने घरों के दरवाजे, खिड़कियाँ बन्द कर आराम करे और संघ स्वयंसेवक कन्धों पर डण्डा रख मुहल्लों में गश्त लगाये- इसलिए संघ नहीं है, यह डॉक्टर हेडगेवार ने बतलाया।

संघ का एक विशिष्ट गणवेश है; किन्तु वह केवल कार्यक्रम के लिए। हमेशा वह वेष पहन कर घूमे, कम से कम काली टोपी तो हमेशा पहने, ऐसा संघ नहीं कहता। संघ में प्रचारक हैं। संघ कार्य को वे अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित किये हुए एक तरह के संन्यासी ही हैं। लेकिन डॉक्टर हेडगेवार ने उनके लिए कोई अलग वेष नहीं बतलाया । समाज में अपना अलगपन दिखाना संघ को मान्य नहीं हैं। लोगों के लिए अलौकिक यानी असमान्य न रहे, यह सीख सन्त ज्ञानेश्वर की है। संघ ने वह सीख आचरण में उतारी है। संघ और समाज एकरूप हो यह संघ की भूमिका है, अपेक्षा है।

इसका भी एक अर्थ है। यह हमें ठीक से समझना चाहिए। समाज कभी एक ही तरह का नहीं रहता, एक ही प्रकार से नहीं चलता। समाज अनेक अंगों से कार्यरत रहता है। वे कार्य कम-अधिक महत्त्व के रहते हैं; किन्तु वे सब समृद्ध राष्ट्र जीवन को आवश्यक रहते हैं। समाज जीवन में राजनैतिक , शैक्षणिक, औद्योगिक, सांस्कृतिक, आर्थिक आदि अनेक क्षेत्र  हैं। इन क्षेत्रों के अनेक घटक विद्यार्थी, महिलाएँ, किसान, मजदूर, वनवासी, आर्थिक दृष्टि से दुर्बल नागरिक आदि-आदि है।

सम्पूर्ण समाज के संगठन का अर्थ है इन सब क्षेत्रों के  सब घटकों का संगठन । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का उद्देश्य सम्पूर्ण समाज का संगठन होने से संघ कार्यकर्ता इन सब क्षेत्रों में गये हैं। संघ की अपेक्षा है कि वे उन सब क्षेत्रों को प्रभावित करें और कार्यकर्त्ता संघ की अपेक्षा पूर्ण कर रहे हैं।

इन सब क्षेत्रों में संघ–प्रभाव का निर्माण हो इसका क्या अर्थ है? उन सब क्षेत्रों में होने वाली हलचलों का, क्रियाकलापों का सूत्र संचालन संघ अधिकारियों के हाथों में रहे क्या इसका ऐसा अर्थ है ? ऐसा अर्थ नहीं है। यह सम्भव नहीं, आवश्यक भी नहीं तथा संघ की यह अपेक्षा भी नहीं । संघ का प्रभाव यानी संघ के विचारों का प्रभाव तथा जिस सामाजिक चारित्र्य की संघ की कल्पना है, उस चारित्र्य का प्रभाव ।

संघ का विचार या सिद्धान्त कौन सा? यह हिन्दू राष्ट्र है।  हिन्दू राष्ट्रवाद यानी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद । सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का विचार सब क्षेत्रों में प्रस्थापित हो। विश्व के अन्य राष्ट्रों में राष्ट्र पर विवाद नहीं रहता। अपने देश में यह विषय विवाद का है। हिन्दू राष्ट्र का सिद्धान्त निर्विवाद रूप से सब क्षेत्रों में स्थापित हो, यह इच्छा संघ की है। इसके लिए संघ का प्रयत्न है।

संघ को अभिप्रेत ऐसा चारित्र्य कौन सा? यह समाज मेरा है और मैं इस समाज का हूँ, ऐसी एकत्व की भावना निर्माण कर तदनुसार अपने जीवन की रचना करना, तदनुसार जीवन जीना यानी चारित्र्य-सम्पन्न जीवन जीना, ऐसा संघ मानता है। समाज व्यक्तियों से बनता है। व्यक्ति और समाज एकरूप रहते हैं, तथापि व्यक्ति को समझना चाहिए कि मैं समाज के लिए हूँ। मेरे आचरण से समाज का भला होना चाहिए। अपने स्वार्थ के लिए मैं समाज का नुकसान नहीं होने दूंगा। शंकराचार्य के एक स्तोत्र में यह भाव बहुत सुन्दर ढंग से व्यक्त  है। भक्त भगवान् से कहता है, ‘हे भगवन् ! अब तेरा प्रत्यक्ष दर्शन होने के कारण भक्त और भगवान् यह भेद समाप्त हो गया है। द्वैत अदृश्य हो गया। अद्वैत निर्माण हुआ। फिर भी मैं तेरे लिए हूँ। तू मेरे लिए नहीं। लहर समुद्र की रहती है। समुद्र लहर का नहीं होता। मूल संस्कृत का श्लोक इस प्रकार है :

‘यद्यपि भेदापगमे नाथ तवाहं न मामकीनस्त्वम् ।
सामुद्रो हि तरंगः क्वचन समुद्रों न तारंगः ।।

ऐसे समाजपरक जीवन शैली से सम्पूर्ण राष्ट्र ओतप्रोत हो, ऐसी संघ की आकांक्षा है। संघ का यह तत्त्वज्ञान और संघ की चारित्र्य की यह संकल्पना लेकर संघ कार्यकर्ता जीवन के विविध क्षेत्रों में गये हैं। सन् १९२५ में आरम्भ संघ में बाल स्वयंसेवक आये थे।कालान्तर में वे तरुण बने और उन्होंने अपने साथ अनेक तरुणों को जोड़ा। स्वभावतः संघ का पहला आयाम विद्यार्थी जगत में हुआ। सन् १९४६ में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् की स्थापना हुई। तब साम्यवाद का  बोलबाला था। द्वितीय महायुद्ध समाप्त हुआ ही था। रूस की विजय हुई थी। इतना ही नहीं एक महान् जागतिक शक्ति के रूप में रूस का दबदबा बना। रूस की विजय और शक्ति से उसका साम्यवादी तत्त्वज्ञान  दुनिया की सब समस्याएँ हटाते हुए समता का वायुमण्डल लायेगा, ऐसा प्रचार जोरों से आरम्भ हुआ और इस विचार की ओर युवक विद्यार्थियों की पीढ़ी आकर्षित हुई थी। साम्यवाद की इस आँधी की दुनिया में और हिन्दुस्थान में भी तूफान मचाते समय राष्ट्रवाद का सिद्धान्त ले विद्यार्थी परिषद् खड़ी हुई। उसके विकास क्रम के इतिहास को बतलाने का स्थान यह नहीं है, किन्तु आज भारत में विद्यार्थियों के सबसे बड़े संगठन के रूप में विद्यार्थी परिषद् खड़ी है । यह राष्ट्रवाद की विजय है।

१५ अगस्त, १९४७ को देश स्वाधीन हुआ। सन् १९५० में नया संविधान लागू हुआ। गणतन्त्र हुआ। गणतन्त्र का मतलब है जहाँ कोई राजा नहीं , जनता ही सार्वभौम है, ऐसी व्यवस्था। इस व्यवस्था में जन सहभाग रहता है। जनता ही अपने राज्यकर्त्ता चुनती है। संघ के स्वयंसेवकों को भी नागरिक के रूप में मताधिकार प्राप्त हुआ। उन्हे किसे मत या वोट देना है? समाजवादी, साम्यवादी दल तो विदेशी विचारधारा वाले दल हैं। कांग्रेस स्वदेशी दल, किन्तु  संघ द्वेषी। सन् १९४८ में महात्मा गान्धी की हत्या हुई। उस हत्या से संघ का किसी भी तरह का सम्बन्ध न रहने पर भी, संघ को नष्ट करने में कांग्रेस सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी। हजारों को कारावास में बन्द किया। कांग्रेसियों ने संघ कार्यालयों पर हमले किये, स्वयंसेवकों के घर लूटे और जलाये। इस तरह कांग्रेस को स्वयंसेवक किस तरह अपनायें। उस समय डॉक्टर श्यामाप्रसाद मुखर्जी सामने आये। स्वतन्त्र भारत के प्रथम मन्त्रिमण्डल में वे मन्त्री थे। उन्होंने भारतीय जनसंघ की स्थापना की। उन्होंने संघ से कुछ कार्यकर्ता माँगे। स्वयं राजनीति से अलग रहते हुए भी संघ ने भी पंडित दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी, सुन्दर सिंह भण्डारी, नानाजी देशमुख, कुशाभाऊ ठाकरें, रामभाऊ गोडबोले, वसन्तराव ओक, रामप्रसाद दास, पंडित बच्छराज व्यास, गोपाल ठाकुर, भाऊराव देशपाण्डे आदि अपने श्रेष्ठ कार्यकर्ता डॉक्टर मुखर्जी की सहायता को मुक्त किये।

आज इस घटना को 50  वर्ष  हो रहे हैं। इस मण्डली ने राजनैतिक क्षेत्र में कितना ठोस काम किया यह जनसंघ, आज जो भारतीय जनता पार्टी के रूप में नया दल बना है, उसकी जनप्रियता और शक्ति से पता चलता है। भारतीय जनता पार्टी को अभी बहुत कार्य करना है, जनप्रियता अभी बहुत बढ़ानी है। राजनैतिक वायुमण्डल शुद्ध और स्वच्छ करना है, किन्तु यह सिद्ध हुआ कि वह अपने देश का सबसे बड़ा राजनैतिक दल बना हैं उसका दबदबा इतना बढ़ा है कि उसके सम्मुख कोई भी एक अन्य राजनैतिक दल टिक नहीं सकेगा ऐसा प्रत्येक अन्य राजनैतिक दल को लगता है। स्वाधीनता के प्रथम पच्चीस वषों में कांग्रेस दल का जो स्थान था, वह भारतीय जनता पार्टी को मिला है। संघ स्वयंसेवकों से हुआ यह परिवर्तन है।

श्रमिक क्षेत्र भी महत्त्व का था। इस क्षेत्र पर समाजवादी तथा साम्यवादी विचारों का ही एकाधिकार था। यह विचार वर्ग संघर्ष के सिद्धान्त को मानता था। यह सिद्धान्त कहता है कि दुनिया में दो ही वर्ग हैं- एक धनियों का, मालिकों का, कारखानादारों का और दूसरा गरीबों का, कर्मचारियों का, मजदूरों का। इनमें सॉप-नेवला जैसी स्वाभाविक दुश्मनी है। साम्यवादी कहते थे कि दुनिया के सब मजदूर एक हैं, राष्ट्र झूठा है। ऐसी परिस्थिति में राष्ट्रवाद पर आधारित आन्दोलन आवश्यक था। यह आवश्यकता पूर्ण करने हेतु भारतीय मजदूर संघ की स्थापना सन् १९५५ में हुई। संघ के एक वरिष्ठ प्रचारक दत्तोपन्त ठेंगड़ी ने इसकी स्थापना की। भारतीय मजदूर संघ ने वर्ग-संघर्ष की संकल्पना अमान्य की। राष्ट्रवाद का आधार लिया। विदेशी आदर्श नकारे।  विश्वकर्मा को आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया। लोगों ने मजाक किया कि तुम मजदूरों को संगठित कर ही नहीं सकोगे, क्योंकि तुम्हारा वर्ग-संघर्ष पर विश्वास नहीं है। आज भारतीय मजदूर संघ की कैसी स्थिति है ? वह भारत में मजदूरों का सबसे बड़ा संगठन है।

शिक्षा का क्षेत्र भी महत्त्व का है। अंग्रेजों का शासन ने अपने स्वार्थ के लिए अंग्रेजी शिक्षा पद्धति यहाँ चलायी। इस शिक्षा पद्धति से लोगों का रंग नहीं बदला। काले रंग के, गोरे रंग के नहीं हुए, किन्तु मन बदले, विचार बदला। जो-जो अंग्रेजों का, जो-जो पाश्चात्यों का, वह सब अच्छा, अनुकरणीय, ऐसा लोग मानने लगे। अंग्रेजी भाषा के माध्यम से शिक्षा ली, तो वह बहुत अच्छी शिक्षा होगी, ऐसी समझ बलवान् होती गयी। तब स्वयंसेवकों ने प्रथम उत्तर प्रदेश में शिशु मन्दिर चालू किये। हिन्दी माध्यम से शिक्षा देने वाले शिशु मन्दिर, किन्तु ईसाई कान्वेण्ट के बराबरी के या उनसे भी श्रेष्ठ। इन्हीं शिशु मन्दिरों का आगे चलकर सम्पूर्ण देश में विस्तार हुआ। ‘विद्या भारती’ की स्थापना हुई। आज विद्या भारती के सुझावों के अनुसार शिक्षा देने वाले– संस्कृत भाषा, योगासन, देशभक्तिपूर्ण कार्यक्रम चलाने वाले चौदह हजार से अधिक विद्यालय चल रहे हैं। सरकार से अनुदान के रूप में एक पैसा भी न लेते हुए चल रहे हैं, यह इन विद्यालयों की विशेषता है।

धार्मिक क्षेत्र जनसाधारण की श्रद्धा का क्षेत्र है। अलग-अलग महन्त, मठाधीश, संन्यासी, साधु, शंकराचार्य इन सबका जनमानस पर बड़ा प्रभाव है। इन सबको एकत्र लाकर, इनकी धार्मिक संस्थाओं को तथा उनके प्रभावों को राष्ट्रीय पुनरुत्थान से जोड़ना आवश्यक था। संघ के द्वितीय सरसंघचालक स्वर्गीय गुरु गोलवलकर  ने यह कठिन कार्य  स्वयं सम्भाला और हिन्दूधर्म के भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों के, उपसम्प्रदायों के प्रमुखों को एकत्र कर विश्व हिन्दू परिषद् की स्थापना की।  विश्व हिन्दू परिषद् के व्यासपीठ से श्रद्धेय धार्मिक नेताओं ने घोषणा की कि अस्पृश्यता,  धर्म का भाग नहीं है। यह रूढ़ि है और यह अब समाप्त होनी चाहिए। उन्होंने यह भी घोषणा की कि पूर्व काल में जिन्होंने अपना धर्म त्याग अन्य पंथ स्वीकार किया, वे सब स्वधर्म में लौट सकते हैं। धर्माचार्यों की इन घोषणाओं से हिन्दू समाज में नव-चेतना आई |

इसी तरह किसान क्षेत्र में, वनवासी क्षेत्र में, उद्योग के क्षेत्र में, सेवा के क्षेत्र में तथा संस्कारों के क्षेत्र में अलग-अलग संगठनाएँ स्वयंसेवकों ने खड़ी की और सम्पूर्ण समाज-जीवन को अपने विचारों और आचरण शैली से मथ डाला है।

संघ के कुछ स्वयंसेवक व्यापार या नौकरी के निमित्त विदेशों में गये थे; किन्तु वहाँ भी हम संघ के स्वयंसेवक हैं, हिन्दू हैं, यह भूले नहीं। उन्होंने केनिया, इंग्लैण्ड, अमेरिका, आदि देशों में हिन्दुओं को एकत्रित किया। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के के ढंग से “हिन्दू स्वयंसेवक संघ ” की स्थापना की। इस समय विश्व के 33 देशों में संघ की नियमित शाखाएं है।वास्तव में संघ का यह आश्चर्यकारक विस्तार है।

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