मत: कैसी होनी चाहिए समान नागरिक संहिता?

मत: यूसीसी तो होनी ही चाहिए लेकिन वैसी नहीं जो चर्चा में है, जानिए कैसी हो समान नागरिक संहिता

Universal Civil Code : 30 मार्च 1947 को संविधान सभा की उप-समिति ने समान नागरिक संहिता (UCC) पर चर्चा करने के लिए बैठक की जिसमें चार सदस्यों ने समान नागरिक संहिता का प्रस्ताव किया। समिति के पांच सदस्यों ने इसका विरोध किया। तब यूसीसी का मुद्दा बहस का विषय बना हुआ है।
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Opinion: यूसीसी तो होनी ही चाहिए लेकिन वैसी नहीं जो चर्चा में है, जानिए कैसी हो समान नागरिक संहिता
मुख्य बिंदु 
विधि आयोग ने समान नागरिक संहिता (UCC) पर लोगों से राय मांगी है, तब से चर्चा गरम
देश में सभी धर्मों के लिए शादी, संपत्ति, गोद लेने को एक कानून लाने की मांग पुरानी है
सभी धर्मों के उत्तराधिकार कानून में महिलाओं के साथ भेदभावपूर्ण रवैया अपनाया गया है

भारतीय इतिहास में 30 मार्च, 1947 विशेष तिथि नहीं है। लेकिन देश की स्वतंत्रता के बाद के इतिहास पर इसका प्रभाव बहुत अधिक रहा है। उस दिन संविधान सभा की तरफ से गठित मौलिक अधिकारों पर उप-समिति ने समान नागरिक संहिता (UCC) पर चर्चा करने को बैठक की। चार सदस्यों मीनू मसानी, हंसा मेहता, भीमराव अंबेडकर और राजकुमारी अमृत कौर ने महसूस किया कि शादी और संपत्ति संबंधित सभी मामले नियंत्रित करने को एक कानून के रूप में समान नागरिक संहिता प्रत्येक भारतीय का एक मौलिक अधिकार होना चाहिए।

समिति के पांच अन्य सदस्य इस प्रस्ताव पर हिचकिचाए। उन्हें लग रहा था कि मुस्लिम लीग को अभी भी अविभाजित भारतीय संघ में शामिल होने को राजी किया जा सकता है। ऐसे में समान संहिता की बात इस उद्देश्य को चोट पहुंचाएगी। चार पर पांच भारी पड़े और इस बात पर सहमति बनी कि राज्य सबके लिए एक कानून (यूसीस) लाने का प्रयास करेगा, लेकिन समान नागरिक संहिता कैसी होगी, इसका कोई प्रारुप तैयार नहीं किया गया। उसी बहस ने यूसीसी पर बहस का रास्ता तैयार किया। यह बहस पिछले आठ दशकों से चल रही है, लेकिन अब तक कोई प्रारुप तैयार नहीं हुआ।

अब भेदभाव खत्म करने का समय

संभव है कि उप-समिति के उन पांच सदस्यों की आशंका सही हो कि यूसीसी, पिछले दरवाजे से हिंदू कोड बिल लाने की युक्ति है। चूंकि तब कोई प्रारुप नहीं आया था, इस कारण उनकी यह आशंका निरस्त नहीं की जा सकती। लेकिन मजे की बात है कि आज तक न प्रारुप आया है और न ही आशंका निरस्त हो पाई है।

लेकिन यूसीसी, हिंदू कोड बिल के रूप में नहीं आ जाए, इसका मतलब यह कतई नहीं है कि इसमें विभिन्न धर्मों के तत्व मिला लिये जाए। अगर हम हिंदुओं के लिए सप्तपदी, मुसलमानों के लिए निकाहनामा और ईसाइयों लिए शपथ लेने को यूसीसी में शामिल करते हैं तो विवाह संहिता के रूप में यूसीसी किसी के लिए भी संतोषजनक नहीं होगा। किसी आधुनिक संहिता को पुनर्गठित करने का उद्देश्य परिवार के प्रत्येक सदस्य की समानता, स्वतंत्रता और गरिमा के संवैधानिक सिद्धांतों को विस्तार देना होना चाहिए। हालांकि, आधुनिक फैमिली लॉ शायद ही कभी ये सिद्धांत दर्शाता है।

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, पितृसत्तात्मक अवधारणा पर आधारित है कि विवाह के बाद महिला अपने माता-पिता से रिश्ता त्याग देती है। परिणामस्वरूप उसकी मृत्यु के बाद उसके अपने माता-पिता उससे उत्तराधिकार प्राप्त नहीं कर सकते हैं, अगर महिला का पति या दूर का उत्तराधिकारी जीवित हो। विवाह के मुस्लिम कानून में भी महिला तो सिर्फ एक पति रख सकती है जबकि पुरुष चार पत्नियां तक रख सकता है। ये हिंदू-मुस्लिम के मुद्दे नहीं हैं। ये अपवाद नहीं हैं- कुल मिलाकर भारत में सभी धार्मिक कानूनों में समान बात है कि महिलाओं के साथ भेदभाव किया जाता है।

समान नागरिक संहिता लाने की जगह विभिन्न धर्मों के लिए लागू पर्सनल लॉज में लिंग आधारित अन्यायपूर्ण प्रावधानों से छुटकारा पाने का प्रयास होना चाहिए था। लेकिन जैसा कि अर्चना पराशर ने इस विषय पर अपनी पुस्तक में लिखा है कि ऐसे सुधार कभी भी स्वेच्छा से नहीं हुए हैं। अब भी स्पष्ट नहीं है कि अल्पसंख्यक समुदायों का असली प्रतिनिधि कौन है क्योंकि मुसलमानों में मौलवियों के बीच तो ईसाईयों में चर्चों के बीच खुद को सर्वोच्च बताने की प्रतिस्पर्धा है। हिंदू कोड पर तो संसद से कानून बना हुआ है, फिर भी नहीं कहा जा सकता है कि यह सुधार को लागू करता है।

वैवाहिक अधिकारों की बहाली, जिसमें कोर्ट पत्नी को अपने पति के पास लौटने का आदेश देती है, दरअसल अंग्रेजी कानून की एक पुरानी अवधारणा है जो महिलाओं को संपत्ति के रूप में स्थापित करने के विचार पर आधारित है। यह हिंदू विवाह अधिनियम में भी शामिल है। टुकड़ों में सुधार सैद्धांतिक रूप से आकर्षक हो सकते हैं, लेकिन व्यवहार में बेअसर साबित हुए हैं।

एक आदर्श परिवार कानून क्या हो सकता है?

यह जरूरी है कि एक आदर्श व्यापक, समावेशी और लैंगिक न्याय आधारित फैमिली कोड का प्रारुप तैयार किया जाए। लॉ कमिशन के पास ऐसी संहिता का प्रारुप तैयार करने का अवसर है जो स्पष्टता लाये और एक कठिन, लेकिन अपेक्षित आम सहमति का प्रयास कर सकती है। शोधकर्ताओं के एक समूह की तरफ से लॉ कमिशन को इस तरह के कानून की पुनरावृत्ति की सिफारिश की गई है। इस लेख का लेखक भी उस समूह का एक हिस्सा है।

विवाह के मामले में यह तो स्पष्ट होना चाहिए कि कानून का मामला अलग है और रीति-रिवाज का अलग। कानून को केवल इस बात से लेना-देना होना चाहिए कि क्या विवाह दो स्वतंत्र रूप से सहमत वयस्कों के बीच है जो मौजूदा विवाह में नहीं हैं। इसके लिए एक हल्की-फुल्की पंजीकरण प्रक्रिया की आवश्यकता होती है। कई महिला समूह लंबे समय से तर्क दे रहे है कि मैरेज रजिस्ट्रेशन पुरुषों को चालाकी से कई शादियां करने से रोकने को आवश्यक है। इसके अलावा, कानून हर व्यक्ति के लिए यह विकल्प चुनने की आजादी सुनिश्चित करे कि शादी कैसे की जाए।

माता-पिता युगल के लिए उन बच्चों की रक्षा करना महत्वपूर्ण है जो असामान्य परिवारों का हिस्सा हो सकते हैं जैसे कि समलैंगिक जोड़ों या विवाह से बाहर पैदा हुए बच्चे। इन परिस्थितियों में यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि बच्चे के साथ भेदभाव नहीं हो। ऐसे परिवारों में भी बच्चों के साथ ठीक वैसा ही व्यवहार किया जाना चाहिए जैसा कि सामान्य परिवारों में बच्चों के साथ किया जाता है- यानी वो बच्चे भी अपने माता-पिता की संपत्ति का उत्तराधिकारी बनें। बच्चे अवैध घोषित करने का चलन हमेशा-हमेशा को समाप्त होना चाहिए।

हिंदू लॉ में उत्तराधिकार को महिला संबंध की तुलना में पुरुष संबंध को प्राथमिकता दी जाती है। इसी तरह मुस्लिम कानून में माता-पिता में से किसी एक की मृत्यु पर बेटों के हिस्से का केवल आधा हिस्सा बेटियों को मिलता है। अब सुनिश्चित हो कि सभी धर्मों में, सभी लिंग और पहचान वाले व्यक्तियों को समान उत्तराधिकारी बनाया जाए।

वर्ष 1974 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार के शिक्षा और समाज कल्याण मंत्रालय की ओर से गठित महिला कार्यकर्ताओं और विद्वानों की एक समिति ने समान नागरिक संहिता के पक्ष में तर्क दिया था। बाद में, राजीव गांधी सरकार के शाहबानो फैसला पलटने के बाद भाजपा ने इसे अपना चुनावी मुद्दा बना लिया।  यह समय भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार और कांग्रेस के नेतृत्व वाले विपक्ष, दोनों के लिए इस तरह की लैंगिक न्याय संहिता को लागू करने को काम करने का है जो इंडिया, भारत और इन दोनों के बीच के सभी लोगों के लिए सुखदायी हो।

लेखक अर्ध्य सैनगुप्ता  विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी के अनुसंधान निदेशक हैं और यूसीसी पर विधि आयोग को दी गई सामूहिक राय के लेखकों में एक हैं। समान नागरिक संहिता (UCC) पर विधि की तरफ से लेखों की सीरीज का यह पहला कॉलम है।

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