अरबों की पाक परस्ती से भारत बना इसराइल का दोस्त

अरबी इस्लामिक देशों की बेरुखी से क्या भारत इसराइल के क़रीब आया?
फ़लस्तीन मुक्ति संगठन के प्रमुख रहे यासिर अराफ़ात के साथ अटल बिहारी वाजपेयी

देहरादून 15 अक्टूबर। मध्य-पूर्व में यहूदी देश इसराइल का गठन संयुक्त राष्ट्र से 1948 में हुआ. यानी भारत के सालभर बाद. इसराइल बनने के पहले फ़लस्तीनी इलाक़े में यहूदी शरणार्थी थे.

इसराइल गठन में अमेरिका और ब्रिटेन की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही. यहूदी मूल रूप से फ़लस्तीनी इलाक़े के ही थे, लेकिन 71 ईस्वी में रोमन-यहूदी युद्ध में उन्हें विस्थापित होना पड़ा था. पहले विश्व युद्ध बाद फ़लस्तीन ब्रिटिश शासन में आ गया. तब बड़ी संख्या में यहूदी वापस आने लगे जबकि यहाँ अरब के लोग रह रहे थे.

अरब डर गये कि उनकी ज़मीन पर यहूदी बस रहे हैं. उन्होंने यहूदियों के आने का विरोध किया और अपने लिए स्वतंत्र फ़लस्तीन मांगा. लेकिन 1933 के बाद जर्मनी में यहूदियों पर अत्याचार से उनका आना जारी रहा और 1940 के अंत तक फ़लस्तीनी आबादी में आधे यहूदी हो गए.

1937 में ब्रिटिश शासन ने पील कमिशन गठित किया ताकि इस समस्या को दो देश बनाकर सुलझाया जा सके. एक देश अरबों और एक यहूदियों के लिए. लेकिन अरबों ने यह प्रस्ताव पूरी तरह से नकार दिया.

यहूदियों की ना

2003 में भारत के दौरे पर आए तत्कालीन इसराइली प्रधानमंत्री एरियल शरोन अटल बिहारी वाजपेयी के साथ

1939 में ब्रिटिश सरकार ने समस्या सुलझाने को अगले 10 साल में अरबों का एक देश बनाने और यहूदियों के आने पर रोक लगाने का प्रस्ताव रखा लेकिन तब यहूदियों ने इसे नकार दिया.दूसरे विश्व युद्ध बाद ब्रिटिश शासन कमज़ोर हो चुका था और उसे लगा किया यह समस्या अब उससे नहीं सुलझेगी. ऐसे में उसने संयुक्त राष्ट्र से कहा कि वही इस जटिल समस्या को सुलझाए.

नतीजा यह कि नवंबर, 1947 में संयुक्त राष्ट्र ने फ़लस्तीन के विभाजन का प्रस्ताव पास किया और एक यहूदी देश बनाने का रास्ता साफ़ हुआ. मई 1948 में डेविड बेन ग्युरियन ने स्वतंत्र देश इसराइल की घोषणा की और वही इसराइल के पहले प्रधानमंत्री बने.

इस नए-नवेले देश पर बनने के बाद ही मिस्र,सीरिया, जॉर्डन,इराक़ और लेबनान ने हमला कर दिया.अपने गठन के बाद से इसराइल प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अरब देशों से युद्ध में शामिल रहा.इसराइल बनने के बाद से मध्य-पूर्व इसराइल और अरब के देशों में जंग का मैदान बन गया.

भारत का इनकार,आइंस्टाइन ने नेहरू को लिखी थी चिट्ठी

भारत और इसराइल के राजनयिक संबंधों का इतिहास बहुत लंबा नहीं है. भारत ने इसराइल बनने के तुरंत बाद एक स्वतंत्र मुल्क के रूप में मान्यता नहीं दी थी. भारत इसराइल के गठन के ख़िलाफ़ था.

भारत ने संयुक्त राष्ट्र में इसके ख़िलाफ़ वोट किया था. भारत के समर्थन को मशहूर वैज्ञानिक आइंस्टाइन ने नेहरू को ख़त लिखा था.लेकिन नेहरू ने आइंस्टाइन के ख़त को भी नकार दिया था.

आइंस्टाइन ने नेहरू को लिखे खत में कहा था, ”सदियों से यहूदी दरबदर रहे हैं और इसका खामियाजा भी उन्हें भुगतना पड़ रहा है.लाखों यहूदी तबाह कर दिये गये है. दुनिया में कोई ऐसी जगह नहीं है,जहाँ वे ख़ुद को सुरक्षित महसूस कर सकें. एक सामाजिक और राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के नेता के रूप में मैं आपसे अपील करता हूँ कि यहूदियों का आंदोलन भी इसी तरह का है और आपको इसके साथ खड़ा रहना चाहिए.”

नेहरू ने आइंस्टाइन को जवाब में लिखा, ”मेरे मन में यहूदियों को लेकर व्यापक सहानुभूति है.मेरे मन में अरबों को लेकर भी सहानुभूति कम नहीं है.मैं जानता हूँ कि यहूदियों ने फ़लस्तीन में शानदार काम किया है.लोगों के जीवनस्तर बेहतर बनाने में बड़ा योगदान दिया है,लेकिन एक सवाल मुझे हमेशा परेशान करता है.इतना होने के बावजूद अरब में यहूदियों के प्रति भरोसा क्यों नहीं बन पाया?”

आख़िरकार 17 सितंबर 1950 को नेहरू ने इसराइल को मान्यता दी.नेहरू ने कहा था कि इसराइल एक सच है. उन्होंने कहा था कि तब इसलिए परहेज़ किया था क्योंकि अरब देश भारत के गहरे दोस्त थे और उनके ख़िलाफ़ नहीं जा सकते थे.

हालाँकि इसके बावजूद राजनयिक संबंध स्थापित नहीं हुए. भारत ने आंतरिक और अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों के कारण इसराइल से दूरी बनाई रखी. भारत को 1947 में आज़ादी के बाद आर्थिक और औद्योगिक विकास को अमेरिका और यूएसएसआर दोनों से फंड की ज़रूरत थी.

दूसरी तरफ़ अपने गठन के बाद से ही इसराइल अमेरिकी खेमे में था. वहीं भारत गुटनिरपेक्ष की नीति को लेकर आगे बढ़ रहा था.
अरब दुनिया से अच्छे संबंध 
इंदिरा गांधी सऊदी शासक के साथ

यह नीति किसी भी खेमे में शामिल होने के ख़िलाफ़ थी.तब भारत का अरब वर्ल्ड से अच्छा संबंध था.भारत अपनी ऊर्जा ज़रूरतें अरब वर्ल्ड से ही पूरी करता था और बड़ी संख्या में भारतीय भी अरब देशों में नौकरी करते थे और इन्हें भारत में विदेशी मुद्रा का महत्वपूर्ण स्रोत माना जाता था.

भारत में बड़ी संख्या में मुस्लिम भी है और इसराइल से दूरी बनाए रखने में एक कारण यह भी था. लेकिन 1991 में खाड़ी के युद्ध के बाद स्थिति बदली और इसराइल मध्य-पूर्व में एक ताक़तवर देश बनकर उभरा.

दूसरी तरफ़ शीत युद्ध के अंत के बाद भी दुनिया की तस्वीर बदल गई थी. तब तक भारत को हथियार आपूर्ति सोवियत यूनियन से ही होती थी. सोवियत यूनियन के पतन बाद भारत को भी सैन्य आपूर्ति को एक भरोसेमंद साथी की तलाश थी.

तब इसराइल और अमेरिका भारत की ज़रूरतें पूरी कर सकते थे. लेकिन भारत का संबंध अमेरिका के साथ शीत युद्ध से ही सामान्य नहीं था.अमेरिका की दोस्ती तब पाकिस्तान से थी क्योंकि शीत युद्ध में पाकिस्तान अमेरिका के साथ था.ऐसे में भारत यूएसएसआर के पतन के बाद भी रूस का क़रीबी रहा.

तब भारत का इसराइल के साथ राजनयिक संबंध नहीं था जबकि इसराइल का अमेरिका से बहुत ही क़रीबी रिश्ता था. अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अपने वीटो पावर का इस्तेमाल कम से कम 33 बार इसराइल के लिए किया.

इसराइल सैन्य हथियारों की आपूर्ति भारत में कर सकता था, लेकिन इसके लिए अमेरिकी मंज़ूरी ज़रूरी होती थी क्योंकि दोनों देश मिलकर उत्पादन करते थे.

कश्मीर पर समर्थन नहीं
अरब लीग हमेशा भारत के विरुद्ध पाकिस्तान के साथ रही
कहा जाता है कि सोवियत यूनियन के बिखरने के बाद भारत को अंतरराष्ट्रीय मसलों पर सुपरपावर के समर्थन की ज़रूरत थी. शीत युद्ध के अंत के बाद दुनिया में एक ही सुपर पावर बचा था और वो अमेरिका था.’

ऐसे में भारत ने इसराइल से राजनयिक रिश्ते क़ायम करने का फ़ैसला किया और यह अमेरिका के लिए संदेश था कि भारत शीत युद्ध के बाद अपनी विदेश नीति की समीक्षा कर रहा है.

दिलचस्प यह है कि अरब देशों से अच्छे संबंध होने के बावजूद अरब लीग से भारत को कश्मीर के मसले पर समर्थन नहीं मिला. हमेशा इस मामले में अरब लीग पाकिस्तान के साथ खड़ा रहा.

1978 में इसराइल का मिस्र और अन्य अरब देशों के साथ कैंप डेविड समझौता हुआ. इसमें अरब के कुछ देशों ने इसराइल से राजनयिक रिश्ता स्थापित करने का फ़ैसला किया. भारत को कैंप डेविड समझौते से भी इसराइल को लेकर अपनी नीति बदलने में मदद मिली.

इसके बाद पश्चिम एशिया शांति प्रक्रिया शुरू हुई और भारत इसमें हिस्सा लेना चाहता था. इसके लिए अमेरिका और इसराइल ने भारत के सामने शर्त रखी थी कि वो जब तक पूरी तरह राजनयिक संबंध क़ायम नहीं कर लेता है, तब तक इसमें शामिल नहीं हो सकता.

इसराइल के विदेश मंत्रालय के अनुसार भारत के लिए पश्चिम एशिया शांति प्रक्रिया में शामिल होना प्रतिष्ठा का विषय बन गया था. ऐसे में 23 जनवरी, 1992 को भारत के तत्कालीन विदेश सचिव जेएन दीक्षित ने इसराइल के साथ राजनयिक रिश्ते क़ायम करने की घोषणा की.

जेएन दीक्षित ने इस घोषणा को लेकर कहा था, ”मुझे इसराइल के साथ पूर्ण राजनयिक रिश्ते क़ायम करने और दोनों देशों में एक दूसरे के दूतावास खोलने की औपचारिक घोषणा के लिए कहा गया था. मैंने इसकी घोषणा 24 जनवरी को की.” इसराइल से राजनयिक रिश्ते क़ायम करने में तीन कारकों को सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है.

राजनयिक संबंध की शुरुआत

24 जनवरी, 1992 को चीन ने इसराइल से राजनयिक रिश्ता क़ायम कर लिया था.
मॉस्को में तीसरे चरण की मध्य-पूर्व शांति वार्ता शुरू हुई थी, जो 1992 में 28 जनवरी से 29 जनवरी तक चली.
भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की बैठक में शामिल होने अमेरिका के आधिकारिक दौरे पर 1991 के फ़रवरी महीने में गए थे. इस दौरे को इसराइल से राजनयिक रिश्ता क़ायम करने की शुरुआत माना जाता है.

जेएनयू में स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज के प्रोफ़ेसर पीआर कुमारस्वामी ने 2002 में एक लेख लिखा था, जिसमें उन्होंने कहा था कि 1947 के बाद से ही अमेरिका ने इसराइल को भारत से रुख़ बदलने के लिए दबाव डालना शुरू कर दिया था. यह कोई संयोग या दुर्घटना नहीं थी. नरसिम्हा राव के अमेरिकी दौरे से ही स्पष्ट हो गया था.”

इंडिया इसराइल पॉलिसी नाम की अपनी किताब में कुमारस्वामी ने लिखा है कि भारत को डर और आशंका थी कि इसराइल से पूर्ण राजनयिक रिश्ते क़ायम करने से मध्य-पूर्व के और देश नाराज़ न हो जाएँ, लेकिन ऐसा नहीं हुआ.

हालाँकि जेएन दीक्षित ने लिखा है कि उन्हें प्रधानमंत्री राव ने निर्देश दिया था कि अरब देशों में भारत के सभी राजदूतों को समझा दिया जाए ताकि वे अपनी बात ठीक से रख सकें.
जेएन दीक्षित ने अरब देशों की नाराज़गी को लेकर अपनी किताब ‘माई साउथ ब्लॉक इयर्स: मेमोरिज ऑफ़ अ फ़ॉरेन सेक्रेटरी’ में लिखा है, ”अरब देशों के कुछ राजदूतों ने भारत के इस फ़ैसले को लेकर आपत्ति जताई और कहा कि भारत को इसका ख़मियाज़ा भुगतना पड़ेगा. हमने फ़ैसला किया कि जो आपत्ति जता रहे हैं, उन्हें सीधा जवाब देना है, झुकना नहीं है.”

”मैंने कहा कि भारत ने अंतरराष्ट्रीय मसलों पर कई इस्लामिक देशों का समर्थन किया लेकिन कश्मीर के मामले में हमे समर्थन नहीं मिला. मैंने ये भी कहा कि भारत अपनी संप्रभुता में किसी किस्म की दख़लअंदाज़ी के सामने नहीं झुकेगा और अपने हितों के लिए काम करना जारी रखेगा. अरब के मीडिया में भारत की आलोचना हुई. कुछ लोगों ने भारत के इस फ़ैसले पर सवाल उठाए. लेकिन इससे भारत और अरब के संबंध प्रभावित नहीं हुए.”

आज़ादी के बाद से भारत के संबंध मध्य-पूर्व और अरब के मुस्लिम देशों से संबंध काफ़ी गहरे रहे लेकिन कश्मीर के मामले में इनका रुख़ पाकिस्तान परस्त ही रहा. 1969 में मोरक्को के रबात में इस्लामिक देशों के शिखर सम्मेलन में शामिल होने भारत को भी बुलाया गया था. लेकिन पाकिस्तान के विरोध के बाद भारत से आमंत्रण वापस ले लिया गया.

1971 में ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन यानी ओआईसी का गठन हुआ तो इसका भी कश्मीर को लेकर रुख़ पाकिस्तान परस्त ही रहा. 1991 में ओआईसी के सदस्य देशों के विदेश मंत्रियों का सम्मेलन कराची में हुआ और इसमें जम्मू-कश्मीर में फ़ैक्ट फ़ाइंडिंग मिशन भेजने का प्रस्ताव पास हुआ. भारत ने इस मिशन को अनुमति नहीं दी. तब ओआईसी ने भारत की निंदा की.

कई लोग मानते हैं कि भारत ने मध्य-पूर्व के इस्लामिक देशों के पाकिस्तान परस्त रुख़ को देखते हुए इसराइल को गले लगाया. भारत के पास एक तर्क ये भी था कि इसराइल एक लोकतांत्रिक देश है.

भाजपा और इसराइल
केंद्र में पहली बार भाजपा नेतृत्व वाली सरकार आई और अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने तो इसराइल के साथ रिश्ते और गहराये. वाजपेयी शासन काल में इसराइल के साथ आर्थिक, सामरिक, विज्ञान-तकनीक और कृषि के क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण समझौते हुए.

वाजपेयी सरकार में दोनों देशों के बीच कई द्विपक्षीय दौरे हुए. 1992 में इसराइल से राजनयिक संबंध क़ायम होने के बाद भारत की ओर से पहली बार 2000 में तत्कालीन गृह मंत्री आडवाणी और विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने इसराइल का दौरा किया.

लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी किताब ‘माई कंट्री माई लाइफ़’ में अपने इसराइल दौरे को लेकर लिखा है, ”जून 2000 में इसराइल की मेरी पाँच दिवसीय यात्रा से उस देश के साथ मेरे पुराने संबंध फिर से ताज़ा हो गए. नई परिस्थितियों में मित्रता बढ़ाने और द्विपक्षीय सहयोग को सशक्त करने में बड़े उपयोगी साबित हुए. 1995 में भाजपा अध्यक्ष के रूप में मैं इसराइल गया था. दोनों देशों, जिनमें कई बातों में समानता है, के बीच राजनयिक संबंधों के पूर्ण सामान्यीकरण में अपनी भूमिका पर मुझे गर्व है.”

इस दौरे में आडवाणी ने फ़लस्तीनी नेता यासिर अराफ़ात से ग़ज़ा में मुलाक़ात की थी. इस दौरे में आडवाणी ने इसराइल से परमाणु सहयोग बढ़ाने की वकालत की थी.

इसके बाद इसराइल के प्रधानमंत्री एरिएल शरोन 2003 में भारत दौरे पर आए और यह दोनों देशों के द्विपक्षीय संबंधों के लिए काफ़ी महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ. रूस के बाद अब इसराइल भारत का सबसे बड़ा हथियार आपूर्तिकर्ता देश है.

2017 जुलाई में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसराइल के दौरे पर गए और यह किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री का पहला इसराइल दौरा था.अब तक कोई भी भारत से उच्चस्तरीय नेता इसराइल जाता था.तो फ़लस्तीनी क्षेत्र में ज़रूर जाता था,लेकिन मोदी इस दौरे में फ़लस्तीनी इलाक़े में नहीं गए और न ही इस दौरे में फ़लस्तीनियों का एक बार भी नाम लिया था.

हालाँकि 2018 में मोदी अलग से फ़लस्तीनी इलाक़े गए. कहा जाता है कि भारत को अमेरिका के क़रीब लाने में इसराइल का सबसे बड़ा हाथ है.अमेरिका में यहूदी लॉबी बहुत शक्तिशाली है और भाजपा शासन में भारत की इस लॉबी से क़रीबी रहती है.

पिछले हफ़्ते फ़लस्तीनी चरमपंथी संगठन हमास ने इसराइल में घुसकर हमला किया तो भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुलकर कहा कि भारत इस आतंकवादी हमले के ख़िलाफ़ इसराइल के साथ खड़ा है.

नरेंद्र मोदी ने इसराइली प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू से बात भी की और मुश्किल वक़्त में साथ खड़े होने की बात दोहराई.

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