ब्लॉग:अरब पर अटके जिद्दी मुसलमान और हिंदुओं का डर

 

हिजाब विवाद : मुसलमानों की जिद और हिंदुओं का डर

कर्नाटक के कुछ स्कूलों में हिजाब पर विवाद

भारत में पिछले कुछ सालों से हिंदू-मुसलमानों के बीच संघर्ष बढ़ा है। क्या यह सही है? सोच-समझकर जवाब दीजिएगा। अगर आपका जवाब ‘हां’ है तो फिर से सोचिए और दुनिया के उस देश का नाम बताइए जहां मुसलमानों का दूसरे संप्रदायों के साथ सद्भाव बढ़ा हो। बहुत माथापच्ची के बाद एकाध के लिए आप दावेदारी ठोक भी दें तो स्वाभाविक है, वह अपवाद की श्रेणी में ही आएगा, उदाहरण नहीं हो सकता। याद रखिए यह स्थिति इंटरनेट युग में है जब पूरी दुनिया एकाकार हो चुकी है। सूचनाओं का निर्बाध आदान-प्रदान हो रहा है। इसलिए यह बिल्कुल नहीं कहा जा सकता है कि मुसलमानों तक आधुनिक सोच और जीवनशैली पहुंच ही नहीं पा रही है। गहराई से गौर करेंगे तो पूरी मानवता प्रगति के लिए प्रयासरत है, उसके ठीक उलट मुसलमान पूरी मानवता के साथ युद्धरत है क्योंकि उसे प्रगतिशीलता से खौफ है और आधुनिकता से दुश्मनी।

1400 साल से अटकी है सूई

कांग्रेस पार्टी समेत तमाम विपक्ष के लिए अपने भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जुमले का सहारा लें तो कह सकते हैं कि मुसलमानों की सूई 1400 पूर्व की स्थिति में अटकी हुई है। मोदी ने विपक्ष के लिए कहा था कि उनकी सूई 2014 में ही अटकी हुई है। भारत समेत दुनियाभर में स्थानीय समुदायों के साथ मुसलमानों के संघर्ष में इजाफे की मूल और बड़ी वजह यही है। पूरी मानवता को आभास हो रहा है कि मुसलमान प्रगति पथ पर बढ़ने के उनके अथक प्रयासों में न सिर्फ बाधक बन रहा है बल्कि खुद की तरह प्रतिगामी बनाने के लिए दिन दूनी रात चौगुनी मेहनत कर रहा है। मुसलमानों की इस जिद से दुनिया चिंतित है क्योंकि सुधार की उम्मीद में टकटकी लगाए ‘वैश्विक समुदायों’ को अब और इंतजार करना गंवारा नहीं हो रहा है। वो निराश हो रहे हैं क्योंकि मुसलमानों के चाल-चरित्र में बदलाव के मद्देनजर चारों तरफ घना अंधेरा दिख रहा है। कहीं से भी प्रकाश की एक किरण भी नहीं। आप मेरी समझ पर उंगली उठा सकते हैं।  आपका हक है। गुजारिश सिर्फ इतनी है कि आप अपने इस हक का इस्तेमाल करते वक्त तर्कों का सहारा लीजिएगा और मुझमें दुश्मन ढूंढने की जिद से बचिएगा।

हिजाब पर बवाल और नोबेल विजेता की पीड़ा

स्वाभाविक है कि आपके मन में अब तक यह सवाल उबाल मारने लगा होगा कि आखिर मैं इन निष्कर्षों पर कैसे पहुंचा? इसका जवाब तो हर जगह बिखरा पड़ा है। कर्नाटक के कुछ विद्यालयों में मुस्लिम छात्राओं के हिजाब पहनने का विरोध हो रहा है। लेकिन वो हैं कि ड्रेस कोड जैसी व्यवस्था को धता बताकर इस्लामी रिवाजों से टस से मस नहीं होना चाहतीं। अब तो यह भी कहा जा रहा है कि ‘हिजाब हमारा अधिकार है।’ कौन सा अधिकार? खैर, इस दावे का परीक्षण हाई कोर्ट में हो रहा है। वह फैसला करेगा कि हिजाब इस्लाम का अभिन्न अंग है या नहीं। लेकिन, इधर देश ही नहीं दुनिया के मुसलमानों के बीच क्या धारणा है, इस पर गौर कीजिए। नोबेल पुरस्कार विजेता मलाला यूसुफजई कहती हैं, ‘कॉलेज हमें पढ़ाई और हिजाब के बीच किसी एक को चुनने को बाध्य कर रहे हैं। हिजाब पहनी लड़कियों को स्कूल में प्रवेश देने से इनकार करना खौफनाक है। महिलाएं कम पहनें या ज्यादा, इस आधार पर उन्हें वस्तु मानने की धारणा अब भी कायम है। भारतीय नेताओं को मुस्लिम महिलाओं को हाशिए पर धकेलना बंद करना ही चाहिए।’

मलाला यूसुफजई का ट्वीट

इस्लाम के जकड़न में कराहती आधुनिकता की आत्मा

यकीन कीजिए पाकिस्तान में जन्मीं यह वही मलाला हैं जिन्हें आतंकी संगठन तालिबान ने इस्लामी रिवाजों की दुहाई देकर ही स्कूल जाने से रोका था और एक दिन गोलीबारी में मलाला घायल हो गईं। दुनियाभर में प्रचार हुआ कि मलाला ने आधुनिक शिक्षा पाने के लिए तालिबान जैसे खूंखार आतंकी संगठन से लोहा ले लिया। फिर उन्हें नोबेल पुरस्कार मिल गया। तब से मलाला के विचारों और सुझावों पर गौर कीजिए। वो हर उस मामले पर विजनरी दिखेंगी जिसका संबंध इस्लाम से नहीं है। जैसे ही मुसलमानों की बात होगी, वो तुरंत कट्टर मुसलमान हो जाएंगी। उनकी जीवन शैली को ही देख लीजिए, पता चल जाएगा कि इस्लाम उनमें किस हद की कट्टरता के साथ रचता-बसता है। यही हाल दुनियाभर के तथाकथित लिबरल्स का है। उनकी पहचान कुछ भी हो सकती है- वो चाहे सामाजिक कार्यकर्ता के चोले में हों या फिर वो फिल्म ऐक्टर, पत्रकार, साहित्यकार, संगीतकार, रिटायर्ड जज या नौकरशाह आदि हो सकते हैं। यहां तक कि पूर्व उपराष्ट्रपति भी।

छवि से उलट लिबरैल गैंग की सच्चाई

बड़ी दिलचस्प बात है कि ये सभी पूरी दुनिया को उदार बनाना चाहते हैं, लेकिन उसी शिद्दत से मुसलमानों को कट्टर बनाए रखने पर आमादा हैं। कोई मुसलमान अगर प्रगतिशील होने की सोच भी ले तो उस पर यह झुंड शिकारी कुत्तों जैसा झपट पड़ती है। हर बार वो बताते हैं कि उदार होने की बाध्यता गैर-मुस्लिमों को है, मुसलमानों के लिए तो यह ऑप्शन ही नहीं है। आईपीएस नजमूल होदा ने टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखा भी है कि तथाकथित लिबरल जमात मुसलमानों को अपने पैदल सैनिक के रूप में इस्तेमाल करती है। मैं जानता हूं कि नजमूल होदा का नाम पढ़ते ही आपकी आंखों में नूर आ गया होगा। आप चमत्कृत हो गए होंगे यह सोचकर कि मैंने खुद के खिलाफ ही बड़ा हथियार आपको दे दिया। तो भाईजान! मैंने ऊपर कह चुका हूं, अपवाद उदाहरण नहीं हुआ करते। वैसे भी कितने मुसलमान आईपीएस नजमूल होदा या पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम को अपना आदर्श मानता है? ऐसे मुसलमानों का प्रतिशत कितना होगा? क्या आपने किसी मुसलमान को कलाम की बात करते सुना? फिर नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह गए ना ये आईपीएस होदा जैसे उंगलियों पर गिने जाने वाले मुसलमान? इसलिए, ऐसी बातों की आड़ लेना छोड़िए और सच्चाई को स्वीकरना सीखिए।

जोर पकड़ता नैरेटिव सेट करने का संघर्ष

खैर, आप सच्चाई स्वीकारें या यूं ही नींद में ऊंघते रहें, लेकिन जिनकी आंखें खुल गई हैं, वो यह जानते हैं कि पूरी दुनिया में नैरेटिव सेट करने का संघर्ष जोर पकड़ रहा है। खासकर, भारत में वर्ष 2014 से यह संघर्ष गहरा हो गया है। मुसलमानों इस दुष्प्रचार में जुटे हैं कि नरेंद्र मोदी की सरकार आने के बाद से उनके अधिकारों पर हमला हो रहा है। दंगे करने का अधिकार हो या धर्म परिवर्तन करवाने पर केंद्रित रहने का अधिकार या फिर बात-बात में इस्लाम पर आसन्न खतरे की घोषणा करने का अधिकार… मुसलमान चिल्ल-पों मचाने में जुटे हैं कि मोदी सरकार में मुसलमान असुरक्षित हैं। हालांकि, उन्हें थोड़ी-थोड़ी आशंका है भी तो यह कि मोदी सरकार में हिंदुस्तान को मुस्लिम राष्ट्र बनाने की उनकी मंशा पर कुठाराघात हो रहा है।

जागृत हिंदुओं का वर्ग इसी आशंका को स्पष्ट करने में जुटा है। उसे अपने और अपनी आगंतुक पीढ़ियों की भविष्य की चिंता सता रही है। उसे डर है कि अगर मुसलमानों ने यूं ही खुद को भारत और भारतीयता से अलग मानने की जिद बरकरार रखी तो उनके अस्तित्व पर खतरा गहराता जाएगा। इस कारण खुद को ‘अभी नहीं तो कभी नहीं’ की घुटन भरी स्थिति में फंसा हुआ देखकर हिंदू सर्वत्र सहनशीलता के आत्मघाती दर्शन से इतर, आत्मरक्षा में जैसे को तैसा की व्यावहारिक शैली को गले लगाना शुरू कर रहा है। तो कुल मिलाकर भारत में ये हिजाब का मामला हो या कोई और, हिंदू-मुसलमान के बीच संघर्ष के केंद्र में नैरेटिव सेट करने की होड़ है। हिंदुओं का एक वर्ग समझने लगा है कि देश में फिर से इस्लामी नैरेटिव सेट हुआ तो उसकी आने वाली नस्लें हमेशा खतरे में जिएंगी। हिंदू कट्टर इस्लाम का विरोध सिर्फ और सिर्फ अपनी संतानों को सुरक्षित भविष्य देने के लिए कर रहा है जबकि मुसलमान 80% आबादी पर अपनी हेकड़ी कायम करने की जिद पाले है।

कट्टर इस्लाम की फिक्र में दुबला होता उदारवादी गिरोह

आप कहेंगे कि आखिर हिंदुओं में ऐसी जागृति कैसे आ गयी? इसका सबसे बड़ा कारण इंटरनेट के कारण सूचना की सुलभता है। इस दिशा में सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म्स क्रांतिकारी भूमिका निभा रहे हैं। कल तक जो पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, ऐक्टर आदि उदारवाद के मशाल वाहक जान पड़ते थे, इस सूचना युग में उनकी हरकतों से पर्दा उठने लगा तो पता चला कि हमाम में सब नंगे हैं। बल्कि ये उदारवादी तो असल में सबसे बड़े कट्टर हैं और प्रगतिशीलता की राह के सबसे बड़ा रोड़ा तो यही हैं। हिंदुओं को लगने लगा कि ये हमें इसलिए उदार बनाना चाहते हैं ताकि कट्टर इस्लाम के रास्ते में कोई रोड़ा नहीं अटके। उन्होंने गौर किया तो लगातार स्पष्ट होने लगा कि दरअसल उदारवादियों को मुसलमानों की नहीं बल्कि कट्टर मुसलमानों की फिक्र है। तथाकथित उदारवादी और सेक्युलर जमात हमेशा मुसलमानों में उदारवाद की जगह कट्टरता को तरजीह देता है। वो हर वक्त मुसलमानों में कट्टरता को उभारने की जीतोड़ कोशिशें करता है जबकि बाकी समुदायों को उदार बनाने की। एक टीवी ऐंकर ने तो काबुल पर तालिबान के कब्जे के बाद एक कैमरामैन की हत्या होने पर लानतें तालिबानी आतंकियों को नहीं, बंदूक को भेज दीं। वैसे ही नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के खिलाफ मुसलमानों को यह दुष्प्रचार करके भड़काया कि इससे उनकी नागरिकता खतरे में आ जाएगी।

सीएए के विरोध में मुसलमानों ने जमकर मचाया उत्पात

आप सोचिए कि ये उदारवादी क्या चाहते हैं? जब वो कहते हैं कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में प्रताड़ित अल्पसंख्यकों के साथ-साथ उन्हें जीना हराम करने वाले मुसलमानों को भी भारत में शरण दो तो इसके पीछे क्या मानसिकता हो सकती है? जान लीजिए कि सीएए में किसी भारतीय मुसलमानों की नागरिकता की कोई चर्चा ही नहीं है, बल्कि तीन पड़ोसी मुस्लिम बहुल देशों में धर्म के आधार पर प्रताड़ित अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को भारतीय नागरिकता देने की प्रक्रिया तेज करने का प्रावधान है। वो भी 31 दिसंबर 2014 तक भारत पहुंच गए शरणार्थियों के लिए ही। सीएए में कहीं नहीं कहा गया कि इन तीन देशों या अन्य किसी देश के मुसलमानों को नागरिकता नहीं दी जाएगी। उन्हें सामान्य प्रक्रिया में नागरिकता यूं ही मिलती रहेगी जैसे संविधान के अस्तित्व में आने के बाद से मिल रही है।

लेकिन, भारतीय मुसलमानों ने कथित लिबरल गैंग के उकसावे का बहाना पाकर देशभर में तो तांडव किया, उससे देश के उज्ज्वल भविष्य की कामना करने वाला कौन भारतीय सहम नहीं जाएगा? आदर्श स्थिति तो यह होती कि भारतीय मुसलमानों का सिर शर्मिंदगी से झुके क्योंकि तीनों पड़ोसी देशों में उसी इस्लाम के नाम पर अल्पसंख्यकों का धार्मिक उत्पीड़न किया जा रहा है जिसके वो अनुयायी हैं। लेकिन, झुके भी तो कैसे, भारतीय मुसलमान तो इस होड़ मे हैं कि हम तो पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान ही क्या दुनिया के किसी भी देश के मुसलमान से ज्यादा धार्मिक हैं। इन कूढ़ मगजों को लगता है कि ज्यादा धार्मिक होने का मतलब ज्यादा कट्टर, ज्यादा अमानवीय, ज्यादा हिंसक और ज्यादा संकुचित होना होता है। इस कारण उन्होंने सच्ची धार्मिकता का प्रदर्शन देशभर में उत्पात मचाकर किया था।

अकुलाहट में अनुशासन तोड़ता एकाध हिंदू और लिबरल गैंग का चिल्ल-पों

ऐसे में अगर दूसरे वर्ग यानी हिंदुओं को उदारवाद का ज्ञान देंगे तो भला कौन मानेगा और क्यों मानेगा? सारी उम्मीदें खो चुका हिंदुओं में एकाध कोई प्रतिकार में मुसलमानों के ही रास्ते पर चल पड़ता है तो लिबरल गैंग पूरी दुनिया में ऐक्टिव हो जाता है। तुरंत कहने लगता है- देखो, देखो, मोदी सरकार में हिंदू कट्टर हो गया है, भारत में असहिष्णुता बढ़ गई है। सोचिए, जब कोई जायरा वसीम यह कहकर ऐक्टिंग का करियर छोड़ सकती है कि इस्लाम इसकी इजाजत नहीं देता है तो आम हिंदू क्या सोचेगा? लेकिन, मजाल है कि किसी उदारवादी, नारीवादी ने चूं भी बोला हो कि ऐ जायरा! तुम्हें ऐक्टिंग छोड़नी हो तो छोड़ो, लेकिन ये धर्म-वर्म का ड्राम मत करो। भारतीय सिने जगत में मुसलमानों का ही दबदबा रहा है, क्या वो सारे मुसलमान इस्लाम विरोधी हैं? क्या किसी खान या नसीरूद्दीन शाह ने जायरा का प्रतिकार किया कि उसने ऐक्टिंग का करियर छोड़ने के लिए इस्लाम की आड़ क्यों ली? ऐसा संभव ही नहीं है।

दरअसल, उदावरादियों की नजर में ऐसी उम्मीद करने वाला ही गुनहगार और सांप्रदायिक है। इसलिए, हिंदुओं में अकुलाहट है। वह प्रतिकार करना चाहता है। यह सच है कि बड़े से बड़े अनुशासित समाज, संप्रदाय, समूह या व्यक्ति से भी कभी ना कभी अनचाहे अनुशासन की मर्यादा टूट जाती है जब उसका सामना घोर अराजक, अमानवीय विचारों से होता रहे। आज हिंदुओं के साथ यही हो रहा है। इस समाज का एकाध व्यक्ति या समूह मुसलमानों का प्रतिकार करते-करते अनुशासन की सीमारेखा कब पार कर जा रहा है, उसे शायद पता ही नहीं। संभव है उनमें से कुछ ने इस उतावलेपन में जानबूझकर इस सीमारेखा को लांघने की ठान ली हो कि मुसलमानों को रास्ते पर लाने की प्रक्रिया तेज हो जाए। तब कहा जाता है कि हिंदू तो बहुत कट्टर है। हां, हम समझ रहे हैं कि लिबरल गैंग में हिंदुओं पर मुसलमानों जैसी कट्टरता का धब्बा लगाने की इच्छा कितनी बलवती है। यह गैंग अपने दुष्प्रचार में तो कामयाब होता दिख सकता है, लेकिन यह अकाट्य सत्य है कि हिंदू अपने मूल स्वभाव में कभी मुसलमान नहीं हो सकता। तात्कालिक मजबूरियों ने तो बर्मा में बौद्धों को भी तलवार उठाने पर मजबूर कर दिया है।

आखिर में आपसे एक सवाल

आप सोचिए कि आपके अवचेतन में यह भाव गहरे बैठ चुका है कि धार्मिक कठमुल्लापन तो मुसलमानों का हक है। आप किसी मुसलमान को अन्य समुदाय के लोगों की तरह सामान्य व्यवहार करते देखते हैं तो उसे तुरंत महान उदारवादी होने का सर्टिफिकेट जारी कर देते हैं जबकि हिंदुओं के लिए उदारता का पैमाना ऊपर चढ़ते-चढ़ते यहां तक पहुंच गया कि अब देशविरोधी गतिविधियों को भी स्वीकारना शर्तों में शामिल कर दिया गया है। वो रस्सी को एक-एक इंच आगे खिसका रहे हैं और हमारा दायरा सिकुड़ता जा रहा है। अब वंदे मातरम हराम हो गया है, भारत माता की अवधारणा इस्लाम के खिलाफ है, राष्ट्रगान के सम्मान में खड़े होने की बाध्यता मुसलमानों के अधिकार में कटौती है जबकि भारत पर पाकिस्तान की जीत पर पटाखे फोड़ना, आतंकियों के समर्थन में ‘कितने अफजल मारोगे हर घर से अफजल निकलेगा और भारत तेरे टुकड़े होंगे इंशा अल्लाह, इंशा अल्लाह’ जैसे नारों को स्वीकारना उदारता के दायरे में ला दिया गया है। अंत में आप से भी एक सवाल है- मुसलमान प्रगतिगामी नहीं बल्कि प्रगतिशील हैं और दुनियाभर में जो मुसलमान बनाम अन्य का संघर्ष चल रहा है, उसमें अन्य सभी आधुनिकता के खिलाफ हैं और मुसमलान घोर प्रगतिवादी, इस निष्कर्ष पर आप कैसे पहुंचे? जवाब हो तो बताइएगा जरूर, बेसब्री से इंतजार है।

स्पष्टीकरण : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं
लेखक
नवीन कुमार पाण्डेय

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