लक्कड़ हज़म पत्थर हज़म चीन हज़म नहीं कर पाता दूध

क्यों सब कुछ पचा जाने वाली चीनी आबादी नहीं पचा पाती दूध? 90 प्रतिशत से ज्यादा को है ये बीमारी
चीन के बारे में माना जाता है कि वहां लोग ऐसी-ऐसी चीजें पचा जाते हैं, जो दुनिया के कई हिस्सों में खाई तक नहीं जातीं. लेकिन इस देश की बड़ी आबादी को दूध के डाइजेशन में परेशानी होती है. वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम के अनुसार, साल 1961 में वहां प्रति व्यक्ति सालाना दो लीटर दूध ही पीता था. दूध से चीन के बैर का एक नाम है- लैक्टोज इनटॉलेरेंस.

चीन की बड़ी आबादी को दूध के पाचन में समस्या रहती है.
नई दिल्ली,05 अप्रैल 2024,कोरोना के शुरुआती वक्त में चीन काफी घिरा हुआ था. कई देश आरोप लगा रहे थे कि कोरोना वायरस चीन के वुहान मार्केट से फैला. ये वो बाजार है, जहां एग्जॉटिक एनिमल मीट मिलता है, जैसे सांप, चमगादड़. चीन ने आरोपों को सिरे से नकारते हुए तब वुहान मार्केट को बंद करा दिया. ये भी पक्का नहीं हो सका कि वायरस आखिर फैला कहां से. लेकिन इस बीच चीन के सबकुछ खाकर पचा सकने की बात खूब कही जाने लगी. लेकिन चाइनीज आबादी के लिए दूध पचाना मुश्किल रहा.

क्या कहता है अध्ययन

चीन की थोड़ी-बहुत नहीं, बल्कि करीब 92% आबादी लैक्टोज इनटॉलेरेंट है. अमेरिकी बायोमेडिकल लाइब्रेरी नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन में ये स्टडी छपी है. अध्ययन के अनुसार सबसे ज्यादा प्रभावित लोग नॉर्थईस्टर्न चीन से हैं, लेकिन बाकी हिस्सों में भी असर 80 प्रतिशत से ज्यादा है, यानी लोगों को दूध के पाचन में समस्या रहती है. काफी सारे लोग ऐसे हैं जो दूध बिल्कुल भी पचा नहीं सकते, वहीं बाकी आबादी में मालएब्जॉर्प्शन की परेशानी है. वे डाइजेस्ट तो कर पाते हैं, लेकिन दूध के पोषक तत्वों का पूरा फायदा नहीं मिल पाता.

बच्चों में भी उम्र के साथ बढ़ती है परेशानी

चाइनीज प्रिवेंटिव मेडिसिन एसोसिएशन (CPMA) ने भी एक अध्ययन में पाया कि छोटे बच्चों को भले ही दूध दिया जाए, लेकिन जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ती है, दूध का पाचन मुश्किल होता चला जाता है. CPMA की मानें तो 11 से 14 साल के 40% बच्चों में लैक्टोज इनटॉलेरेंस पैदा हो चुका होता है.

क्या है दूध को न पचा पाने वाली बीमारी

इसे लैक्टोज इनटॉलेरेंस कहते हैं. इसमें दूध ही नहीं, उससे बनी कई सारी चीजें पच नहीं पातीं. लैक्टोज दूध में मिलने वाली शुगर है. इसे पचाने के लिए आंत में जो एंजाइम बनती है, उसे लेक्टेज कहते हैं. जब छोटी आंत में ये एंजाइम ठीक से नहीं बन पाता तो दूध पच नहीं पाता.

क्या है दूध न पचा पाना

दूध या इससे बनी चीजें खाने पर अपच को लेक्टोस इनटॉलरेंस कहते हैं. यानी लेक्टोज न सह पाना. लेक्टोज दूध में पाई जाने वाली शक्कर है, जो इससे बनी चीजों जैसे पनीर, घी और बटर में भी होती है. जो लोग दूध पचा नहीं पाने की बात करते हैं, वे असल में इसमें पाई जाने वाली यही शक्कर नहीं पचा पाते. इस अपच का कारण है उनकी छोटी आंत, जिसमें लेक्टोज को पचाने के लिए जरूरी एंजाइम नहीं बन पाता.

कैसे पता चलता है कि कोई लेक्टोज नहीं पचा पाता

दूध पीने के 30 मिनट से 2 घंटे के भीतर ये समझा जा सकता है.इस अवधि में पेट दर्द,उल्टियां,उबकाई आना,पेट से खदबद की आवाजें आना या डायरिया जैसी समस्या भी हो सकती है.अगर हमेशा ये लक्षण दूध पीने के बाद दिखें तो समझा जा सकता है कि आप लेक्टोज नहीं पचा पाते हैं. इसके बाद इसके कई टेस्ट भी होते हैं,जो इसे पक्का कर देते हैं.

कौन हैं इससे प्रभावित

लेक्टोज न पचा पाने वाले कई बच्चे उम्र के साथ दूध पचा पाते हैं, वहीं कई बार ये समस्या पूरी उम्र बनी रहती है. ये भी देखा गया कि भौगोलिक संरचना के आधार पर लेक्टोज इनटॉलरेंस बढ़ता-घटता रहता है. जैसे एशिया के लोगों में ये समस्या ज्यादा देखी जाती है, जबकि यूरोपियन आबादी के साथ ये परेशानी बहुत कम है. एशिया में भी चीन के लोगों में दूध न पचा पाने की समस्या सबसे ज्यादा है.

शुरू में 90 प्रतिशत जनसंख्या बीमार

चीन के 60 प्रतिशत  से भी ज्यादा लोगों में ये समस्या काफी ज्यादा है. द वीक में छपी एक रिपोर्ट में दावा है कि चीन के 90 प्रतिशत लोग लेक्टोज नहीं पचा पाते, लेकिन धीरे-धीरे उनमें से कुछ लोग उम्र के साथ दूध की कुछ मात्रा पचाने लगते हैं. वे जन्म से लेकर वयस्क होने तक भी दूध नहीं पचा पाते हैं. ऐसे में कैल्शियम की जरूरत पूरी करने के लिए वे सोया से बना मिल्क और पनीर जैसी चीजें खाते हैं.

आखिर चीन में क्यों है ये परेशानी

वैज्ञानिक अभी तक इस बात का पता नहीं लगा सके कि चीन में ये समस्या इतनी ज्यादा क्यों है. हालांकि ये माना जाता है कि एशियाई देशों जैसे चीन और अफ्रीकी देशों में गरीबी के कारण दूध की उपलब्धता कम थी. ऐसे में उनके पूर्वजों के डीएनए में इस तरह का बदलाव ही नहीं आ सका, जो दूध को पचाने में मदद करें. ये समस्या अब तक चली आ रही.

शरीर में हुए बदलाव

अपनी इस बात के पक्ष में वैज्ञानिकों ने ए़डॉप्टेशन यानी अनुकूलन का प्रमाण दिया. इसके मुताबिक पाषाण युग से आगे बढ़ते हुए शरीर में कई अंदरुनी और बाहरी बदलाव हुए. इसी के साथ खानपान की आदतों में भी बदलाव दिखा. ये बदलाव चीजों की उपलब्धता के आधार पर भी हुआ. यानी खेती-किसानी में लगे लोगों को बाय-प्रोडक्ट की तरह दूध भी मिलने लगा. लिहाजा दूध पीने की आदत डली और धीरे-धीरे शरीर में उसके मुताबिक बदलाव हो गया. ये स्टडी biorxiv नाम की साइंस जर्नल में छपी थी.

इसलिए है  शिकार 

चूंकि चीन समेत कई एशियाई देशों में दूध आसानी से उपलब्ध नहीं था, इसलिए वहां के लोगों का शरीर इसके लिए अनुकूलित नहीं हो सका. यही कारण है कि आज भी चीन की आधी से ज्यादा आबादी दूध नहीं पचा पाती है. और अगर दूध या उससे बनी चीजें खा ले तो तुरंत पेट खराब होना या उल्टियां होने जैसी समस्या होने लगती है.

मिल्क एलर्जी अलग चीज है

लेक्टोज इनटॉलरेंस फूड एलर्जी से अलग किस्म की समस्या है. फूड एलर्जी सीधे इम्यून सिस्टम से जुड़ी परेशानी है. इसमें अगर कोई ऐसी चीज खा लेता है, जिससे उसे एलर्जी है तो समस्या काफी गंभीर और यहां तक कि जानलेवा भी हो सकती है. वहीं लेक्टोज न पचा पाना केवल कुछ घंटों के लिए रुटीन खराब करता है. वहीं दूध से एलर्जी भी एक अलग समस्या है. इसमें इम्यून सिस्टम दूध के प्रोटीन को फॉरेन पार्टिकल मान लेता है और उससे लड़ने के लिए सक्रिय हो जाता है. नतीजा ये होता है कि वो अपनी ही कोशिकाओं पर हमला करने लगता है. इस स्थिति को anaphylaxis कहते हैं जो काफी गंभीर स्थिति है. ये जानलेवा भी हो सकती है.

दूध उत्पादन में तीसरा नंबर है चीन का

वैसे चीनियों के दूध न पचा पाने की समस्या के बीच एक दिलचस्प बात ये है कि ये देश दूध के उत्पादन में दुनिया का तीसरा सबसे आगे खड़ा देश है. UK Agriculture & Horticulture Development Board के मुताबिक सबसे आगे अमेरिका और उसके बाद भारत हैं. बीते कुछ सालों में चीन ने 37 मिलियन टन से भी ज्यादा दूध का हर साल उत्पादन किया. ये काफी बड़ूी मात्रा है. लेकिन इतने दूध के प्रोडक्शन के बाद भी चाइनीज इसे खुद पीने की बजाए निर्यात पर जोर देते हैं.

Tags: China, Milk, Nutritious diet

चीन क्यों नहीं पचा पाता दूध

इसकी ठीक-ठीक वजह कभी पता नहीं चल सकी. माना जाता है कि पुराने समय में चीन की बड़ी आबादी की डाइट में दूध या डेयरी उत्पाद ही नहीं थे. धीरे-धीरे उनका शरीर इसी तरह ढल गया. चाइनीज लोगों के शरीर में लैक्टोज पचाने वाले एंजाइम की कमी हो गई. एंथ्रोपोलॉजिस्ट ने इसे नॉनमिल्किंग कल्चर मान लिया. चीनियों में दूध को लेकर पूर्वाग्रह भी था. चूंकि पश्चिमी देश डेयरी प्रोडक्ट खूब खाते-पीते थे और चीन का पश्चिम से विरोध रहा तो खाने-पीने के उन तरीकों का भी विरोध चलता रहा. दूध भी इसमें गेहूं में घुन की तरह आ गया. इसके बाद छोटे बच्चों में भी दूध पचाने को लेकर मुश्किल होने लगी.

वैसे समय और कोशिश से इसे बदला भी जा सकता है, लेकिन ये तभी संभव है, जब बचपन से ही दूध पीने की आदत डाली जाए. यही सोचते हुए चीन ने साल 2000 में एक प्रोग्राम लॉन्च किया, जिसमें बच्चों को रोज एक कप दूध दिया जाता. पेरेंट्स को भी कहा जाने लगा कि वे घर पर बच्चों के खाने में दूध भी शामिल करें.

अब क्या बदला है

बाहर घुलने-मिलने की वजह काफी कुछ अलग हुआ. खाने-पीने की आदतें देखादेखी बदलीं. चीन के लोग भी अब डेयरी प्रोडक्ट लेने लगे हैं. वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम की रिपोर्ट से बीते और अब के समय में फर्क साफ दिखेगा. इसके मुताबिक, साल 1961 में जहां पूरे साल में प्रति व्यक्ति दो लीटर दूध ही लिया जाता था, वही अब ये 82 लीटर हो चुका. ये बड़ा फासला है.

क्या लैक्टोज इनटॉलेरेंस और मिल्क एलर्जी एक ही बात है

दोनों में बहुत फर्क है. लैक्टोज इनटॉलरेंट लोग दूध पीने या डेयरी प्रोडक्ट लेने पर थोड़ी देर या कुछ घंटों के लिए बीमार होते हैं. उन्हें उल्टियां होती हैं, पेटदर्द या खदबदाहट होती है. ये अपने-आप ठीक भी हो जाएगी. लेकिन मिल्क एलर्जी एकदम अलग है. ये वो अवस्था है, जिसमें दूध के प्रोटीन को शरीर फॉरेन पार्टिकल मानकर लड़ने के लिए तैयार हो जाता है. इससे एनाफिलेक्सिस जैसी स्थिति आ जाती है. इसमें शरीर पर चकत्ते पड़ते हैं, गले, होंठों पर सूजन आ सकती है और सांस लेने में समस्या होने लगती है. अगर तुरंत इलाज न मिले तो जान भी जा सकती है.

क्या दूध का उत्पादन भी नहीं हो रहा

चीन भले ही दूध न पचा सके, लेकिन दूध का उत्पादन वहां जमकर हो रहा है. यूनाइटेड नेशन्स फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन के अनुसार पूरी दुनिया में साल 2021 में 929.9 मिलियन टन दूध का उत्पादन हुआ था. इसमें भारत ने सबसे ज्यादा योगदान दिया. इसके बाद अमेरिका और फिर चीन का नंबर था. पहले दो नंबर भारत और अमेरिका में आगे-पीछे सरकते रहते हैं, जबकि चीन कई सालों से नंबर तीन पर है. वहां अगर 35 मिलियन टन से ज्यादा दूध का उत्पादन हो तो इसका ज्यादा हिस्सा निर्यात में चला जाता है.

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