मीडियाकर्मियों की लड़ाई ने श्रम कानूनों से अब बैकफुट पर

मीडियाकर्मियों के अधिकार कैसे हुए निष्प्रभावी? आगे क्या?

नई दिल्ली चार मई । श्रम सुधार के नाम पर केंद्र सरकार ने अखबार मालिकों के साथ मिलकर श्रमजीवी पत्रकारों और अखबार कर्मचारियों के वैधानिक अधिकार नष्ट कर दिये हैं। पहले से ही मजीठिया वेज बोर्ड की नौ वर्ष से चली आ रही लड़ाई में कठिन आर्थिक हालातों के बावजूद पूरी शक्ति से लड़ रहे श्रमजीवी पत्रकारों और अखबार कर्मचारियों की पीठ में सरकार ने जो छुरा घोंपा है, उसकी पीड़ा से मुक्ति को फिर से एक और कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ेगी।

नए कानूनों में जहां श्रमजीवी पत्रकार की हालत एक दिहाड़ी मजदूर से भी खराब हो गई है, तो वहीं अन्य अखबार कर्मचारियों को भी आम मजदूरों की श्रेणी में ला खड़ा किया गया है। वो भी तब जबकि श्रमजीवी पत्रकार अधिनियम, 1955 के लागू होने के बाद पहली बार हजारों  श्रमजीवी पत्रकार और गैर पत्रकार अखबार कर्मचारी अपने संशोधित वेतनमान और एरियर के लिए अखबार मालिकों के जुल्‍मोसितम सहते हुए पिछले नौ वर्षों से कानूनी लड़ाई लड़ने को एकजुट हुए थे।

इस एकता को सरकार झेल नहीं सकी और अखबार मालिकों के घड़ियाली आंसूओं और चापलूसी के सामने ढह गई। ऐसे में एक सुनियोजित षडयंत्र में श्रम सुधारों के नाम पर श्रमजीवी पत्रकारों और अन्य अखबार कर्मचारियों को विशेष अधिकार, केंद्रीय कर्मचारियों के समान वेतनमान और अन्य विशेष रियायतें देने वाले अधिनियम  ही खत्म कर दिये गये। श्रमजीवी पत्रकार और अन्य समाचारपत्र कर्मचारी (सेवा की शर्तें) और प्रकीर्ण उपबंध अधिनियम, 1955 तथा श्रमजीवी पत्रकार (मजदूरी की दरों का निर्धारण) अधिनियम, 1958 विधेयकों की रचना  श्रमजीवी पत्रकार और अखबार कर्मचारियों को अन्य श्रमिकों से अलग दर्जा, वेतन और विशेष कानूनी अधिकार देने को की गई थी, ताकि लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की नींव ना हिलने पाए और पत्रकारिता कर्म को पूंजीपतियों की रखैल मात्र बनकर ना रहना पड़े।

हालांकि प्रिंट मीडिया में कार्पोरेट कल्चर आने के बाद से खासकर श्रमजीवी पत्रकार काफी कठिन समय से गुजर रहे हैं और किसी भी पार्टी या विचारधारा की सरकार ने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया था। ऐसे में जब वर्तमान सरकार से  श्रमजीवी पत्रकार अधिनियमों में संशोधन करके इन्हें और मजबूत करने की उम्मीद की जा रही थी तो इस सरकार ने इस पर मेहनत करने के बजाय पत्रकारिता के हाथ ही बांध दिए हैं।

खासकर अनुबंध अधिनियम में श्रमजीवी पत्रकारों का भविष्य असुरक्षित हो गया था। इस पर रोक लगाने की मांग लंबे अर्से से थी। अब हालत यह है कि अखबार मालिक नए श्रम नियमों से श्रमजीवी पत्रकार को कभी भी सड़क पर ला सकते हैं।अंदाजा लग सकता है कि एक श्रमजीवी पत्रकार और समाचारपत्र स्थापना के अन्य कर्मचारी अचानक नौकरी चले जाने पर एक आम मजदूर की तुलना में रोजगार ही प्राप्त नहीं कर सकेगा, क्योंकि आम मजदूर को तो कहीं भी मजदूरी करके परिवार चलाने के साधन मौजूद हैं, मगर श्रमजीवी पत्रकार और अखबारों में काम करने वाले अन्य कर्मचारियों के परिवारों को तो भूखों मरने के अलावा कोई चारा ही नहीं बचेगा।

अगर ऐसा नहीं है तो उपरोक्त अधिनियमों को समाप्त करने वाली सरकार और उसके अधिकारी ही बताएं कि श्रमजीवी पत्रकार और अन्य अखबार कर्मचारी के लिए नौकरी जाने के बाद परिवार चलाने को क्या-क्या विकल्प होंगे।

उधर, मौजूदा परिस्थितियों में जबकि प्रिंट मीडिया को चुनौती देने के लिए इलेक्ट्रानिक मीडिया और वेब मीडिया भी आ चुका है, तो ऐसे में उपरोक्त अधिनियमों को और सशक्त बनाने की जरूरत  थी।

श्रमजीवी पत्रकार और गैर-पत्रकार अखबार कर्मचारियों के संगठन लंबे अर्से से इन अधिनियमों में इलेक्ट्रानिक मीडिया और वेब मीडिया में काम करने वाले श्रमजीवी पत्रकारों और गैरपत्रकार कर्मचारियों को भी शामिल करने की मांग करते आ रहे थे। इन्हें नए श्रम कानूनों में जगह तो मिली, मगर विशेषाधिकार समाप्त करने के कारण इसके कोई मायने ही नहीं बचे हैं। वहीं इन अधिनियमों के उल्लंघन पर सख्त प्रावधान की भी जरूरत थी, जो किए भी गए हैं, मगर नेकनीयती से नहीं। वहीं श्रमजीवी पत्रकारों की ठेके पर नियुक्ति रोकना भी जरूरी समझा जा रहा था, मगर ऐसा करके सरकार अखबार मालिकों को नाराज नहीं करना चाहती, भले ही लाखों अखबार कर्मचारी और उनके परिवार सरकार से नाराज हो जाएं। ऐसे में अधिनियमों को सशक्त बनाने के बजाय समाप्त करने का निर्णय केंद्र सरकार की नीयत पर सवाल है।

यह बात पूरी तरह स्पष्ट है कि अखबारों में कार्यरत श्रमजीवी पत्रकार और अन्य कमर्चारी आम मजदूरों से अलग परिस्थितियों में काम करते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने 07 फरवरी, 2014 को अखबार मालिकों की याचिकाओं पर सुनाए गए अपने फैसले (इससे पूर्व के फैसलों सहित) में भी इस बात का स्पष्ट उल्लेख किया है कि अखबार कर्मचारियों को आम श्रमिकों से अलग परिस्थितियों, खास विशेषज्ञता और उच्च दर्जें के प्रशिक्षण के साथ काम करना पड़ता है। ऐसे में उन्हें वेजबोर्ड की सुरक्षा के साथ ही इस बात का भी ख्याल रखना जरूरी है कि समाज की दिशा और दशा तय करने वाले पत्रकारिता के व्यवसाय से जुड़े श्रमजीवी पत्रकारों और अन्य अखबार कर्मचारियों की जीवन शैली कम वेतनमान से प्रभावित ना होने पाए।

नए श्रम कानूनों में सभी विशेष अधिकार समेटे गए

सरकार के नए श्रम कानूनों में श्रमजीवी पत्रकारों और अन्य अखबार कर्मचारियों के लिए ऐसा कोई भी विशेष प्रावधान नहीं शामिल किया है, जो उन्हें उपरोक्त दो अधिनियमों में दिया गया था। इसमें खासकर हर दस वर्ष की अवधि के बाद वेज बोर्ड का गठन, छंटनी की स्थिति में विशेष प्रावधान, काम के घंटे, छुट्टियों की व्यवस्था, पहले से घोषित वेतनमान ना दिए जाने पर बिना किसी समयसीमा के रिकवरी की व्यवस्था और संशोधित वेमनमान में एरियर लंबित होने पर नौकरी से ना हटाए जाने की व्यवस्था शामिल हैं। नए श्रम कानूनों में श्रमजीवी पत्रकार और समाचारपत्र स्थापना की परिभाषा तो शामिल है, मगर बाकी सभी विशेष अधिकार छीन लिए गए हैं।

पूर्व के वेजबोर्डों में बकाए की रिकवरी का प्रावधान नहीं

वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट, 1955 निरस्त किए जाने के साथ ही अब इसकी रिकवरी की धारा 17 भी निष्प्रभावी हो जाएगी। ऐसे में नए श्रम कानूनों पर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर होते ही सुप्रीम कोर्ट के 19 जून, 2017 के फैसले में मजीठिया वेज बोर्ड में संशोधित वेतनमान के एरियर की रिकवरी का वाद (नए मामलों में) दायर करने को कोई प्रावधान ही नहीं बचेगा, क्योंकि नए श्रम कानूनों में पुराने मामलों में रिकवरी को आवेदन करने की व्यवस्था ही नहीं है।  सरकार से पहले ही पारित श्रम संहिता 2019 के प्रावधानों में ही रिकवरी की व्यवस्था की गई है। इसमें सिर्फ न्यूनतम वेतनमान के मामलों में दो वर्ष के भीतर रिकवरी को आवेदन करने का प्रावधान है।

ऐसे में जो अखबार कर्मचारी यह सोच कर मजीठिया वेज बोर्ड में रिकवरी नहीं डाल रहे थे कि पहले से लड़ रहे साथियों का फैसला आने पर उन्हें भी घर बैठे लाभ मिल जाएगा, वो अब कहीं के भी नहीं रहे हैं। इनके लिए अब रिकवरी का केस डालने का अवसर तब तक को ही बचा है, जब तक कि नए श्रम कानूनों पर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर नहीं हो जाते। यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि जिन साथियों ने रिकवरी के केस डीएलसी के पास डाल दिए हैं या जिनके विवाद लेबर कोर्ट में लंबित हैं, उन्हें नए श्रम कानूनों में कोई नुकसान नहीं होने वाला है। उनके ये लंबित विवाद नए कानूनों में गठित होने वाले नए इडंस्ट्रियल ट्रिब्यूनल में स्वत: ही शिफ्ट हो जाएंगे।

वेज बोर्ड नहीं, अब न्यूनतम मजदूरी पर पलेंगे अखबार कर्मचारी

नए श्रम कानूनों में श्रमजीवी पत्रकारों और अन्य अखबार कर्मचारियों को अब तक मिले वेज बोर्ड के अधिकार को ही समाप्त कर दिया गया है। वो भी ऐसे समय में जबकि मजीठिया वेज बोर्ड के लिए हजारों अखबार कर्मचारी अपनी नौकरी गंवा कर श्रम न्यायालयों में लड़ाई लड़ रहे हैं। हालांकि यह भी सत्य है कि अखबार मालिकों ने कभी भी अपनी मर्जी से कोई भी वेज बोर्ड अक्षरश: लागू नहीं किया है और हर बार इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देकर मुंह की खाई है।

अखबार मालिक शुरू से ही खासकर वेज बोर्ड को लेकर श्रमजीवी पत्रकार अधिनियमों को निरस्त करवाने की कोशिशों में जुटे रहे हैं, मगर किसी भी सरकार ने उनके इस मंसूबे का समर्थन नहीं किया था। भाजपा सरकार ने उनकी इस मंशा को पूरी करते हुए यह कलंक अपने माथे सजा लिया है और अब उसे इसका खामियाजा भुगतने को तैयार रहना होगा। नए कानूनों में मोदी सरकार ने श्रमजीवी पत्रकारों को न्यूनतम मजदूरी तय करने को एक कमेटी का गठन करने का लॉलीपाप भी दिया है, जो हाथी से उतारकर गधे की सवारी करवाने के समान है। ऐसा इसलिए क्योंकि श्रमजीवी पत्रकारों और अखबार कर्मचारियों के लिए पहले लीविंग वेजेज में वेज बोर्ड का गठन होता था, जो केंद्रीय कर्मचारियों के समान था। अब मिनिमम वेजेज के सिद्धांत पर दिहाड़ी मजदूरों की तर्ज पर न्यूनतम वेतन तय होगा। वह भी सिर्फ श्रमजीवी पत्रकारों के लिए। अन्य अखबार कर्मचारियों के लिए ऐसा प्रावधान कहीं नजर नहीं आ रहा है।

देश के स्वततंत्र होते ही शुरू हुआ था चिंतन, अब सजा दी चिता

खासकर श्रमजीवी पत्रकारों के काम के जोखिम और विशेषज्ञता को देखते हुए उन्हें पूंजीपतियों का बंधुआ बनने से रोकने और लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ की निष्पक्षता और स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने को लेकर देश के आजाद होते ही चिंतन शुरू हो गया था। पहले अखबारों का प्रकाशन और संचालन व्यक्तिगत तौर पर समाज चिंतक, देश की स्वतंत्रता के आंदोलन में शामिल सेनानी और प्रबुद्ध पत्रकार करते थे। आजादी के बाद जैसे ही पूंजीपतियों या उद्योगपतियों ने अखबारों को व्यवसाय के तौर पर संचालित करना शुरू किया तभी से पत्रकारों के वेतनमान, काम के घंटों और बाकी श्रमिकों से अलग विशेषाधिकार देने की मांग उठनी शुरू हो गई।

इसे देखते हुए पहली बार वर्ष 1947 में गठित एक जांच समिति ने सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी, फिर 27 मार्च 1948 को ब्रिटिश इंडिया के केंद्रीय प्रांत और बेरार (Central Provinces and Berar) प्रशासन ने समाचारपत्र उद्योग के कामकाज की जांच को गठित जांच समिति ने सुझाव दिए और 14 जुलाई 1954 को भारत सरकार द्वारा गठित प्रेस कमीशन ने अपनी विस्तृत रिपोर्ट दी थी। इसके अलावा एक अप्रैल 1948 को जिनेवा प्रेस एसोसिएशन और जिनेवा यूनियन आफ न्‍यूजपेपर पब्लिसर्श ने 01 अप्रैल 1948 को एक संयुक्त समझौता किया था। इस तरह व्यापक जांच और रिपोर्टों के आधार पर तत्कालीन भारत सरकार ने श्रमजीवी पत्रकार व अन्य समाचारपत्र कर्मचारी (सेवा की शर्तें) और प्रकीर्ण उपबंध अधिनियम, 1955 तथा श्रमजीवी पत्रकार (मजदूरी की दरों का निर्धारण) अधिनियम, 1958 को लागू किया था। इतना ही नहीं, भारत के संविधान के अनुच्छेद 43 (राज्य के नीति निदेशक तत्व) में भी उपरोक्त दोनों अधिनियम संवैधानिक वैधता रखते हैं। ऐसे में इन विधेयकों को इस तरह चोरी-छिपे लागू करवाना असंवैधानिक है और इसे हर हालत में सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दिए जाने की जरूरत है। इसके लिए हमारी यूनियन के अलावा अन्य यूनियनें भी प्रयासों में जुट गई हैं।

-रविंद्र अग्रवाल
अध्यक्ष, न्यूजपेपर इम्लाइज यूनियन ऑफ इंडिया

Bhadas4media में 30 सितंबर 2020
संपर्क: 9816103265 ईमेल:  neuindia2019@gmail.com

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