पुण्य स्मृति: जांबाज खान बहादुर खान का बलिदान भी भूल चुके लोग

खान बहादुर खान को भूले लोग
31 मई 1857 को रुहेलखंड मंडल को अंग्रेज़ों से करा लिया मुक्त

बरेली। 15 August स्वतंत्रा दिवस पर स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को याद किया जाएगा। उसी कड़ी में खान बहादुर खान को भी याद किया जाता है। 1857 की क्रांति का बिगुल बजने के साथ ही पूरे देश में आज़ादी की जो अलख जगी उससे रुहेलखंड मंडल भी अछूता नहीं रहा यहाँ के नवाब और क्रांतिकारी हाफिज रहमत खान के पोते खान बहादुर खान भी इस जंग में कूद पड़े। अंग्रेजों के खिलाफ जंग के लिए खान बहादुर खान ने अपने मुंशी शोभाराम की मदद से सेना तैयार की और अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया।

खान बहादुर खान आखिरी रोहिला सरदार थे वह अंग्रेजी कोर्ट में बतौर जज कार्यरत थे उन्हें अंग्रेज़ों का विश्वास हासिल था और इसी विश्वास का फायदा उठाकर उन्होंने अपनी पैदल सेना तैयार कर ली थी। खान बहादुर ने अपने कई सैनिकों को दूसरे राज्यों में अंग्रेज़ों से लड़ाई के लिए भेजा, 31 मई 1857 को नाना साहब पेशवा की योजना के अनुसार उन्होंने रुहेलखंड मंडल को अंग्रेज़ों से मुक्त करा लिया। सभी अंग्रेज़ उनके डर से नैनीताल भाग गए। इसके बाद लगातार खान बहादुर खान का अंग्रेज़ों से संघर्ष चलता रहा इस बीच लखनऊ के अंग्रेज़ों के अधीन चले जाने से नाना साहब भी बरेली आ गए। इसके बाद नकटिया पुल पर 6 मई 1858 में आखिरी बार अंग्रेज़ों और खान बहादुर खान के बीच संघर्ष हुआ जिसमे भारतीयों को हार का मुँह देखना पड़ा।इसके बाद खान बहादुर खान नेपाल चले गए लेकिन राणा जंग बहादुर ने धोखे से उन्हें अंग्रेज़ों के हवाले कर दिया। खान बहादुर खान पर मुक़दमा चलाया गया और उन्हें यातनाएं दी गयी। 22 फरवरी को कमिश्नर रॉबर्ट ने दोषी मानते हुए खान बहादुर खान को फांसी की सजा सुना दी और 24 मार्च 1860 को उन्हें पुरानी बरेली कोतवाली पर सरे आम फांसी दे दी गयी।

खान बहादुर खान को पुरानी कोतवाली में फांसी देने के बाद अंग्रेजों को भय था कि लोग वहां पर इबादत न करने लगे ।इस कारण खान बहादुर खान को जिला जेल में बेड़ियों के साथ ही दफन कर दिया गया। जेल में बंद खान बहादुर खान की कब्र को काफी लम्बी जद्दोजेहाद के बाद जेल से बाहर निकाला जा सका। अब जिला जेल यहाँ से शिफ्ट हो जाने के कारण शहीद की मजार की देखभाल करने वाला कोई नहीं बचा हैं। शहीद की यह मज़ार सिर्फ एक यादगार है पर उन्हें याद करने यहाँ कोई नहीं आता। हद तो यह है कि इसके रखरखाव के लिए भी यहाँ कोई नहीं है।बस इनके शहीद दिवस पर लोग यहाँ सिर्फ खानापूर्ति करने आते हैं।इस मज़ार के अलावा इस वीर क्रांतिकारी की कोई निशानी इस शहर में नहीं जो लोगो को उसकी याद दिलाये और कभी किसी ने इस मुद्दे पर कोई आवाज़ भी नहीं उठाई।

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