उत्तराखंड में यूसीसी,मत-विमत: समानतायुक्त न्यायपूर्ण प्रगतिशील समाज को लोकतांत्रिक क्रांतिकारी यत्न

मत-विमत: उत्तराखंड में UCC लागू होने पर हंगामा क्यों
February 8, 2024,

जो विरोध कर रहे हैं उन्हें विधानसभा में पारित बिल के आधार पर आलोचना करनी चाहिए

लेखक: अवधेश कुमार

उत्तराखंड सरकार कि यूनिवर्सल सिविल कोड (UCC) या समान नागरिक संहिता विधेयक पारित कराना ऐतिहासिक घटना है। अभी तक सिर्फ गोवा में समान नागरिक संहिता लागू है, लेकिन उसकी पृष्ठभूमि और प्रकृति अलग है। वहीं, संविधान को मंजूरी मिलने के बाद से राष्ट्रीय स्तर पर जिस समान नागरिक संहिता की मांग की जा रही थी, उस दिशा में कदम बढ़ाने वाला उत्तराखंड पहला राज्य बना है।

रूपरेखा सामने आई

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और सत्तारूढ़ BJP समान नागरिक संहिता की बात तो करते थे, लेकिन उसकी रूपरेखा सामने नहीं थी। पहली बार किसी राज्य की BJP सरकार ने समान नागरिक संहिता का प्रारूप सामने रखा है। इसके बाद अन्य BJP शासित राज्यों और केंद्र की ओर से राष्ट्रीय स्तर पर समान नागरिक संहिता लागू करने की संभावना मजबूत हुई है।

धर्म से जोड़ना गलत

विरोधियों की बात मानें तो यह BJP की अपना अजेंडा लागू करने की कोशिश है, जिसका मकसद एक धर्म और उसकी मान्यताओं के अनुरूप समाज और व्यवस्था का निर्माण है। BJP के अजेंडा की बात समझ में आती है, लेकिन इस कदम को किसी धर्म, पंथ या मजहब से जोड़ना किसी दृष्टिकोण से तथ्यपरक नहीं कहा जा सकता। कुल 192 पृष्ठ और 392 धाराओं वाली इस संहिता में कहीं नहीं लिखा है कि फलां धर्म या पंथ के लोग ऐसा नहीं कर सकते या वैसा कर सकते हैं।

धार्मिक पाबंदी नहीं

किसी भी धार्मिक, पंथिक, सांस्कृतिक मान्यताओं, परंपराओं, रीति-रिवाजों पर इसका असर नहीं होगा। इसमें ऐसा कोई प्रावधान नहीं जिससे खान-पान, पूजा-पाठ, इबादत, वेशभूषा, रहन- सहन पर कोई प्रभाव पड़े। इसी तरह कोई किस तरीके से शादी करे, शादी-विवाह-निकाह कौन कराए, इसके भी प्रावधान नहीं हैं।

प्रगतिशील कदम

जाहिर है, समान नागरिक संहिता को लेकर अभी तक किया गया प्रचार झूठा साबित हुआ है कि इससे हिंदुओं के अलावा दूसरे धर्म के लोग अपनी परंपरा, रीति-रिवाज के अनुसार शादी-विवाह या अन्य कर्मकांड नहीं कर पाएंगे। वास्तव में यह प्रगतिशील व्यवस्था और समाज निर्माण की दिशा में एक बड़ा कदम है।

फिजूल का विरोध

कोई प्रगतिशील व्यवस्था किसी की धार्मिक-सांस्कृतिक मान्यताओं, परंपराओं और रीति-रिवाजों को प्रतिबंधित करने या उन पर अंकुश लगाने जैसा विधान स्वीकार नहीं कर सकती। ऐसी कट्टरवादी संकीर्ण सोच के लिए सभ्य समाज में स्थान नहीं हो सकता। इसलिए मुस्लिम संगठनों, मजहबी नेताओं या राजनीतिक दलों का विरोध केवल विरोध के लिए है। सारे विरोध और आरोप तब के हैं जब सामने ड्राफ्ट नहीं था। अब तो बात केवल प्रावधानों पर होनी चाहिए।

संहिता के चार खंड

समान नागरिक संहिता जीव के केवल पांच क्षेत्रों- विवाह, तलाक, गुजारा भत्ता, उत्तराधिकार और गोद लेना या दत्तकग्रहण – के लिए है। उत्तराखंड समान नागरिक संहिता के चार खंड हैं- विवाह और विवाह विच्छेद या तलाक, उत्तराधिकार, सहवासी संबंध या लिव-इन रिलेशनशिप और विविध। इसमें विवाह के लिए लड़कियों की न्यूनतम आयु 18 व लड़के की न्यूनतम 21 वर्ष रखी गई है तो बहु विवाह और बाल विवाह का निषेध है। सगे रिश्तेदारों से संबंध निषेध तो है पर यह उन पर लागू नहीं होगा जिनकी प्रथा या रूढ़ियां ऐसे संबंधों में विवाह की अनुमति देती हैं।

समानता वाली व्यवस्था

इसके ज्यादातर प्रावधान सभी धर्मों की महिलाओं और पुरुषों के बीच समानता पर आधारित न्यायपूर्ण प्रगतिशील समाज के निर्माण का ही संदेश देते हैं। उदाहरण के लिए, पुरुष और महिला दोनों को तलाक के समान अधिकार होंगे तो पति या पत्नी में से किसी के जीवित रहने पर दूसरे विवाह की अनुमति नहीं होगी। किसी को एक से अधिक विवाह करना हो या पुरुषों के समान महिलाओं को तलाक के अधिकार देने से समस्या हो तो उसे जरूर समान नागरिक संहिता से दिक्कत होगी।

बहु विवाह पर रोक

तलाक की याचिका लंबित रहने पर भरण-पोषण और बच्चों की अभिरक्षा से संबंधित प्रावधानों पर उन्हें ही आपत्ति हो सकती है जो सामाजिक न्याय नहीं चाहते। धार्मिक मान्यताएं चाहे जो भी हों, किसी व्यक्ति को पुनर्विवाह या तलाक के मामले में स्वच्छंदता नहीं दी जा सकती। समान नागरिक संहिता की प्रगतिशील प्रकृति का एक प्रमाण संपत्ति में पुरुषों के समान महिलाओं को समान अधिकार दिया जाना है। इससे किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि किसी भी परिवार के जीवित बच्चे, पुत्र या पुत्री संपत्ति में बराबर के अधिकारी होंगे।

संघ परिवार में असहजता

हालांकि लिव-इन रिलेशनशिप से संबंधित प्रावधानों से BJP एवं संघ परिवार के अंदर थोड़ी असहजता भी महसूस की जा रही है। लिव-इन रिलेशनशिप का पंजीकरण न कराने पर दंड, उस अवधि में पैदा होने वाले बच्चों को वैध संतान की मान्यता और पुरुष द्वारा लिव-इन की महिला को छोड़ने पर उस महिला को भरण-पोषण पाने के अधिकार जैसे प्रावधानों से आशंका पैदा हुई है कि ऐसे संबंध विस्तारित हो सकते हैं।

व्यापक विचार-विमर्श

कुल मिलाकर समान नागरिक संहिता स्वतंत्रता के बाद समाज के सभी हिस्सों – पुरुष, स्त्री, बच्चों – के लिए सामाजिक न्याय सुनिश्चित करती है। यह प्रगतिशील लोकतांत्रिक और परस्पर सम्मान पर आधारित समाज के निर्माण के सपने को पूरा करने का विधान है। धामी सरकार द्वारा गठित न्यायमूर्ति रंजना देसाई समिति ने इस पर विस्तार से कार्य किया है। अन्य देशों की संहिताओं, संविधान सभा में हुई बहस आदि का अध्ययन किया गया, लोगों से सुझाव मांगे गए और जगह-जगह बैठकें की गईं। समिति को ढाई लाख से अधिक सुझाव‌ प्राप्त हुए।

झूठ और दुष्प्रचार

संविधान निर्माण के समय से ही समान नागरिक संहिता पर बहस चलती रही है। इसके विरोध का कारण झूठ, दुष्प्रचार या मजहब के नाम पर गैर-मजहबी पुरुषवादी व्यवस्था को बचाए रखने की मानसिकता रही है। इसे संघ और BJP का अजेंडा बताने वाले भूल रहे हैं कि कम्युनिस्ट पार्टियों व समाजवादियों के घोषित अजेंडा में समान नागरिक संहिता लागू करना शामिल रहा है। डॉ. राम मनोहर लोहिया इसके पैरोकार थे। विडंबना देखिए कि आज कम्युनिस्टों और समाजवादियों की आवाज भी इसके विरुद्ध है।

इसे देखकर लगता है कि विरोध के पीछे ईमानदारी और नैतिकता नहीं है। संविधान के भाग 4 के अनुच्छेद 44 में संपूर्ण भारत के नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता देने की अपेक्षा की गई है और अब उस अपेक्षा को पूरा करने की शुरुआत हो गई है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और विचारक हैं)

उत्तराखंड के बहाने कॉमन सिविल कोड के अच्छे-बुरे प्रावधानों पर चर्चा तो होगी

लेखक: प्रणव प्रियदर्शी

उत्तराखंड विधानसभा में समान नागरिक संहिता विधेयक पारित होने के बाद अब अगर बीजेपी और संघ परिवार अपना एक और पुराना वादा पूरा करने का दावा लेकर लोगों के बीच जाते हैं तो उसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं कहा जाएगा। सच्चे अर्थों में वादा पूरा हुआ माना जाए या नहीं, पर उसकी शुरुआत तो हो ही चुकी है। दूसरी बात यह कि विधेयक, बल्कि कहें, कानून की शक्ल में पहली बार देश के सामने वह कॉमन सिविल कोड साकार हो रहा है जिसे लेकर वाद-विवाद तो आजादी के बाद से ही हो रहा था, पर किसी को पता नहीं था कि यह क्या और कैसा होगा। अब कम से कम इसके अच्छे-बुरे प्रावधानों पर चर्चा हो सकती है और इसे बेहतर बनाने के सुझाव भी ज्यादा ठोस रूप में दिए जा सकते हैं।

बहस की पृष्ठभूमि

इसमें किए गए प्रावधानों पर जाने से पहले इसे लेकर देश में दशकों तक चली बहस की पृष्ठभूमि पर एक नजर डाल लेना बेहतर होगा ताकि इस कदम को सही संदर्भ में समझा जा सके। देश के संविधान में नीति-निर्देशक तत्वों के रूप में समान नागरिक संहिता का जिक्र है। यानी संविधान लागू होने से पहले ही इस बात पर सर्वसम्मति बन चुकी थी कि देश में सभी धर्मों, संप्रदायों और वर्गों के नागरिकों के लिए एक ही तरह के कानून होने चाहिए।

सभी दलों की मांग

धुर दक्षिणपंथी विचारधारा की नुमाइंदगी करने वाली जनसंघ और BJP ही नहीं वाम धारा की समाजवादी पार्टियां भी इस मांग को उठाने में शामिल रहीं। यानी राजनीति के अलग-अलग हिस्सों में अगर इसे लागू करने पर असहमति थी तो वह कब और कैसे के सवालों के इर्दगिर्द ही थी। ये दोनों सवाल अब खत्म हो गए क्योंकि चाहे जैसे भी हो BJP शासित एक राज्य सरकार ने इस दिशा में पहल की है।

एकरूपता की कसौटी

समान नागरिक संहिता को लागू करने की पहल क्या उन आग्रहों के अनुरूप है, जो करीब साढ़े सात दशकों से लंबित इसकी मांग के साथ जुड़े रहे हैं। यह लगातार कहा जाता रहा है और खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी हाल में इसकी वकालत करते हुए कह चुके हैं कि आखिर देश में कुछ लोगों पर एक कानून और दूसरे लोगों पर दूसरा कानून लागू होने की बात कैसे स्वीकार की जा सकती है? तो विवाह, तलाक, उत्तराधिकार और अडॉप्शन के मामलों में ही सही, पर क्या उत्तराखंड सरकार की ताजा पहल कानूनों में एकरूपता लाने की कसौटी पर खरी उतरती दिख रही है?

अपवादों से शुरुआत

इसका स्पष्ट उत्तर हां में नहीं मिलता। पहली वजह तो यही है कि इस कानून को लाते हुए ही साफ कर दिया गया है कि यह अनुसूचित जनजातियों पर लागू नहीं होगा। यानी जिस भूक्षेत्र (राज्य) में इस कथित एकरूपता वाले कानूनों को लागू करना है, उसमें भी कुछ समूहों को पहले ही अपवाद घोषित कर दिया गया है।

वोट पॉलिटिक्स?

चूंकि समान नागरिक संहिता लागू करने में अगर-मगर करने वाले दलों पर वोट बैंक पॉलिटिक्स करने या खास समूह का तुष्टीकरण करने का आरोप लगाया जाता रहा है इसलिए क्या उसी तर्क से यह आरोप नहीं बनता कि वनवासी और जनाजातीय समूहों के वोटों की चिंता करते हुए उन्हें इस कानून से छूट दे दी गई और इस तरह उसी विविधता की गुंजाइश बनाए रखी गई, जिसे दूर करने के घोषित इरादे से यह कानून लाया गया?

दूसरे राज्यों पर नजर

मगर बात सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है। उत्तराखंड में लाया गया यह कानून उस राज्य के सभी लोगों पर लागू होने की बात कही गई है चाहे वे राज्य में रहते हों या राज्य से बाहर। देखना होगा कि अन्य BJP सरकारें उत्तराखंड के इस कानून को कितनी तब्दीलियों के साथ स्वीकारती हैं।

गैर-BJP राज्य

जहां तक गैर-BJP शासित राज्यों की बात है तो वहां निकट भविष्य में यह लागू होता नहीं दिख रहा। यानी इस पहल की वजह से देश में इन कानूनों के अलग-अलग क्षेत्रीय स्वरूप दिखने लगेंगे। ऐसे में खतरा यह है कि कानूनों की विविधता दूर करने के उद्देश्य से की गई यह पहल एक विविधता की जगह दूसरी विविधता लाने का टूल बनकर न रह जाए।

लिव-इन रिश्ते

जहां तक उदार और प्रगतिशील नजरिया अपनाने की बात है तो कम से कम लिव-इन से जुड़े प्रावधानों को लेकर यह दावा गलत साबित होता है। समझना होगा कि लिव-इन का जन्म ही विवाह से जुड़ी औपचारिकताओं, नियमों, बंधनों और पारिवारिक व सामाजिक मान्यता हासिल करने की मजबूरी से बचने और जीवन को जहां तक हो सके सरल बनाए रखने की युवाओं की इच्छा से हुआ है।

दोहरे मोह की दिक्कत

लिव-इन रिश्तों को मान्यता देने या न देने की बहस पर गौर करें तो इसमें समाज की पारंपरिक और उदारवादी सोच प्रतिबिंबित होती है। उदारवादी सोच इसे मान्यता देने की वकालत करती है जबकि पारंपरिक सोच इसे नैतिक अवमूल्यन का प्रमाण बताते हुए इस पर रोक लगाने की मांग करती रही है। ऐसा लगता है कि उदारवादी कहलाने और परंपरावादी बने रहने के दोहरे मोह में पड़ी उत्तराखंड सरकार ने इस कानून के जरिए लिव-इन को प्रतिबंधित नहीं किया, लेकिन ऐसी बंदिशें लगा दीं कि यह लिव-इन रह ही न जाए।

चुगली का प्रावधान

नए कानून में न केवल लिव-इन रिश्ते में जाने से पहले रजिस्ट्रेशन को अनिवार्य कर दिया गया है बल्कि बगैर रजिस्ट्रेशन के लिव-इन में रहना दंडनीय अपराध बना दिया गया है। यही नहीं, रजिस्ट्रेशन के लिए आवेदन आने पर अभिभावकों को इसकी सूचना देना रजिस्ट्रार ऑफिस की जिम्मेदारी का हिस्सा हो गया है। जिस देश में अंतर्जातीय या अंतरधार्मिक विवाह के नाम पर परिवार अपने ही बच्चों की हत्या तक कर देता हो, वहां दो वयस्कों के साथ रहने तक पर इस तरह की पाबंदियां लगाना किस तरह से उदार नजरिये का सबूत माना जा सकता है?

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