राय:मंदिर में नमाज से कैसे बढेगा सद्भाव?

आखिर मंदिर में तुमको नमाज़ पढ़ना ही क्यों है?
मथुरा में मंदिर परिसर में नमाज़ पढ़ने वाले फैसल ने जो बातें कही है उसका समर्थन कर रहे लोग भी मानसिक बीमारी से जूझ रहे हैं. आप धार्मिक हो सकते हैं आपको आज़ादी है लेकिन अपने धर्म की चादर ओढ़ कर दूसरे धर्म के मानने वालों को ठेस पहुंचाने की आज़ादी न तो भारत के संविधान ने आपको दी है और न आपके इस्लामिक सिद्धांतों ने.
Mashahid Abbas@2778883202200640
मंदिर हो मस्जिद हो गुरुद्वारा हो या फिर गिरजाघर हो, सभी पवित्र स्थल हैं और सबकी अपनी-अपनी पवित्रता है. हर धर्म के लोगों को अपने पवित्र स्थल से एक खास लगाव होता है. यह लगाव प्रेम से कहीं अधिक होता है यह आस्था से जुड़ा हुआ होता है और जब किसी के आस्था पर चोंट पहुंचती है तो वह आगबबूला हो जाता है, क्रोधित हो जाता है. सब्र कर पाना मुश्किल होता है. इसीलिए हमेशा कहा जाता है कि कभी किसी के आस्था को चोंट नहीं पहुंचानी चाहिए. मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारा और चर्च ये सभी इबादतगाहें हैं पूजा स्थल हैं. कोई भी धर्म का मानने वाला कभी भी अपने पवित्र जगह को अपवित्र नहीं करना चाहता है. मथुरा में जो हुआ उसके प्रति लोगों की अलग अलग राय है. पहले जान लेते हैं कि मामला दरअसल था क्या.

मथुरा में नंद बाबा मंदिर है. जिसमें 29 अक्टूबर को फैसल खान समेत चार लोग मंदिर आए थे. आरोप है कि फैसल खान के साथ एक अन्य युवक ने मंदिर परिसर में ही नमाज़ पढ़ी थी. जिसका वीडियो भी सोशल मीडिया पर वायरल है. मंदिर प्रशासन ने पुलिस में शिकायत कर दी और फिर पुलिस ने इस मामले में धारा 153A (धर्म के आधार पर नफरत फैलाने), 295 (पवित्र स्थल या पवित्र चीज़ों को नुकसान पहुंचाने), 505 (व्यक्ति, वर्ग या समुदाय को भड़काने) के तहत एफआईआर दर्ज कर ली और फिर उत्तर प्रदेश पुलिस ने आरोपित को दिल्ली में गिरफ्तार कर लिया.


मथुरा में मंदिर में नमाज पढ़ते मुस्लिम युवक

आरोपित फैसल खान ने कहा कि उसने धोखे से नमाज़ नहीं पढ़ी थी सबके सामने नमाज़ पढ़ी थी वहां कई लोग मौजूद थे किसी ने भी उनको मना नहीं किया था. मैनें नमाज़ पढ़कर कोई अपराध नहीं किया है और न ही ये कोई साजिश का हिस्सा था. मैंने मंदिर प्रांगण के लोगों से पूछकर एंव सद्भावना के लिए नमाज़ पढ़ी थी.फैसल खान की बातें तो लुभावनी हो सकती है लेकिन फैसल खान ने जो काम किया है वह किस हद तक सही है इसपर चर्चा होनी चाहिए.

लोगों का कहना है कि फैसल सभी धर्मों में विश्वास रखता है वह मंदिर के दर्शन भी करता है और मंदिर की परिक्रमा भी करता है. ये तर्क देने वाले लोग फैसल का बचाव करने में लगे हुए हैं. लेकिन फैसल ने जो किया वह इस्लाम के सिद्धान्त के अनुसार ही कितना सही है इसका भी तर्क लोगों को देना चाहिए. नमाज़ पढ़ने के भी नियम और कानून बने हुए हैं. इस्लाम धर्म में कहा गया है कि नमाज़ उसी जगह पढ़ी जा सकती है जहां किसी को भी कोई एतराज़ न हो.

अगर ज़मीन किसी दूसरे की है या फिर ज़मीन की रखवाली करने वाला कोई और है तो उसकी इजाज़त लेना ज़रूरी है. नमाज़ पढ़ने की जगह के लिए भी कई शर्ते हैं जिनको पूरा करना ज़रूरी है. इस्लाम धर्म के मूल सिद्धान्तों को अगर पढ़ा जाए तो इस्लाम धर्म में धोखाधड़ी करने और भावनाओं को आहत करने की कोई जगह नहीं है. इसको पूरी तरह से इस्लाम ने गलत कहा है. लेकिन कट्टरपंथी विचारधारा के मुसलमानों ने इस सिद्धांत को जब चाहा है तब अपने हिसाब से बदल डाला है.

इस्लाम में ज़ोर ज़बरदस्ती की कोई जगह नहीं है लेकिन कट्टरपंथीयों ने इस्लाम धर्म के नियम व सिद्धान्तों की हमेशा धज्जियां ही उड़ाई हैं. मथुरा जैसे शहर में जहां हज़ारों मस्जिदे हैं वहां पर फैसल का मंदिर में नमाज़ पढ़ना सदभावना कैसे हो जाता है. फैसल क्या सद्भावना मस्जिद में दिखा सकते हैं. वह क्या मस्जिद में किसी को पूजा करा सकते हैं. फैसल को सद्भावना की अगर सूझी तो उसकी शुरूआत उन्होंने अपने घर से क्यों नहीं की.

वह मेज़बान बनकर भी तो सद्भावना दिखा सकते थे लेकिन इसकी शुरूआत मंदिर से करने पर सवाल तो खड़े ही होंगें. क्या मुसलमान अपने मस्जिदों में पूजा अर्चना या प्रार्थना को जगह देगा, अगर नहीं देगा तो वह मंदिर में नमाज़ पढ़ने वाले को दोषी क्यों नहीं बोल रहा है. क्यों वह चीख रहा है फैसल की गिरफ्तारी पर. क्यों संविधान की दुहाई दे रहा है. मुसलमान किसी गैर धर्म के लोगों को तो दूर अपने ही धर्म के लोगों में बंटाधार किए हुए है.

अधिकतर तो ऐसा ही होता है कि शिया गुट सुन्नी की मस्जिद में कदम नहीं रखता, सुन्नी गुट शियाओं की मस्जिद में कदम नहीं रखता है, देवबंदी बरेलवी के मस्जिद में नहीं जा सकते तो अहमदवी बरेलवी की मस्जिद नहीं जाते हैं हालांकि पढ़ते सभी नमाज़ हैं. जब आप खुद में इतना रस्साकसी करके बैठे हैं तो आप अपनी इबादतगाहों में नमाज़ क्यों नहीं पढ़ते. मंदिर, गुरूद्वारा और चर्च ये भी पवित्र जगहे हैं जैसे आपकी आस्था मस्जिद है वैसे अगले धर्म की ये आस्थाएं है.

अगर आप मस्जिद में पूजा अर्चना को सही नहीं मानते हैं तो आपको मंदिर में नमाज़ पढ़ने को सही करार नहीं देना चाहिए,इसका समर्थन करने के बजाए इसका विरोध करना चाहिए.हर धर्म की आस्था और उसके पवित्र स्थलों का सम्मान करना चाहिए.ऐसे तमाम मुसलमान भारत में हैं जो मंदिर जाते हैं दर्शन करते हैं चढ़ावा चढ़ाते हैं वह सद्भावना है वह भक्ति है.उसको कभी किसी ने भी गलत नहीं कहा है लेकिन आप अगर अपनी कट्टरता पर उतारू हैं तो प्रशासन को इस बात का तो पूरा हक है कि आपके विरूद्ध कानूनी कार्यवाई करे.

लेखक
Mashahid Abbas @277888320220064

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