जयंती: निरंतर विद्रोह से तंग अंग्रेजों ने भगवान बिरसा मुंडा को जेल में दिया था जहर

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चरित्र-निर्माण, समाज-सुधार तथा राष्ट्रवादी जन-चेतना के लिए समर्पित *मातृभूमि सेवा संस्था* (राष्ट्रीय स्तर पर पंजीकृत) आज देश के ज्ञात व अज्ञात राष्ट्रभक्तों को उनके अवतरण, स्वर्गारोहण व बलिदान दिवस पर कोटि कोटि नमन करती है। 🙏🙏🌹🌹🇮🇳🇮🇳

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क्रांतिवीर : *🏹बिरसा मुंडा🏹*
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*माँ और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है।*

🏹 मेरे राष्ट्रभक्त साथियों, देश की स्वतंत्रता एक सतत् प्रयास, समर्पण व सर्वस्व न्योछावर करने का परिणाम है। इस प्रयास व परिणाम के बीच असंख्य वीर सपूतों ने अपना सर्वस्व न्योछावर किया, तब जाके यह स्वतंत्रता प्राप्त हुई। कोई 40 वर्ष में बलिदान हुआ तो कोई मात्र 14 वर्ष में। राष्ट्रभक्त साथियों आज हम झारखंड की भूमि पर जन्मे बिरसा मुंडा जी की बात करेंगे, जिन्होंने *जल, ज़मीन, जंगल* को आधार बनाकर मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए लड़ते हुए मात्र 25 वर्ष की आयु में वीरगति प्राप्त की। बिरसा जी का जन्म मुंडा वन्य जनजाति के गरीब परिवार में पिता सुगना पुर्ती (मुंडा) व माता करमी पुर्ती (मुंडाईन) के सुपुत्र के रूप में 15 नवंबर 1875 को झारखण्ड के राँची के खूंटी जिले के उलीहातू गाँव में हुआ था। साल्गा गाँव में प्रारम्भिक पढाई के बाद उन्होंने चाईबासा के विद्यालय में पढ़ाई की। इनका मन हमेशा अपने समाज में ब्रिटिश शासकों द्वारा की गई बुरी दशा पर सोचता रहता था। उन्होंने मुंडा लोगों को अंग्रेजों से मुक्ति पाने के लिये अपना नेतृत्व प्रदान किया। सन् 1894 में मानसून के छोटा नागपुर पठार में असफल होने के कारण भयंकर अकाल और महामारी फैली हुई थी। बिरसा ने पूरे मनोयोग से अपने लोगों की सेवा की। 01 अक्टूबर, 1894 को नौजवान नेता के रूप में सभी मुंडाओं को एकत्र कर इन्होंने अंग्रेजो से लगान/कर माफी के लिये आन्दोलन किया।
🏹 सन् 1895 में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में 02 साल के कारावास की सजा दी गई, लेकिन बिरसा और उसके शिष्यों ने क्षेत्र की अकाल पीड़ित जनता की सहायता करने की ठान रखी थी। उन्हें उस इलाके के लोग *”धरती बाबा”* के नाम से पुकारा और पूजा करते थे। उनके प्रभाव की वृद्धि के बाद पूरे इलाके के मुंडाओं में संगठित होने की चेतना जागी। सन् 1897 से 1900 के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच युद्ध होते रहे और बिरसा मुंडा और उसके चाहने वाले लोगों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था। अगस्त 1897 में बिरसा और उसके चार 400 सिपाहियों ने तीर कमानों से लैस होकर खूँटी थाने पर धावा बोला। सन् 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं की भिड़ंत अंग्रेज सेनाओं से हुई जिसमें पहले तो अंग्रेजी सेना हार गयी लेकिन बाद में इसके बदले उस इलाके के बहुत से वनवासी नेताओं की गिरफ़्तारियाँ हुईं। जनवरी 1900 डोम्बरी पहाड़ पर एक और संघर्ष हुआ था जिसमें बहुत सारे औरतें व बच्चे मारे गये थे। उस जगह बिरसा अपनी जनसभा को सम्बोधित कर रहे थे। बाद में बिरसा के कुछ शिष्यों की गिरफ़्तारियाँ भी हुईं। अन्त में स्वयं बिरसा भी 03 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर में गिरफ़्तार कर लिये गये। बिरसा ने अपनी अन्तिम साँसें 09 जून 1900 को अंग्रेजों के दिये जहर से राँची कारागार में लीं। आज भी बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ और पश्चिम बंगाल के वनवासी इलाकों में बिरसा मुण्डा को भगवान की तरह पूजा जाता है।

✍️ राकेश कुमार
🇮🇳 *मातृभूमि सेवा संस्था 9891960477* 🇮🇳

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