मत: हिंदुत्व विरुद्ध सैकुलरिज्म पर कांग्रेस से सीखकर ही बनी चैंपियन

Opinion : ‘हिंदुत्व की राजनीति बनाम सेक्युलरिज्म’ की पिच पर कांग्रेस से ही सीखकर कैसे आगे निकल गई BJP

बीजेपी वही कर रही है जो इन सालों में कांग्रेस और सेक्युलर पार्टियां करती आई हैं। कांग्रेस के पास बीजेपी से सीखने के लिए कुछ नहीं है। वह तो गेम की मास्टर रही है और अब अल्पसंख्यक वोटरों में भरी गई विक्टिमहुड और अलगाव की भावना की कीमत चुका रही है।
कांग्रेस से ही सीखकर आगे बढ़ गई बीजेपी

हाइलाइट्स
बकौल आर. जगन्नाथन कांग्रेस के पास बीजेपी से सीखने के लिए कुछ भी नहीं
कांग्रेस और बाकी सेक्युलर दलों से ही सीखकर बीजेपी आगे निकल चुकी है
बीजेपी वही कर रही है जो कांग्रेस और सेक्युलर पार्टियां अबतक करती आई हैं

हिलाल अहमद ने अपने आर्टिकल ‘बीजेपी कांग्रेस को क्या सिखा सकती है’ (टाइम्स ऑफ इंडिया, 29 अगस्त) के शुरुआती आधे हिस्से में ठीक ही कहा है कि बीजेपी इंडिया के बारे में नए आइडिया गढ़ने के लिए अपने राजनीतिक अजेंडे को आगे बढ़ा रही है। दूसरी तरफ, कांग्रेस और विपक्षी पार्टियां संविधान की रक्षा की घिसी-पिटी बहस में उलझी हुई हैं। लेकिन मैं आर्टिकल के आखिरी आधे हिस्से को चुनौती देता हूं जहां वह ये इशारा करते दिखते हैं कि बीजेपी दिन-ब-दिन संविधान को महज एक रूल-बुक तक सीमित करने की कोशिश कर रही है और उसकी भावना और सिद्धांतों से नहीं जुड़ना चाहती।

हिलाल अहमद कहते हैं, ‘बीजेपी न्यू इंडिया की विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए ‘हिंदुत्व संविधानवाद’ को ‘लीगल-पॉलिटिकल मकैनिज्म’ के तौर पर इस्तेमाल कर रही है।’ यह न सिर्फ कुटिल टिप्पणी है बल्कि मुख्य मुद्दे से भटकाव की कोशिश भी है। इस हद तक कुटिलता जो यह बताने की कोशिश कर रही है कि संविधान चाहे जो भी कहे, कार्यपालिका और विधायिका उसकी भावना से खिलवाड़ का रास्ता ढूंढ सकती है। लेकिन एक ऐसा संविधान जिसमें 75 सालों के दरम्यान 100 से ज्यादा बार संशोधन हुए हों उसे बमुश्किल ही सिद्धांतों पर आधारित दस्तावेज कह सकते हैं जो अपने मूल आदर्शों के अनुरूप हो।

संविधान की प्रस्तावना में वर्णित उच्च आदर्श कभी भी वास्तविकता की धरातल पर नहीं उतर पाए। 2014 में बीजेपी के पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आने से पहले भी उन आदर्शों को कभी मूर्त रूप नहीं दिया जा सका।
‘समाजवादी’ या ‘धर्मनिरपेक्ष’ जैसे शब्दों को प्रस्तावना में मनमाने ढंग से ठूसा गया। यह तब किया गया जब इंदिरा गांधी ने इमर्जेंसी लगाकर विपक्ष के ज्यादातर नेताओं को जेल भेज दिया था। इस तरह इन सिद्दांतों को अल्पकालिक राजनीतिक वैधता हासिल करने की कवायद के रूप में देखा जा सकता है।
भारत 1991 में समाजवाद को छोड़कर मुक्त बाजार वाली अर्थव्यवस्था की तरफ बढ़ गया। और रही बात धर्मनिरपेक्षता की तो यह हमेशा से एक बेकार की चीज ही रही जिसका भारत में एक अलग ही संकीर्ण मतलब है।
जब 1 लाख मंदिरों पर सरकार का नियंत्रण हो तब भारत में यह किस तरह की धर्मनिरपेक्षता है?

हां, यह बात सच है कि संविधान के साथ हमेशा खेल किया जा सकता है और ये खेल सभी सरकारों ने किया है चाहे उसे कथित सेक्युलर पार्टी चला रही हो या फिर उतना सेक्युलर नहीं कहे जाने वाली पार्टी चला रही हो।

अहमद कहते हैं, ‘हिंदुत्व संविधानवाद का विचार अल्पसंख्यकों के ईर्द-गिर्द घूमता है न कि बहुसंख्यकों के। ये हिंदू के पीड़ित होने की काल्पनिक धारणा गढ़ती है। नागरिकता (संशोधन) कानून 2019 इसका एक अच्छा उदाहरण है। यह कानून मुस्लिम-बहुल पड़ोसी देशों में गैर-मुस्लिमों खासकर हिंदुओं की लाचारी और असुरक्षा पर जोर देता है। एक तरह से यह हिंदुत्व की राजनीति को फायदा पहुंचाने के लिए भारतीय संविधान की एक अलग ही व्याख्या करता है।’ लेकिन यहां भी अहमद इन 3 पॉइंट्स को लेकर गलत हैं।

पहली बात ये कि अगर कोई संविधान अल्पसंख्यकों के विशेष धार्मिक अधिकारों (आर्टिकल 25 से 30) को प्रमुखता देता है न कि समान अधिकारों को तो ये परोक्ष तौर पर ये कहता है कि आपको समान अधिकारों की मांग के लिए अल्पसंख्यक होना पड़ेगा। लिहाजा हिंदू विक्टिमहुड यानी हिंदू के पीड़ित होने की बात काल्पनिक नहीं है।
दूसरी बात ये कि हो सकता है कि सीएए कि सच में हिंदुत्व पॉलिटिक्स को ही आगे बढ़ा रहा हो लेकिन क्या ये झूठ है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों पर अत्याचार हो रहे हैं? यहां तक कि हमारे ही अपने जम्मू-कश्मीर में अल्पसंख्यक आबादी को नस्लीय सफाए के लिए टारगेट किया गया लेकिन ‘सेक्युलर’ इस सच को स्वीकार करने से मना करते हैं। अहमद इन कड़वी सच्चाइयों से क्यों मुंह फेर लेते हैं और उसकी जगह हिंदू विक्टिमहुड को महज काल्पनिक कहानी के तौर पर दिखाने की कोशिश कर रहे हैं?
और धर्मनिरपेक्षता के लिए इसकी क्या जरूरत पड़ रही कि भारत के पड़ोसी देशों में अल्पसंखयकों पर हुए अत्याचार को लेकर चुप्पी साध लिया जाए और भारत के भीतर गैर-हिंदू अल्पसंख्यकों के साथ कैसा बर्ताव हो रहा है, लगातार उसकी डफली बजाई जाए? और वह भी तब जब असल या काल्पनिक ईशनिंदा के आरोपियों का सिर कलम करने की मांग को लेकर भीड़ सड़कों पर उतर रही है।

सच तो ये है कि सेक्युलरिज्म कोई उच्च सिद्धांत नहीं है जैसा उसके समर्थक दावा करते हैं। भारत में इसका अल्पसंख्यकवाद और हिंदूफोबिया को बढ़ावा देने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। अगर समुदायों के बीच सौहार्द बिगड़ने के लिए हिंदुत्व पॉलिटिक्स को कुछ हद तक दोषी मान भी लें तो क्या सेक्युलरिस्ट्स इसके लिए सबसे ज्यादा दोषी नहीं हैं?

अहमद लिखते हैं कि कांग्रेस बीजेपी से सीख सकती है। लेकिन बीजेपी तो खुद कांग्रेस से सीख रही है। इसने विक्टिमहुड पॉलिटिक्स कांग्रेस से सीखा है। कांग्रेस ने औसत मुस्लिम की चिंताओं का इस्तेमाल उन्हें एक ठोस वोट बैंक में तब्दील करने के लिए किया है। किसी भी चुनाव में हिंदू वोट जहां बंटा हुआ होता था लेकिन ये ठोस वोट बैंक सेक्युलर पार्टियों के पक्ष में जाता था।

बीजेपी को अब पता है कि खेल एकतरफा नहीं होता, दोनों खेल सकते हैं। वह भी विक्टिमहुड पॉलिटिक्स खेल सकती है और चुनाव जीतने के लिए हिंदू समूहों को एकजुट कर सकती है। साथ में वह ये भी आजमाने की कोशिश कर रही है कि क्या अशराफ के खिलाफ पसमांदा का इस्तेमाल करके अल्पसंख्यक वोटों को भी बांटा जा सकता है। ठीक उसी तरह जैसे सेक्युलर पार्टियों ने कभी सवर्ण, ओबीसी और दलितों को आपस में लड़ाकर बांटा था।
बीजेपी वही कर रही है जो इन सालों में कांग्रेस और सेक्युलर पार्टियां करती आई हैं। कांग्रेस के पास बीजेपी से सीखने के लिए कुछ नहीं है। वह तो गेम की मास्टर रही है और अब अल्पसंख्यक वोटरों में भरी गई विक्टिमहुड और अलगाव की भावना की कीमत चुका रही है।
क्षेत्रीय दलों ने हिंदुओं को बांटने के लिए जाति का इस्तेमाल किया और अब बीजेपी राजनीतिक तौर पर जातियों को एकजुट करके उसे बदलने की कोशिश कर रही है। वह जातियों को एकजुट कर इंद्रधनुषी समीकरण तैयार कर रही है जिसे हिंदुत्व पॉलिटिक्स कहा जा रहा।

राजनीति येन केन प्रकारेण जीत हासिल करने का नाम हो सकता है। सेक्युलरिज्म भी कुछ और नहीं बल्कि एक व्यर्थ का शब्द है जिसका इस्तेमाल राजनीतिक फायदा लेने के लिए किया जाता है।

राजनेताओं को समुदायों की संवेदनशीलता से छेड़छाड़ नहीं करना चाहिए। क्योंकि अगर ऐसा हुआ तब न तो उच्च सिद्धांत जीत पाएंगे और न ही सेक्युलरिज्म।

(लेखक आर. जगन्नाथन स्वराज्य मैगजीन के एडिटोरियल डायरेक्टर हैं)

Hindutva Politics Vs Secularism Myth And Reality What Bjp Learnt From Congress Writes R Jagannathan

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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