राजनीति खुल कर करें शाहरुख, बहुरुपिएपन की क्या जरूरत

शाहरुख खान को बहरूपिया बनने की जरूरत नहीं, खुल कर करें राजनीति!
शाहरुख असल में राजनीति ही कर रहे हैं. उनके सांकेतिक बयान सबूत हैं. तो अब पठान के फ्रंट पर आम जनता भी राजनीति की तरह ही डील करते दिख रही है. बहुत गुस्सा है. सोशल मीडिया देखिए. ये साधारण ट्रोल्स भर नहीं हैं. शाहरुख ने जिस ट्रिक के सहारे विवाद खड़ाकर फायदा उठाने की कोशिश की है, असल में उसी चीज से तगड़ा बैकफायर होने को है।
आठ साल में करीब आधा दर्जन कोशिशों के बावजूद शाहरुख खान अपना जलवा जलाल नहीं दिखा पाए हैं जिसकी वजह से उन्हें बॉलीवुड का बादशाह कहा गया. यानी एक उल्लेखनीय काम नहीं दिखा पाए हैं पिछले कुछ सालों में. नाना प्रकार के जतन उन्होंने किए अपनी फिल्मों को हिट कराने के लिए. उठाकर देख लीजिए. अब पठान के लिए राजनीतिक हथकंडा अपना रहे हैं. वैसे बेशुमार पैसे पर प्रायोजित पीआर, श्लीलता-अश्लीलता की फर्जी बहस में यूट्यूब पर उनके गाने बेशरम रंग को वह सबकुछ मिल चुका है जिसकी उन्हें अपेक्षा होगी. दुर्भाग्य बस यही है कि पठान को यूट्यूब की बजाए सिनेमाघरों में रिलीज किया जाएगा. दुर्भाग्य यह भी है कि शाहरुख राजनीतिक पक्ष-विपक्ष खड़ाकर ग्राउंड पर मौजूद विपक्षी साउंड भुनाने की कोशिश में हैं. यह शायद उनकी आख़िरी कोशिश होगी. क्योंकि इसके बाद अब कोई हथकंडा उनके पास बचता नहीं दिख रहा.

शाहरुख शायद भूल गए हैं कि अभी भी इस देश में तमाम चीजें ऐसी हैं- जिसके लिए कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक ही धुन बजती है. भारत, भारतीयता, सेना और क्रिकेट ऐसा ही है. शाहरुख भूल गए कि कोई ममता बनर्जी या राहुल गांधी जय शाह की वजह से भारतीय क्रिकेट को गाली दे देंगे तो इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं कि पाकिस्तान के साथ भारत के मैच में संबंधित पार्टियों के वोटर पाकिस्तान जिंदाबाद करने लगेंगे. शाहरुख ने पैसे की ताकत पर बुढापे में राजनीति के सहारे कामयाबी खरीदने का जो फुलप्रूफ प्लान बनाया है, उसकी ऐतिहासिक हवा निकल सकती है. क्योंकि उनमें अब दम तो बचा नहीं. कला तो खैर कुछ थी नहीं.

हां, शाहरुख खान की तीन बड़ी खासियत हैं जिससे इनकार नहीं किया जा सकता-

1) क…क…क… किरन (डर का संवाद) बोलना उनकी खूबी है. मामूली हकलाहट में बोले गए संवाद उनकी स्टाइल बन चुके हैं. हालांकि यह उनका स्वाभाविक गुण था.

2) सलाम के अंदाज में वे जब पंजे खोलकर हाथ उठाते हैं, कलेजा छलनी कर देते हैं. यह भी बतौर सुपरस्टार उनकी दूसरी सबसे बड़ी खूबी ही है असल में.

3) दोनों हाथ खोलकर हवा में जब हाथ उठाते हैं, उफ्फ. शर्तिया गौरी खानों का कलेजा चाक हो जाता है. ऐसा नहीं है कि हमारा नहीं होता. उनकी यह अदा हमें भी पसंद है. जो सच में उन्हीं पर फबती है.

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शाहरुख खान.

मगर सवाल है कि सिर्फ इन तीन खूबियों के सहारे कोई कितने दिन तक सुपरस्टार बने रह सकता है. रोमांस के बादशाह तीनों खासियत इतनी बार दिखा चुके हैं कि अब सिर्फ इनके लिए कोई सिनेमाघर क्यों जाएगा पठान देखने. वह भी महंगाई के दौर में हजारों रुपये फूंककर. इतने पैसे में तो किचन के लिए कोई नया गैजेट खरीदकर मां पत्नी या बहनों को दिया जा सकता है. घर की महिलाओं को कितना आराम मिलेगा. सिर्फ इन तीन खूबियों के लिए बार-बार पैसे क्यों फूंकना. जबकि शाहरुख भाई विज्ञापनों में रोज दिखते ही हैं. जुबां केसरी में भी उन्होंने कलेजा छलनी करने वाली स्टाइल में ही दुआ सलाम वाला जादुई करतब दिखाया है जो रोज टीवी पर दिख जाता है.

57 साल के शाहरुख को समझना चाहिए कि वे रजनीकांत-अमिताभ बच्चन नहीं हैं

शाहरुख भाई 57 साल के हो चुके हैं. ऐसा नहीं है कि यह उम्र रोमांस की नहीं है. मगर कोई बूढ़ा कितना रोमांटिक दिखेगा इस उम्र में. वैसे भी अभिनय के मामले में वे ना तो रजनीकांत हैं, ना कमल हासन और ना ही अमिताभ बच्चन. रजनीकांत भी अब हवा में सिगरेट उछालकर मुंह में लेने और फिर रिवाल्वर से उसे जलाने का करतब अब नहीं दिखाते. शाहरुख के लिए एक्टिंग में अब विकल्प ही क्या हैं? बावजूद कि उनकी जिद है कि अभी कामयाबी को खींच लाएंगे. जबरदस्ती. खरीद लेंगे, किसी तरह. पर पिछले 8 साल में उनका कोई किरदार कोई काम कोई फिल्म- मुझ जैसे उनके कट्टर प्रशंसकों को भी याद नहीं.

बावजूद कि जीरो में उनका प्रायोगिक अवतार ठीक ठाक लगा था. लेकिन ईमानदारी से कहूं तो जब हैरी मेट सेजल, फैन, दिलवाले और डियर जिंदगी जैसे शाहकार तो झेलना मुश्किल हो गया था. वही घिसा पिटा अंदाज. दीवाना के जमाने से उनको देख रहे हैं. ठीक है कि तकनीकी ने चीजों को बहुत बदल दिया. जिनके पास बेशुमार पैसा है वो तकनीकी का बढ़िया इस्तेमाल भी कर रहे हैं. पर उसकी भी एक सीमा है. राधे: योर मोस्ट वॉन्टेड भाई में सलमान का बुढ़ापा मैराथन प्रयासों के बावजूद छिप नहीं पाया. उनकी जो भद्द पिटी थी लोगों सरेआम देखा. आज की तारीख में अच्छे से अच्छा असली माल और खराब से खराब नकली माल, उपलब्ध हैं. लोग खुद अच्छी चीजों को खोज लेते हैं. भले ही उनका प्रचार प्रसार ना किया गया हो.

कांतारा को 16 या 20 करोड़ के बजट में बनाया गया था. लोगों ने खोजकर देखा. उन्हें पसंद भी आई. उन दर्शकों को बहुत पसंद आई जिन्होंने ना तो गांव देखा था और ना ही नजदीक से गांव की संस्कृति. उन्हें फिल्मों में दिखाया भी कहां गया पहले ईमानदारी से. गांव दिखाए भी गए तो वो स्टीरियोटाइप थे और किसी दूसरे ग्रह का लगते थे. कांतारा की जान असल में मौलिक विजुअल ही थे. कुछ लोगों को शुरुआत में स्टोरी स्टेब्लिश करने वाले हिस्से की वजह से पसंद नहीं भी आई. असल में इसलिए कि वे तमाम लोग जन्म से उन्हीं दृश्यों को देखते आ रहे हैं. उनके लिए उसमें बहुत कुछ नया नहीं था. लेकिन कांतारा आज की तमाम पीढ़ी के लिए एक हैरान करने वाला अनुभव साबित हुआ. मध्य के बाद तो फिल्म संस्कृति को लेकर जिस भारतीय स्थापना के साथ आगे बढ़ती है उसका कोई जवाब नहीं. भारत छोड़ दीजिए, ग्लोबल सिनेमा में भी ऐसे भाव प्रधान दृश्य देखने को नहीं मिलते. ऋषभ शेट्टी शायद ही कभी कांतारा जैसी फिल्म बना पाए.

स्टारडम का नशा बहुत खराब, अच्छे अच्छे सितारे नहीं निकल पाते, कई डिप्रेस हो जाते हैं

खैर, शाहरुख के दर्द को समझिए. यह समझिए कि एक सुपरस्टार के लिए नाकामी के मायने क्या होते हैं? बिल्कुल आसान नहीं होता स्टारडम के नशे से बाहर निकलना. गोविंदा और सनी देओल जैसे सितारे आज तक नहीं निकल पाए हैं. हीरो बने रहने की जिद में हालत यह हो गई कि गोविंदा को आज की तारीख में निर्माता नहीं मिल रहे. सनी देओल को भी मिलने बंद हो गए थे. पर स्टारडम का नशा, घर की पूंजी लगाते रहे. अब वही बता सकते हैं कि उन्होंने कितना नुकसान झेला. ऐसी ही जिद शाहरुख को भी है. सलमान को भी है ही.

शाहरुख को अगर लग रहा है कि वे राजनीति के जरिए गोलबंदी करके दर्शक जुटा लेंगे इस बार तो वे गलत हैं. ममता या राहुल भले उनकी फिल्म प्रमोट करें बावजूद शाहरुख कामयाब नहीं होंगे. कोलकाता फिल्म फेस्टिवल में उन्होंने जो कुछ कहा उसे अब राजनीतिक बयान की तरह ही लिया जा रहा है. एक फिल्म हिट कराने के लिए उन्हें आज चारों तरफ निगेटिविटी नजर आ रही हैं. वे कुशल राजनेता की तरह विक्टिम कार्ड खेल रहे कि तमाम उत्पीड़नों के बावजूद उन जैसे पठान जिगर वाले महामानव जिंदा ही हैं ना. वे कह रहे- देख लो तुम लोग मेरा कुछ नहीं उखाड़ पाए. असल में पॉलिटिकल माइलेज पाने के लिए शाहरुख भाजपा पर निशाना साध रहे हैं. ताकि भाजपा रिएक्ट करे और बिल्कुल एक राजनीतिक पार्टी की तरह भाजपा विरोधी मतों पर ही असल में उनकी नजर है.

पर वे भूल रहे कि यह चुनाव नहीं एक फिल्म है. और एक ऐसी फिल्म है जो इंटरनेट पर रिलीज नहीं हो रही. इंटरनेट पर आई होती तो शाहरुख को इसका जरूर कुछ ना कुछ फायदा मिलता. सिनेमाघरों में तो मिलने से रहा. शाहरुख ने जो पक्ष बनाया भूल गए कि उनके अभिमानी और जानबूझकर उकसावे की वजह से पठान अब भारत पाकिस्तान मैच की तरह हो चुका है. भले ही टीएमसी और कांग्रेस के कुछ नेता महज वोटों के ध्रुवीकरण के लिए पठान का खुल्लम खुल्ला समर्थन कर रहे हों, और उन्हें एक ख़ास वर्ग में इसका राजनीतिक फायदा मिलना भी तय है. लेकिन शाहरुख के लिहाज से यह सिर्फ घाटे का सौदा है. भारत-पाकिस्तान जैसे मोर्चे में बताने की जरूरत नहीं कि अलग-अलग विचार, भाषा भाषी लोग कहां रहते हैं.

शाहरुख को कारोबारी फायदे के लिए उधार के विचार, चेहरे पर मुर्दाशंख (नाटकों में मेकअप के लिए इस्तेमाल होता है) पोतकर बहरुपिया बनने की जरूरत नहीं है. उन्हें फुलटाइम खुल के राजनीति करनी चाहिए. मोदी को रोकने के लिए उनकी राजनीति के लिए यह बिल्कुल अच्छा समय है. बस उन्हें परेशानी यह होगी कि ममता-राहुल में से किसी एक को चुनना पड़ेगा. अखिलेश-राहुल में से भी किसी एक को चुनना पड़ेगा. शाहरुख के लिए यह भी एक बड़ा दुर्भाग्य है कि उन्हें एलर्जी किससे है, विरोध किसका करते हैं, क्यों करते हैं? यह सबको पता है- लेकिन कोई पुख्ता नहीं बता पाता कि असल में शाहरुख किसके साथ जाएंगे. इस मामले में मौसम विज्ञानी हैं शाहरुख.

चूंकि वे बहरुपिया के रूप में राजनीति कर रहे हैं तो अब पठान के फ्रंट पर आम जनता उसे राजनीति की तरह ही डील करते दिख रही है. बहुत गुस्सा है. सोशल मीडिया देखिए. ये साधारण ट्रोल्स भर नहीं हैं. इंटरनेट के दौर पर अब वे भी सारे तिकड़म और ट्रिक्स समझने लगे हैं. अब वे चीजों को किसी ओपिनियन मेकर की नज़रों से नहीं समझते. उनमें सामूहिकता आई है. पठान के बेशरम रंग के जरिए शाहरुख ने राजनीतिक लिहाज से जिस ट्रिक के सहारे विवाद खड़ाकर फायदा उठाने की कोशिश की है वह तगड़ा बैकफायर करने वाला है.

सोशल मीडिया को लेकर अभी अभी उन्हें जो ज्ञान मिला है, जो उपदेश दे रहे हैं, जिंदा कौमों का नारा उछाल रहे हैं- अब सब कुछ राजनीतिक नजरिए से ही देखा जा रहा है. यह देश बौरहा है. इसे न्यायपूर्ण पक्ष चुनने में कभी तकलीफ नहीं होती. बाकी यह शाहरुख को भी मालूम है कि विरोध अश्लीलता पर नहीं किया जा रहा है और विरोध करने वाले भी जानते हैं वे पठान में आखिर किस चीज का विरोध कर रहे हैं. इस मसले पर मैं नवाजुद्दीन सिद्दीकी के साथ हूं. मैं सिनेमा के साथ हूं. शाहरुख चुक चुके हैं. बेटे पर मेहनत करें. अपने लिए अब जिद बेकार है. बिचारे निर्माता 100 करोड़ी एक्टर्स के चक्कर में बेमौत मारे जा रहे हैं. नुकसान सिनेमा का हो रहा है. बाकी राजनीति करना है तो खुलकर आइए. बहरूपियागिरी ठीक बात नहीं शाहरुख.

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लेखक
अनुज शुक्ला @anuj4media

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