जातिगणना पर भाजपा की क्या है रणनीति?

कास्ट सेंसस पर कन्फ्यूज नहीं है BJP

अवधेश कुमार

यह सच है कि विपक्ष के जातीय जनगणना को 2024 चुनाव के लिए मुद्दा बनाए जाने का असर भाजपा और NDA पर भी पड़ा है। महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री अजित पवार का जातीय जनगणना के पक्ष में दिखता बयान बताता है कि भाजपा के सहयोगी दल मनोवैज्ञानिक दबाव में आ रहे हैं। उत्तर प्रदेश में अपना दल भी समाजवादी पार्टी के दबाव में आकर इसकी बात करने लगी है। ऐसे में यह प्रश्न उठता है कि आखिर भाजपा की जातीय जनगणना पर नीति क्या है? आम विश्लेषकों की टिप्पणी यही है कि भाजपा की नीति इस विषय पर अस्पष्ट है। क्या यही सच है? पहले देखें कि इस धारणा का आधार क्या है?

जाति जनगणना के मुद्दे पर केंद्र में सत्तारूढ़ दल को कन्फ्यूज बताया जा रहा है, लेकिन यह सोच गलत है

दोहरे रवैये का संदेह

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की ओर से कराई गई जातीय जनगणना का जहां राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा ने विरोध किया, वहीं प्रदेश पार्टी इकाई ने समर्थन।
बिहार जाति आधारित गणना रिपोर्ट का एक अंश आने के बाद भाजपा ने राजनीतिक रूप से इस पर प्रश्न उठाए, लेकिन नीतिगत विरोध का संदेश वक्तव्य से नहीं आया।
नरेंद्र मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में तत्कालीन गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने संसद के अंदर वक्तव्य दिया था कि अगली जनगणना में जाति गणना भी की जाएगी। उस समय भाजपा ने उस पर चुप्पी साध ली थी।
इनसे निष्कर्ष निकाला जा रहा है कि भाजपा समझ नहीं पा रही, उसे क्या करना है। वह मनोवैज्ञानिक दबाव में है। किंतु इसके दूसरे पहलुओं को देखें तो भाजपा की नीति को लेकर कोई संदेह नहीं रहता। मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में जाति जनगणना संबंधी याचिका पर दिए गए हलफनामे में दो बातें बिलकुल साफ कर दी हैं।

पहली, सरकार जातीय जनगणना नहीं कराएगी।
दूसरी, जातीय जनगणना व्यावहारिक नहीं है।
इस तरह मोदी सरकार की नीति बिल्कुल स्पष्ट है। ध्यान रखने की बात है कि भाजपा को इस समय अनेक राज्यों में पिछड़ी जातियों के सबसे ज्यादा वोट मिलते हैं। ऐसे में वह वातावरण के विरुद्ध इस प्रकार का शपथपत्र देकर सामान्य तौर पर राजनीतिक जोखिम मोल नहीं लेती। वास्तव में इस स्पष्ट रुख के पीछे ठोस कारण हैं।

यूपीए सरकार ने 2011 की जनगणना के समानांतर सामाजिक आर्थिक गणना के नाम से जाति जनगणना कराई थी। हालांकि सरकार के अंदर मतभेद के कारण इसे जनगणना आयुक्त की जगह ग्रामीण मंत्रालय से कराया गया जो जारी ही नहीं हुआ।
मोदी सरकार ने जातिगत गणना की रिपोर्ट जारी करने का निर्णय किया और इसकी घोषणा भी कर दी गई। मगर इसकी अध्ययन समिति ने रिपोर्ट पर बारीकी से गौर करने के बाद हाथ खड़े कर दिए।
अध्ययन का निष्कर्ष था कि भारत में जाति व्यवस्था इतनी जटिल है कि राष्ट्रीय स्तर पर इसकी गणना करके बिल्कुल स्पष्ट रिपोर्ट देना संभव ही नहीं। इसे जारी करने के बाद देश में सामाजिक अशांति और तनाव बढ़ने का खतरा होगा।
भारत की जाति व्यवस्था का गहराई से अध्ययन करने वालों को पता है कि यह विश्व की अनोखी सामाजिक व्यवस्था थी। बाद के कालखंड में जाति भेद, ऊंच-नीच, छुआछूत आदि ने इसको विरूपित किया। गांधी जी ने भारत में अस्पृश्यता, ऊंच-नीच के उन्मूलन का अभियान चलाया, जाति व्यवस्था समाप्त करने का नहीं। अंग्रेजों को लगा कि जब तक भारत की जाति व्यवस्था में फूट नहीं डालेंगे यहां स्थिर रूप से शासन करना संभव नहीं होगा। इसलिए अंग्रेजों ने समाज में फूट डालो और राज करो की नीति में जाति जनगणना कराना शुरू किया।

इसका ध्यान रखते हुए नेहरू मंत्रिमंडल ने तय किया कि आगे से भारत में जाति जनगणना नहीं होगी। उस निर्णय में डॉक्टर बाबा साहब आंबेडकर भी शामिल थे। अनुसूचित जाति-जनजाति के लिए आरक्षण की व्यवस्था संविधान में थी, इसलिए उनकी गणना का निर्णय किया गया। इस बीच बिहार में हुई जाति आधारित गणना की रिपोर्ट पर कई तरह के सवाल उठ रहे हैं।

रिपोर्ट में यादवों की 14 प्रतिशत से ऊपर की आबादी देखकर लोग हैरत में हैं।
सामान्य जातियों की संख्या इतनी कम दिख रही है जिसकी कल्पना ही नहीं थी।
बिहार के क्षेत्रों से यह शिकायत आ रही है कि उनके यहां कोई आया ही नहीं।
राजनीतिक पाला बदलते रहने के कारण नीतीश कुमार की विश्वसनीयता इतनी नीचे है कि प्रदेश के अधिकारियों और कर्मचारियों ने जाति आधारित गणना के आदेश को गंभीरता से नहीं लिया।
बाद में दबाव बढ़ने पर आनन-फानन कोशिश हुई। ऐसा लगता है कि सत्ता संचालन का मुख्य केंद्र लालू यादव परिवार होने का प्रभाव पूरी रिपोर्ट पर पड़ा।
सवाल यह भी है कि नीतीश सरकार रिपोर्ट का दूसरा भाग सार्वजनिक करने में विलंब क्यों कर रही है। दूसरे भाग में ही जातियों की सामाजिक-आर्थिक- शैक्षणिक स्थिति का विवरण होगा। इसमें विलंब से पूरी गणना रिपोर्ट पर प्रश्न खड़ा हो गया है। ऐसे में कुछ निष्कर्ष स्पष्ट हैं।

INDIA के साथी दल जातिगत जनगणना को चुनावी रूप से जितना भी क्रांतिकारी घोषित करें, यह शेर के मुंह में हाथ डालने से भी खतरनाक है।
बिहार में सरकार भले मान्य कर दे किंतु जनता का बहुत बड़ा समूह इसे संदिग्ध मान रहा है। इससे भाजपा का वर्तमान स्टैंड सही साबित होता है।
बिहार भाजपा ने रणनीतिक रूप से जाति जनगणना को समर्थन दिया, क्योंकि ऐसा न करने से नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव उसके विरुद्ध जातीय गोलबंदी की राजनीति कर सकते थे।

कम होता जातिभेद

राजनीति से परे हमें समझना होगा कि अब समाज में पहले की तरह जाति भेद और विभाजन नहीं है। देश का बहुत बड़ा वर्ग परंपरागत जातीय सोच और व्यवहार से बाहर आ रहा है। उसे ताकत देकर सामाजिक व्यवस्था को ऐसा नया स्वरूप देने के लिए काम करना चाहिए, जिसमें आपसी सहयोग और एकता बढ़े ताकि भारत हर दृष्टि से समृद्ध राष्ट्र बने।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और विचारक हैं)

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