रामचरित मानस पढ़ा ही नहीं तो मौर्य को जवाब क्या देंगे?

शबरी के जूठे बेर
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वैसे तो भारतीय लोगों को रामायण के बारे में इतना पता होता है कि शबरी कह देना भर काफी है पूरी कहानी सुना देने के लिए | मगर विकट समस्या ये है कि हम तो पहले ही जानते हैं के मुगालते में पड़े आम हिन्दुओं ने ना तो रामायण या रामचरितमानस जैसी किताबें घर में खरीद कर लाने की जहमत उठाई ना पन्ने पलटा कर देखने की |

पढ़े लिखे और अनपढ़ के बीच का फर्क मोटे तौर पर यहीं ख़त्म हो जाता है | अ से अनार और आ से आम पढ़ना सीखने के बाद चूंकि शौक से कोई किताब पढ़ने का आँखों, उँगलियों और दिमाग को कष्ट दिया ही नहीं है इसलिए जिसे पढ़ना नहीं आता था और जिसे आता था उन दोनों में ज्यादा अंतर नहीं है | क्योंकि पढ़ा तो दोनों ने ही नहीं है ना ?

मोटे तौर पर ये कहानी कुछ यूँ है कि शबरी कोई वनवासी, शायद भील भक्त थी | बरसों से गुरु के पास सीखा और तप करती हुई अकेले वन में रहती थी | प्रभु कभी आयेंगे उसे भी दर्शन देंगे इस आशा में वृद्ध हो चली | ऐसे में एक रोज उसके आश्रम में श्री राम पधारे | अब जंगल में रहने वाली वृद्धा के पास स्वागत के लिए क्या उपलब्ध होता ?

तो वो वहीँ जो कंद-मूल उसके पास थे उन्ही से स्वागत करने बैठी | थाली में बेर परोसे और खुद चख चख कर श्री राम को देती जाती | अब लक्ष्मण भौचक्के हुए ! ये क्या ! जूठे बेर दिए जा रही है, और रामचंद्र भी हैं, कि खाए जा रहे हैं | तो उन्होंने प्रभु को टोका | श्री राम ने कहा, जाने दो लक्ष्मण, वो अपने हिसाब से जांच जांच कर देती है | कहीं कोई खट्टा बेर ना जाए, मैं उसका प्रेम ग्रहण कर रहा हूँ !

अब वापस सोशल मीडिया पर आइये | जब कभी भगत सिंह की शहादत का दिन, तो कभी कोई दूसरी उलजुलूल खबर उठा कर शेयर करते हैं, पोस्ट करते हैं, तब इस कहानी को फिर से याद करने की जरूरत होती है | पढ़ी होती तो शायद याद भी रहती | खुद जांचा कि कहीं कुछ “खट्टा” तो नहीं परोस दिया है ? नेट से सोशल मीडिया पर आई चीज़ को गूगल पर सर्च कर लेना कोई मुश्किल नहीं होगा |

अगर रामायण पढ़ डाली होती तो दो फायदे होते | एक तो सीधा फायदा ये कि शबरी की तरह खुद जांच कर देना सीख जाते | दूसरा ये कि ये किताबें काव्य में लिखी हैं, इनमें अलंकार होता है | एक ही वाक्य के कई मतलब बनाना भी देख देख कर सीख पाते | तो अगर झूठ भी बोलते तो वो ऐसे घुमा पाते कि विरोधियों के लिए काटना मुश्किल होता | या आप एक ख़ास किताब पर मिलने वाला जवाब दे पाते कि, “आप सही मतलब नहीं समझ पाए” |

बाकी रामायण जैसे ग्रन्थ ना उतने महंगे होते हैं कि आप जुटा ना पायें, ना रोज़ दो चार पन्ने पढ़कर उन्हें ख़त्म करना नामुमकिन है | हाँ, आलस्य-प्रमाद के मारे नहीं हो पा रहा तो श्री श्री रामधीर सिंह कह ही गए हैं, जाने दीजिये, आपसे ना हो पायेगा !

मार्केटिंग के थ्री सी

जैसे मार्केटिंग में “फोर पी” पढ़ाया जाता है, जिसमें मुख्यतः “प्रोडक्ट”, “प्लेसमेंट”, “प्राइसिंग” और “प्रमोशन” की बात होती है, वैसे ही मार्केटिंग में एक “थ्री सी” भी होता है। ये नैतिकता के मापदंडों से कुछ कोस दूर का मामला है इसलिए किताबों में ये बहुत ज्यादा नहीं मिलेगा, लेकिन जैसे ही हम इनकी बात करेंगे, आप इन तकनीकों को कम से कम “फोर पी” से तो ज्यादा आसानी से पहचान जायेंगे। ऐसा काफी हद तक इसलिए होगा क्योंकि आम जीवन में आपने “फोर पी” से कहीं ज्यादा इस्तेमाल इसी “थ्री सी” का होते हुए देखा है, और रोज दिखने वाली चीज़ों को पहचान लेना तो आसान होता ही है।

तो इन “थ्री सी” में से सबसे पहला “सी” है “कन्विंस” यानी विश्वास दिलाना। आप अपने उत्पाद, सेवा या विचार को जब बेचने निकलते हैं तो अपने ग्राहक-उपभोक्ता को विश्वास दिलाने की कोशिश करते हैं कि बाजार में उपलब्ध विकल्पों के बीच यही सबसे अच्छा है। ग्राहक या उपभोक्ता अपनी जिस समस्या को सुलझाने के लिए विकल्प ढूंढ रहा है, उनमें से इसे चुनना सबसे अच्छा फैसला होगा। समस्या ये है कि हर बार ग्राहक आपके कहने पर ही आपकी बात मान ले, ऐसा तो होता नहीं। ऐसी स्थिति में दूसरा “सी” यानी “कर्रप्ट” काम आता है। इस अनैतिक प्रक्रिया से आप अच्छी तरह वाकिफ हैं, इसमें उत्कोच यानी रिश्वत-घूस देकर ग्राहक को पटाया जाता है। ऐसा हो सकता है कि ये भी काम न आये, और उस स्थिति में तीसरा “सी” यानी “कन्फ्यूज” का प्रयोग होता है। इसमें आप ग्राहक को भ्रमित करके निकल लेते हैं ताकि वो आप जो बेचने निकले हैं, वो न भी ले तो कम से कम किसी और का कुछ न खरीदे। इससे आपको मुनाफा नहीं होता, लेकिन आप अपने प्रतियोगियों का मुनाफा भी सफलतापूर्वक रोक देते हैं।
टीवी-रेडियो पर आने वाले प्रचारों में आप सबसे पहले “सी” यानी कन्विंस का प्रयोग होता हुआ देखते हैं। वो आपको बताते हैं कि यही डियोड्रेंट या वाशिंग पाउडर या कुछ और सबसे अच्छा क्यों है। इसके बाद दूसरे वाले “सी” का मामला आता है जो बाजार में आपको आसानी से दिखेगा। एक ही जैसे दो वाशिंग पाउडर हैं, मगर एक के साथ कोई साबुन की टिकिया मुफ्त है। किसी में सौ ग्राम अधिक मिल रहा है। ये एक किस्म का उत्कोच या रिश्वत ही है। तीसरे सी यानि कन्फ्यूज को भी आपने बाजारों में देखा है। अरे ऑनलाइन तो नकली माल भी भेज देते हैं, खाली डब्बे में मोबाइल के बदले ईट भेज देने की ख़बरें नहीं पढ़ीं? या फिर दूसरी दुकानों पर भी मिलेगा, मगर वो सस्ता इसलिए बेचते हैं क्योंकि क्वालिटी ऐसी नहीं होती। ये सब कहकर ग्राहक को भ्रमित कर दिया जाता है ताकि अगर वो उनकी दुकान से न ले तो कहीं और से भी न ले।

इस्तेमाल के वक्त आप इसे धर्म-परिवर्तन के मामलों में देख सकते हैं। धर्म परिवर्तन के मामलों में भी सबसे पहला कदम है लोगों को ये समझाना कि उपदेशक, पादरी या मौलाना जिस रिलिजन-मजहब के प्रचार के लिए आया है, वही सबसे अच्छा है। इसके लिए वो अपने रिलिजन को सभी से प्रेम का रिलिजन या फिर शांति का मजहब बताने की कोशिश करेंगे। यहाँ अब के दौर में दिक्कत आ जाती है। अब कई लोगों को पता होता है कि जिसे प्रेम का रिलिजन बताया जा रहा है, वो दूसरों से घृणा भी सिखाता है। जो स्वयं को शांति का मजहब बता रहे हैं, उनके इलाकों में भयावह अशांति और मार काट मची हुई होती है। ऐसे में बदलने पर नौकरी, मुफ्त की पढ़ाई, इलाज, सुन्दर पत्नी या पति का लालच, देकर बहकाने की कोशिश की जाती है।

ये दूसरा सी यानि कर्रप्ट वाली प्रक्रिया है। अगर इससे भी काम न चले तो तुम नरक की आग में जलोगे क्योंकि जो हमारे रिलिजन-मजहब को नहीं मानता वो नर्क ही जाता है, कहकर डराने की कोशिश की जाती है। ये भी एक तरह से कर्रप्ट करना ही है, किसी बहाने से आपसे गलत करवाया जा रहा है।

आखिरी वाला “सी” है कन्फ्यूज जिसमें आपके धर्म को गलत बताया जाता है। अलग – अलग समय में भाषा, बोलचाल का तरीका अलग होता था। नब्बे के दशक में हम छुट्टी के लिए आवेदन देते समय “आई बेग टू स्टेट दैट” से बात शुरू करते थे। आज ये भीख मांगने जैसा जुमला नहीं चलता। पुरानी चिट्ठी दिखाकर पूछा जायेगा देखो ये तो भिखारी था। पुराने अनुवाद दिखाकर बताया जायेगा कि ये तो स्त्री-विरोधी, अनुसूचित जाति-जनजाति से घृणा रखने वाला या और किसी तरीके से बुरा था।

ये कन्फ्यूज वाला मसला आपको वर्ष में कई बार इसलिए दिखता है क्योंकि इन्टरनेट और सूचना क्रांति के युग में जानकारी बहुत तेजी से फैली। ऐसे में धर्म के अनुयायियों को बहकाकर कोई छोटा-मोटा रिलिजन या मजहब स्वीकार लेने के लिए तैयार करना आसान काम नहीं रह गया है। विदेशों से आने वाले फण्ड पर सरकार की कड़ी निगरानी शुरू होने पर उत्कोच, रिश्वत-घूस देना भी उतना आसान नहीं रह गया। आय के स्रोत सूख रहे हों, तो लगातार रिश्वत देना तो संभव नहीं। ऐसे में हर पर्व-त्यौहार के समय ये कन्फ्यूज करने वाला तरीका प्रयोग में लाया जाता है। इयान डीकॉस्टा जैसे लोगों द्वारा चलाये जा रहे फॉरवर्ड प्रेस के जरिये दुर्गा पूजा के समय महिषासुर को नायक घोषित करना यही कन्फ्यूज करना, भ्रमित करना होता है। दीपावली के समय दिए जलाने, पटाखे फोड़ने पर वो कहेंगे कि इससे जानवरों को दिक्कत होगी। ये नियम तब कहाँ गायब हो जाता है जब क्रिसमस, न्यू इयर या शबेबारात पर यही सब होता है? होली पर पानी की बर्बादी कहकर वो कन्फ्यूज ही करते हैं। साल भर दो-दो कार धोने में या आरओ से एक लीटर पानी साफ़ करने में नौ लीटर पानी बर्बाद करने से बचकर आप अधिक पानी बचा लेंगे। एसी और फ्रिज का इस्तेमाल कम करके पर्यावरण का ज्यादा ख़्याल रखा जा सकता है।
उन्हें कन्फ्यूज वाला तरीका इसलिए इस्तेमाल करना है क्योंकि उनकी अनएथिकल मार्केटिंग के अनैतिक तरीकों के दो शुरूआती नुस्खे तो बर्बाद हो चुके हैं। अब उनकी मजबूरी है कि वो आपको भ्रमित करने कंफ्यूज करने के अलावा कुछ और कर नहीं सकते। यहाँ ध्यान रखने लायक बात ये भी है कि ये कन्फ्यूज करने के तरीके आमतौर पर छोटे बच्चे-बच्चियों, किशोरों-किशोरियों और युवा होती पीढ़ी पर इस्तेमाल होते हैं। उन्हें धर्म की बहुत जानकारी नहीं होगी ऐसा मानकर उन्हें भ्रमित करने की कोशिश की जाती है। कभी आगे दस वर्ष-बीस वर्ष बाद इस भ्रमित पीढ़ी या उनकी अगली पीढ़ी को अपनी ओर लाना शायद ज्यादा आसान होगा, ये मान लिया जाता है। अब सवाल उठता है कि इसे बचा कैसे जाए? क्या कोई तरीका है जिससे इसे रोका जा सकता है? आइये इसके जवाब के बारे में सोचकर देखते हैं।

तो यहाँ सबसे पहली बात तो यही समझ में आती है कि ये कोई बहुत सफल तकनीक नहीं है। घटिया उत्पादों, सेवाओं या विचारों पर बेचने के कितने भी अच्छे तरीके इस्तेमाल कर लिए जाएँ, ये चलने वाले नहीं होते। इस मामले में भी आप देखेंगे कि “थ्री सी” के जो दो शुरूआती “सी” होते हैं वो तो फ्लॉप हो ही चुके हैं। आपको केवल तीसरे सी से निपटना है। इसके लिए गांधी का एक प्रसिद्ध सा वाक्य प्रयोग में लाया जा सकता है। गांधी क्यों? क्योंकि गांधी को सांप्रदायिक, या अप्रासंगिक कहकर सिरे से ख़ारिज कर देना हमलावरों के लिए आसान नहीं होता। तो ये आपके पास एक ऐसा हथियार है, जिससे बचना उनके लिए नामुमकिन जैसा हो जाता है। गांधी कहते थे — “मैं अपने घर के खिड़की दरवाजों को खुला रखना चाहता हूं , जिससे बाहर की स्वच्छ हवा आ सके, लेकिन विदेशी संस्कृति-विचारों की ऐसी आंधी न आ जाए कि मैं औंधे मुंह गिर पडूं।”

आपके पास कुछ अच्छा है तो उसे लेकर लोगों को आने दीजिये। जो “सर्व धर्म समभाव” की भावना है, टॉलरेंस या बर्दाश्त करने की बात नहीं, सबको एक जैसा देखने की बात, केवल हिन्दू ही कर सकते हैं। तुलनात्मक रूप से टॉलरेंस या सिर्फ बर्दाश्त करने की बात एक बहुत छोटी बात है। उदाहरण के तौर पर कोई अगर मूर्ति पूजक है तो कोई मूर्ति पूजा में विश्वास न रखने वाला सनातनी उसे ओछा या गलत समझकर बर्दाश्त नहीं कर रहा होता। उसे अपने विचारों के लिए बराबर की जगह दी जाती है। इसकी तुलना में दूसरे छोटे-मोटे किस्म के लोग इसे आइडल वोर्शिप या बुतपरस्ती कहकर ख़ारिज करते हैं और लोगों को ऐसा करने से रोकते भी हैं। अगली पीढ़ियों को बताने के लिए आपको खुद भी काफी कुछ सीखना होगा। एक बार जब आप अगली पीढ़ी को सवाल पूछने के लिए प्रेरित कर देते हैं, क्यों-कैसे जैसे सवाल करना सिखा देते हैं, आपका काम हो जायेगा। उम्मीद है आप मार्केटिंग के “थ्री सी” और गांधी के वाक्य को अपने लिए इस्तेमाल करना भी सीखेंगे।

बात समझाने का Anand Kumar जी का अपना अंदाज है । पोस्ट को सेव कर रखिए, बार बार पढ़ने लायक सीख है ।
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