मत: किसान आंदोलन- 2 का फेल होना क्यों तय है?

2020 Farm Protest Was Different, This Time There Is A Danger Of The Protesting Farmers Being Defamed
Opinion: 2020 आंदोलन की बात अलग थी, इस बार प्रदर्शनकारी किसानों के बदनाम होने का है खतरा

Farm Protest : पंजाब के किसानों का मौजूदा आंदोलन की आवाज अब तक ताकत नहीं पा सकी है। उसके पास वर्ष 2020 के पिछले किसान आंदोलन की तरह प्रभावी संदेश नहीं है। ऐसे में जब पिछले आंदोलन का भाजपा पर चुनावी असर नहीं हुआ तो फिर इस बार क्या ही होगा।
मुख्य बिंदु 
2020 के किसान आंदोलन में कृषि कानूनों के खिलाफ नैरेटिव बना था
इस बार के किसान आंदोलन के पीछे का संदेश उतना ताकतवर नहीं है
2020 के आंदोलन से भी उत्तर प्रदेश के चुनावों में भाजपा को नुकसान नहीं हुआ था
****आसिम अली***
केंद्र और किसानों में वार्ता चल रही है, लेकिन स्थिति तनावपूर्ण है। किसान बैरिकेड्स तोड़ने और पुलिस पर आग लगाने वाले बोरे फेंक रहे हैं, जिसके जवाब में पुलिस आंसू गैस और छर्रों वाले हथियारों का इस्तेमाल कर रही है। राजनीतिक प्रभाव के लिहाज से यह दूसरा किसान आंदोलन पहले से कितना अलग हो सकता है? इसका जवाब देने के लिए आइए हम 2020-21 के किसान आंदोलन के राजनीतिक प्रभाव का संक्षिप्त मूल्यांकन करें।

2020-21 किसान आंदोलन का प्रभाव: वह आंदोलन राजनीतिक चर्चाओं को प्रभावित करने में सफलता जरूर पाई, लेकिन चुनावी नतीजों पर इसका असर नहीं के बराबर ही पड़ा। भाजपा-अकाली दल गठबंधन टूटा: उस आंदोलन ने पंजाब में भाजपा और अकाली दल के गठबंधन को तोड़ दिया, जो विपक्ष के लिए एक मजबूत राजनीतिक हथियार बन गया। आंदोलन की वजह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रिय सरकार को आखिरकार हार कबूल करनी पड़ी, जो काफी दुर्लभ है। आंदोलन की ताकत इसके सरल संदेश में छिपी थी – वंचित किसान बनाम विनाशकारी कृषि सुधारों पर अड़ी सरकार।

चुनावों में प्रभाव सीमित: लेकिन, इसका चुनावी असर 2022 के उत्तर प्रदेश चुनावों में सिर्फ 12 विधानसभा सीटों तक ही सीमित रहा। इन सीटों पर भी भाजपा को ही किसानों के वोट मिले। एक सर्वेक्षण से पता चला कि पूरे प्रदेश के साथ-साथ इन सीटों पर भी किसान परिवारों ने भाजपा का ही साथ दिया। दरअसल, सीएसडीएस-लोकनीति के सर्वे में साफ हो गया कि समाजवादी पार्टी पर भाजपा की बढ़त गैर-किसान परिवारों से भी ज्यादा किसान परिवारों में मिली। मतलब यही निकाला जा सकता है कि किसान आंदोलन की राजनीति चुनावों में कट्टर राष्ट्रवाद और धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण से अलग दिशा देने में विफल रही।

विभाजित समाज: यह आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि विरोध करने वाले किसान (पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में) जाति और वर्ग के आधार पर बंटे हैं। प्रभावशाली जमींदार जाटों, सीमांत ओबीसी किसानों और दलित कृषि मजदूरों के हितों के बीच विरोधाभास राजनीतिक दृष्टि से ‘ग्रामीण बनाम शहरी’ नैरेटिव के मुकाबले भी ज्यादा प्रभावी है।

शहरी और ग्रामीण जीवन में अंतर वास्तविकता के धरातल पर उस हद तक महसूस नहीं होता है जितना ग्रामीण इलाकों में विभाजन का असर दिखता है। इसके अलावा, पिछले तीन दशकों में बढ़ी हुई कनेक्टिविटी ने ग्रामीण और शहरी के बीच जानकारी के स्तर पर अभाव को बहुत हद तक पाट दिया है। साथ ही किसानों और अन्य लोगों के जीवन यापन में बहुत अंतर भी नहीं रह गया है। उदाहरण के लिए, 2012 के आईएचडीएस सर्वे के अनुसार हरियाणा की एक चौथाई से भी कम आबादी खेती को अपनी आजीविका का मुख्य साधन मानती थी। यह अनुपात और कम हो गया होगा क्योंकि ग्रामीण परिवार अलग-अलग स्रोतों से कमाई के रास्ते पर लगातार आगे बढ़ रहे हैं।

इसे देखते हुए, आइए किसानों के ताजा विरोध-प्रदर्शनों के राजनीतिक प्रभाव का अनुमान लगाने का प्रयास करें।

पंजाब में चिंता: भाजपा की अगुवाई वाले सत्ताधारी गठबंधन एनडीए के लिए चिंता का एक बिंदु पंजाब हो सकता है। आंदोलन भाजपा और अकाली दल के बीच चल रहे समझौते को फिर से ध्वस्त कर सकता है। यह याद रखने योग्य है कि 2014 के चुनावों में एनडीए ने पंजाब के जाट सिखों के बीच कांग्रेस के मुकाबले 25% की भारी बढ़त बनाई थी जिसे 2019 तक कांग्रेस ने कम कर दिया था। फिलहाल, आप और कांग्रेस जाट सिखों के साथ-साथ व्यापक आबादी के बीच भी एनडीए गठबंधन से काफी आगे दिखाई देते हैं। इस बार अगर एनडीए पंजाब में खाली हाथ भी रह जाए तो भी उन्हें केवल छह सीटों का ही नुकसान होगा।

हरियाणा में शांति: इसलिए एनडीए के लिए महत्वपूर्ण राज्य हरियाणा और उत्तर प्रदेश हैं। दोनों में, एनडीए ने ‘प्रमुख जाट किसान’ राजनीतिक दलों के साथ गठबंधन किया है: हरियाणा में जेजेपी और उत्तर प्रदेश में आरएलडी। जब तक ये सहयोगी अपनी धाक मतदाताओं पर जमाए रखते हैं, तब तक चुनावी रूप से एनडीए को ज्यादा चिंता करने की नहीं है। इन दोनों राज्यों में भाजपा के मुख्य मतदाता उच्च जाति और ओबीसी हैं। इनके अलावा, एक बड़ा कल्याणकारी समूह भी है जिसे ‘लाभार्थी’ और ‘मोदी की गारंटी’ वाली योजनाओं के कारण लामबंद हुए हैं। इस बीच, प्रभावशाली कृषि जातियों को अलग से मोबिलाइज करने की कोशिश की जा रही है, जो हिंदुत्व या कल्याणकारी योजनाओं के दायरे से बाहर हैं। इसके मद्देनजर मराठों के लिए एनसीपी और जाटों के लिए आरएलडी एवं जेजेपी जैसे सहयोगी दलों के साथ गठबंधन किया गया है। ये पार्टियां न केवल उनके निर्वाचन क्षेत्रों में भाजपा के भरोसे को बढ़ाती हैं, बल्कि अपने नेटवर्क को भी बल देती हैं।

भाजपा की चिंता: भाजपा के लिए चिंता की बात यह है कि क्या लंबे समय तक चलने वाला किसान आंदोलन सामान्य लोकसभा चुनाव से पहले असहज परिस्थिति पैदा कर देगा। पिछले हफ्ते जारी द्वि-वार्षिक इंडिया टुडे मूड ऑफ द नेशन सर्वे उनकी असुरक्षा की ओर इशारा करता है। हालांकि सर्वे में एनडीए को स्पष्ट बहुमत मिल रहा है, लेकिन कुछ डेटा पॉइंट्स सावधानी बरतने की सलाह देते हैं। ‘सरकारी नीतियों से सबसे अधिक लाभ किसे हुआ?’ सवाल पर 52% उत्तरदाताओं का कहना है कि बड़े व्यवसायों को, जबकि केवल 9% और 6% लोग मानते हैं कि क्रमशः किसानों और दिहाड़ी मजदूरों को लाभ हुआ। इसी तरह, अधिकांश लोगों (45% से 37%) का मानना है कि केंद्र की आर्थिक नीतियों ने ‘अमीर और गरीब के बीच की खाई को चौड़ा’ किया है।

इस बार विरोध अलग क्यों: फिलहाल, ऐसा नहीं लगता कि इस बार का किसान मार्च 2021 के आंदोलन को दोहरा पाएगा जो इसी तरह की नाराजगी का फायदा उठाकर सफल हुआ था। इसके कई कारण हैं। सबसे पहले, इस बार किसान संगठन विभाजित हैं, उनके पास स्पष्ट और ठोस उद्देश्य नहीं हैं, इसलिए बीकेयू और एसकेएम के प्रमुख गुट दूरी बनाए हुए हैं। दूसरा, इस बार बड़े व्यवसायों के खिलाफ कोई स्पष्ट नैरेटिव नहीं है। इसका मतलब है कि कोई आसान लक्ष्य नहीं है। एक ‘क्रोनी कैपिलटलिस्ट’ फीगर के बिना विरोध-प्रदर्शन एक लोकप्रिय सरकार के साथ सीधे टकराव में फंस जाते हैं (इस प्रकार उन पर ‘राजनीतिक’ एजेंडे से प्रेरित होने का ठप्पा लगने का रिस्क बढ़ जाता है)। 2020-21 का किसान आंदोलन बीते 10 वर्षों की एक महत्वपूर्ण राजनीतिक घटना थी, लेकिन मौजूदा विरोध-प्रदर्शन के चुनाव पूर्व षडयंत्रकारी एजेंडे के रूप में चिह्नित होने का खतरा है।

लेखक पॉलिटिकल रिसर्चर हैं।

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