उत्तराखंड में पलायन क्यों, रूकेगा कैसे?

सच्चाई का सामना कर ही थामना पड़ेगा पलायन

नई सरकार के लिए एजेंडा तैयार करने के अभियान चलाया जा रहा है। इसमें रविवार को देहरादून में दैनिक जागरण कार्यालय में राउंड टेबल कांफ्रेंस आयोजित किया गया।

उत्तराखंड  में सच्चाई का सामना कर ही थामना पड़ेगा पलायन

देहरादून स्थित दैनिक जागरण कार्यालय सभागार में पलायन पर विमर्श करते विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञ।

देहरादून। 21 साल के हो चुके उत्तराखंड में गांवों से हो रहा पलायन ऐसा विषय है, जिसका अभी तक समाधान नहीं हो पाया है। वह भी तब जबकि सभी यह जानते हैं कि पलायन बड़ी समस्या  है। इसके कारण  और समाधान  से हर कोई भलीभांति भिज्ञ है। इस परिदृश्य के बीच जमीनी वास्तविकता समझते हुए तंत्र को कदम बढ़ाने होंगे। पलायन थामने को विशेष अभियान की आवश्यकता है। इसके लिए बनने वाली नीतियों, योजनाओं, कार्यक्रमों को लेकर प्रत्येक स्तर पर जिम्मेदारी, जवाबदेही तय होनी चाहिए।

राउंड टेबल कांफ्रेंस में विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों ने अपनी राय खुलकर जाहिर की। इसके अलावा वेबिनार, चौपाल समेत इंटरनेट मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म और व्यक्तिगत  संपर्क कर आमजन की राय ली गई। उनका कहना है कि पलायन की रोकथाम को मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत तो है ही, अफसरशाही को भी सोच बदलनी  होगी। गांवों में शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं के विस्तार के साथ ही रोजगार-स्वरोजगार के अवसर सृजित करने पर ध्यान केंद्रित करना होगा।

आर्थिकी से जुड़ा है पलायन

आर्थिकी मजबूत हो तो पलायन पर भी अंकुश लगे। विषम भूगोल वाले उत्तराखंड में इस दृष्टि से देखें तो प्रतिव्यक्ति आय के आंकड़े संतोषजनक है, लेकिन वास्तविकता कुछ और है। तीन मैदानी जिलों और शेष 10 पर्वतीय जिलों में प्रतिव्यक्ति आय में जमीन-आसमान का अंतर है।  राज्य के प्रत्येक जिले और विकासखंड की अपनी अलग परिस्थितियां हैं। मैदानी और पर्वतीय जिलों के मध्य आर्थिकी की खाई पाटने को ऐसे कदम उठाने की दरकार है, जिससे ग्रामीणों की आय के स्रोतों में वृद्धि हो। इस दिशा में पर्यटन, कृषि, मनरेगा, स्थानीय संसाधनों पर आधारित उद्यमों को बढ़ावा, गुणवत्तापूर्ण व रोजगारपरक शिक्षा, कौशल विकास, भूमि बंदोबस्त, पर्यटन-तीर्थाटन के लिए अलग-अलग नीति, स्वरोजगार में कदम बढ़ाने वालों को प्रोत्साहन, उत्पादों की ब्रांडिंग जैसे विषयों पर खास ध्यान केंद्रित करना होगा। इसके लिए गंभीरता से प्रयास हों तो पलायन थम गांवों की रौनक फिर से लौटेगी।

ढांचागत सुविधाओं पर हो फोकस

विषम परिस्थितियों वाले उत्तराखंड के गांवों में ढांचागत सुविधाओं का अभाव भी पलायन की बड़ी वजह है। मूलभूत सुविधाएं न होने से लोग पहाड़ छोड़ मजबूरी में शहरी क्षेत्रों में आ रहे हैं और वहां भी स्थिति कम विकट नहीं है। ऐसे में गांवों में ढांचागत सुविधाओं के विकास के मद्देनजर योजनाएं गांव केंद्रित हों। साथ ही बजट का सदुपयोग हो। विकास के केंद्र में आमजन हो। योजनाओं की मानीटरिंग की महत्वपूर्ण भूमिका होनी चाहिए। विशेषज्ञों के अनुसार गांव खुशहाल व समृद्ध हों, इसके लिए विभागों की जिम्मेदारी व जवाबदेही सुनिश्चित हो। नौकरशाही को जवाबदेह कैसे बनाने के लिए नई सरकार को प्रभावी पहल करनी होगी।

कृषि-बागवानी से बदलेगी तस्वीर

राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों में खेती की जोत बिखरी और छोटी हैं। ऐसे में पारंपरिक कृषि में पहले जैसी बात नही रही। इसे देख नकदी फसलों पर फोकस करने के साथ ही कृषि उत्पादकता बढ़ाने को कदम उठाने होंगे। विशेषज्ञों के अनुसार कृषि का बुनियादी ढांचा सुधारने को कृषि और उसके रेखीय विभागों की जिम्मेदारी तय होनी चाहिए। खेती में यहां की परिस्थितियों के अनुसार नवोन्मेष और नवीनतम तकनीकी का समावेश हो। सिंचाई के सीमित साधनों  में टपक सिंचाई कारगर साबित हो सकती है। हर स्तर पर प्रभावी पहल की जरूरत है। मनरेगा खेती से जुड़े। खेती-किसानी संवरेगी तो गांवों में समृद्धि व खुशहाली आएगी। खेती लाभकारी होगी तो पलायन भी थमेगा।

रोजगार एवं स्वरोजगार के अवसर

पलायन का मुख्य कारण पहाड़ के गांवों में आजीविका व रोजगार के अवसर न होना है। बेहतर भविष्य की आस में लोग शहरों की ओर भाग रहे हैं। ठीक है, गांव में सभी को सरकारी नौकरी नहीं मिल सकती, लेकिन रोजगार, स्वरोजगार के अवसर तो सृजित हो सकते हैं। इसके लिए विभिन्न स्वरोजगारपरक योजनाओं का लाभ युवा उठा सकते हैं, लेकिन इसको  कौशल विकास पर ध्यान देना होगा। छोटे-छोटे उद्यमों को बढ़ावा देने के साथ ही यहां की परिस्थितियों के अनुसार खाद्य प्रसंस्करण जैसी इकाइयां स्थापित हो । स्वरोजगार के ज्यादा से ज्यादा अवसर सृजन को तंत्र को अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करना होगा। उद्यम स्थापना को प्रक्रियागत खामियां दूर कर इनका सरलीकरण करना होगा। यह भी देखने की जरूरत है कि युवा वर्ग क्या चाहता है, उसकी अपेक्षाओं के अनुरूप योजनाओं को धरातल पर मूर्त रूप दिया जाए।

पर्यटन के क्षेत्र में अपार संभावनाएं

प्रकृति ने उत्तराखंड को भरपूर समृद्धि दी हैं। पर्यटन क्षेत्र में यह अपार संभावनाओं वाला प्रदेश है और इसमें पलायन थामने की पूरी शक्ति है। होम स्टे जैसी योजनाएं इसमें कारगर हो सकती हैं, लेकिन सिर्फ होम स्टे खोल देने भर से काम नहीं चलेगा। इसमें कौशल विकास महत्वपूर्ण कड़ी है। स्मार्ट विलेज की अवधारणा को मूर्त रूप देना होगा। न सिर्फ होम स्टे, बल्कि पर्यटन से जुड़ी सभी गतिविधियों के लिए यह आवश्यक है। साथ ही सरकार को पर्यटन विकास की योजनाओं की प्रभावी ढंग से मानीटरिंग सुनिश्चित करना होगा।

सुलझानी होंगी योजनाओं की उलझनें

मूलभूत सुविधाओं के विस्तार और रोजगार-स्वरोजगार की योजनाओं की राह में उलझनें भी कम नहीं हैं। मैदानी और पहाड़ी भूगोल को ध्यान में रखते हुए योजना निर्माण का विषय अभी भी बना हुआ है। विशेषज्ञों के अनुसार योजनाएं गांव व व्यक्ति केंद्रित हों। इनमें स्थानीय समुदाय की भागीदारी हो, जैसा वह चाहे उसी हिसाब से योजनाएं बननी चाहिए। इसके साथ ही पर्यावरणीय समेत अन्य कारणों के समाधान को भी गंभीरता से कदम उठाने होंगे।

हर स्तर पर जवाबदेही आवश्यक

जवाबदेही का विषय अक्सर चर्चा के केंद्र में रहता है। समग्र रूप में देखें तो तंत्र की बेपरवाही गांवों के विकास और वहां मूलभूत सुविधाओं के विस्तार के मामले में भारी पड़ रही है। इस दृष्टिकोण से राजनीतिज्ञों के साथ ही नौकरशाहों को अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी। सोच में बदलाव ला तंत्र को जवाबदेह बनाना होगा।  विभाग अपने कार्य  पूरी जिम्मेदारी से पूर्ण करे। गांवों की तरक्की के लिए सोच में बदलाव हर स्तर पर जरूरी है।

पलायन: अपेक्षा

1-पर्वतीय गांवों में बुनियादी सुविधाओं का तेजी से विकास

2-समयबद्ध अभियान चला पलायन पर लगाई जाए रोक

3-पर्वतीय गांवों में नकदी फसलों को मिले प्रोत्साहन

4-ब्लाक स्तर पर सुदृढ़ की जाए आर्थिक स्थिति

5-पर्वतीय क्षेत्र को लेकर बदले सरकारी तंत्र की सोच

6-महिलाओं के विकास को ध्यान में रखकर बने नीति

7-उत्पादकता और समृद्धि से जोड़े जाएं पर्वतीय गांव

8-कृषि व औद्यानिकी को ध्यान में रख हो ढांचागत विकास

9-गांवों को विकास का केंद्र बना हो नियमित मानीटरिंग

10-कृषि उत्पादन और कार्यों से मनरेगा को जोड़ा जाए

11-पहाड़ी उत्पादों की हो ब्रांडिंग और बने कोल्ड चेन

12-गांवों में युवाओं और मानव संसाधन को कौशल प्रशिक्षण

13-आईटीआई, पालीटेक्निक में साफ्ट स्किल ट्रेनिंग पर जोर

14-निजी विश्वविद्यालयों के अनिवार्य हों हिल कैंपस

15-गांवों में पहुंचे कृषि शिक्षण संस्थान और वैज्ञानिक

16-सरकारी सेवाओं में जिले के स्थान पर बने ब्लाक कैडर

17-ब्लाक स्तर पर सरकारी कार्मिकों को आवास व्यवस्था

18-पारंपरिक कौशल विकास से स्वरोजगार को बढ़ावा

19-सीमांत क्षेत्रवासियों को सुरक्षा प्रहरी मान मिले प्रोत्साहन

20-उच्च व मध्य हिमालयी क्षेत्र को अलग नीति नियोजन

21-पर्वतीय क्षेत्र में टपक (ड्रिप) सिंचाई पर हो विशेष जोर

22-ग्रीन इकोनोमी की ओर कदम बढ़ाए उत्तराखंड

23-ग्रामीण क्षेत्रों में स्टार्टअप को विशेष प्रोत्साहन जरूरी

24-लक्ष्य आधारित जवाबदेही से काम करें सरकारी विभाग

25-लुहार, बढ़ई जैसे श्रम आधारित छोटे व्यवसायों को बढ़ावा

26-स्मार्ट सिटी की तर्ज पर स्मार्ट विलेज का हो विकास

उत्‍तराखंड में निर्जन हो चुके गांव

पौड़ी——- 517
अल्‍मोड़ा—–162
बागेश्‍वर—–147
टिहरी——-142
हरिद्वार—-120
चंपावत—–108
चमोली—–106
पिथौरागढ़–98
रुद्रप्रयाग—93
उत्‍तरकाशी–83
नैनीताल—-66
ऊधम सिंह नगर–33
देहरादून —27

सुनिए सरकार: आंकड़े

1-3946 गांवों के 1.19 लाख व्यक्तियों ने स्थायी रूप से किया पलायन
2-6338 गांवों के 383726 ने अस्थायी रूप से किया पलायन, लेकिन गांवों से नाता बरकरार
3-चीन व नेपाल सीमा से सटे उत्तराखंड में 1702 गांव हो चुके हैं जनविहीन
4-उत्तराखंड के गांवों से पलायन की दर 36.2 प्रतिशत है, जो राष्ट्रीय औसत 30.6 प्रतिशत से ज्यादा

गांवों से पलायन

1-5-50.16 प्रतिशत ने आजीविका-रोजगार

2-15.21 प्रतिशत ने शिक्षा

3-8.83 प्रतिशत ने चिकित्सा सुविधा

4-5.61 प्रतिशत ने वन्यजीवों से फसल क्षति

5-5.44 प्रतिशत ने कृषि पैदावार में कमी

6-3.74 प्रतिशत ने मूलभूत सुविधाओं का अभाव

7-2.52 प्रतिशत ने परिवार व सगे संबंधियों की देखा-देखी

8-8.49 प्रतिशत ने अन्य कारणों से

गांवों से पलायन कहां से कहां

1-19.46 प्रतिशत ने अपने नजदीकी कस्बों में

2-15.18 प्रतिशत ने अपने जिला मुख्यालय में

3-55.69 प्रतिशत ने राज्य के अन्य जिलों में

4-28.72 प्रतिशत उत्तराखंड से बाहर

5-0.96 ने देश से बाहर

-डा एसएस नेगी (उपाध्यक्ष, उत्तराखंड ग्राम्य विकास एवं पलायन आयोग) ने कहा कि गांवों से पलायन राज्य के सभी जिलों में है, लेकिन अल्मोड़ा व पौड़ी में यह अधिक है। असल में पलायन आर्थिकी से जुड़ा है। पर्वतीय और मैदानी जिलों में प्रतिव्यक्ति आय में अंतर से इसे समझा जा सकता है। पलायन थामने को राजनीतिज्ञों व नौकरशाहों को सोच बदलनी होगी। अगले पांच साल गांवों पर ध्यान केंद्रित करना होगा। महिलाओं के लिए अलग से नीति बनानी होगी। होना यह चाहिए कि विकास की कोपलें पहाड़ से नीचे की तरफ फूटें।

-लोकेश नवानी (अध्यक्ष, सामाजिक संस्था धाद) का कहना है कि पहाड़ के गांवों को उत्पादक बनाना समय की मांग है। कृषि के बुनियादी ढांचे में सुधार के साथ ही विभागों की जवाबदेही तय होनी चाहिए। मनरेगा को इससे जोड़ा जाना आवश्यक है। गांव में सभी कार्य होंं उत्पादकता से संबंधित होने चाहिए। बजट का सदुपयोग होना चाहिए। सुनिश्चित हो कि विकास के केंद्र में ग्रामीण हो। गांवों में उत्पादकता पर काम हो रहा है या नहीं, इसकी नियमित रूप से मानीटरिंग होनी चाहिए।

-प्रोफेसर एचसी पुरोहित (डीन दून विश्वविद्यालय) का कहना है कि पलायन की थ्योरी पुल व पुश पर केंद्रित है। पुल में आकर्षण है और पुश में विवशता। शहरी क्षेत्रों में सुविधाएं होने पर लोग वहां आकर्षित हो रहे हैं, जबकि गांव में इनके अभाव में वहां से पलायन कर रहे हैं। पहाड़ की खेती को लाभकारी बनाने की जरूरत है। उत्पादों की ब्रांडिंग, मार्केटिंग जरूरी है। कौशल विकास को प्रशिक्षण की व्यवस्था ब्लाक स्तर पर होनी चाहिए। शिक्षा व स्वास्थ्य से जुड़े संस्थानों के कैंपस पहाड़ में हों। जितने भी निजी शिक्षण संस्थान हैं, उनके हिल कैंपस अनिवार्य रूप से हों।

-एसपी नौटियाल (सेवानिवृत्त संयुक्त आयुक्त, जीएसटी) का कहना है कि पर्वतीय क्षेत्र में पांच-पांच गांवों के केंद्र में छोटे-छोटे व्यवसाय व उद्यमों के प्रशिक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए। परंपरागत उद्यम प्रोत्साहन को भी समय के हिसाब से प्रशिक्षण जरूरी है। कृषि में सुधार को वैज्ञानिकों की सेवाएं लेनी होंगी। स्वास्थ्य सेवाओं की मजबूती को हिल कैडर शुरू होना चाहिए। राज्य के विभिन्न विभागों, आयोगों, प्राधिकरणों के 170 मुख्यालयों में से 134 देहरादून में हैं। ये सुनिश्चित हो कि जो भी कार्यालय अथवा संस्थान खुलें, वे पहाड़ में खुलें।

-रतन सिंह असवाल (संयोजक, पलायन: एक चिंतन) का कहना है कि स्वरोजगार की योजनाओं को धरातल पर मूर्त रूप देने को आवश्यक है कि इनसे संबंधित प्रक्रियागत खामियां दूर कर इनका सरलीकरण किया जाए। यह देखने की भी जरूरत है कि राज्य के तकनीकी संस्थानों से पासआउट प्रशिक्षणार्थियों की परफार्मेंस क्या है। कौशल विकास को नए कलेवर में निखारना होगा। इससे संबंधित प्रशिक्षण लक्ष्य आधारित होने आवश्यक हैं। प्रदेश में कृषि-बागवानी को प्रोत्साहन देने की जरूरत है।

-अनूप नौटियाल (अध्यक्ष एसडीसी फाउंडेशन) का कहना है कि पलायन की रोकथाम को राज्य सरकार को तो प्रभावी कदम उठाने ही होंगे, केंद्र सरकार को भी आगे आना होगा। केंद्र इसके लिए प्राधिकरण अथवा आयोग बना सकता है। पलायन थामने को आवश्यक है कि सरकार, अफसरशाही और समाज सभी सजगता से आगे आएं। गांवों के विकास और वहां रोजगार के अवसर सृजित करने को जो भी कार्य किए जाएं, उनमें सरकार फैसिलिटेटर की भूमिका को जिम्मेदारी से निभाए।

-राम प्रकाश पैन्यूली (सदस्य, ग्राम्य विकास एवं पलायन आयोग) का कहना है कि गांवों के लिए यहां की परिस्थितियों के हिसाब से नीतियां, योजनाएं बनानी होंगी। प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्र में वर्ष 1960 से भूमि बंदोबस्त नहीं हुआ है, यह होना चाहिए। इसको श्रेणीवार भूमि विभाजित कर चकबंदी की जा सकती है। योजनाओं को उच्च और मध्य हिमालय को अलग मानक होने चाहिए। यह सुनिश्चित होना चाहिए कि प्रत्येक परिवार का एक व्यक्ति सेवायोजित हो। सीमांत क्षेत्रों से यह पहल की जा सकती है। पर्यटन-तीर्थाटन वर्षभर रहना चाहिए। साथ ही सरकार को प्रवासी मंत्रालय भी बनाना चाहिए।

-तन्मय ममगाईं (सचिव, सामाजिक संस्था धाद) का कहना है कि पलायन की समस्या के समाधान को अभियान मोड में कार्य होना चाहिए। ऊपर से लेकर नीचे तक प्राथमिकताएं निर्धारित करनी होंगी।  स्वरोजगार के क्षेत्र में हाथ आजमा रहे हैं या आजमाना चाहने वालों के  साथ, सरकार व समाज को खड़ा होना पड़ेगा। युवाओं की अपेक्षाओं को समझते हुए आज की परिस्थितियों के हिसाब से नीतियां बनानी होंगी। स्मार्ट सिटी की तर्ज पर स्मार्ट विलेज की परिकल्पना भी साकार करने को कदम बढ़ाने होंगे।

-एसएस कोठियाल (सेवानिवृत्त आईजी बीएसएफ) का कहना है कि पर्वतीय क्षेत्र में शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार पर नई सरकार को विशेष रूप से फोकस करना चाहिए। यदि इन तीनों विषयों पर गंभीरता से कार्य हो तो पलायन पर काफी हद तक अंकुश लगाने में मदद मिलेगी। युवाओं के लिए स्थानीय स्तर पर रोजगार के अवसर मुहैया कराने को पर्यटन, ट्रैकिंग जैसी गतिविधियों को महत्व दिया जाए। खेती की तस्वीर संवारने को विशेषज्ञों की सेवाएं ली जानी चाहिए। वन्यजीवों से फसल सुरक्षा भी महत्वपूर्ण विषय है। इन सभी विषयों के समाधान को मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति होनी आवश्यक है।

-डा.अनीता रावत (निदेशक, उत्तराखंड साइंस एजुकेशन एंड रिसर्च सेंटर) का कहना है कि पलायन रोकने को दूरदर्शी प्रयास किए जाने की आवश्यकता है। मसलन, विज्ञान शिक्षा का सुदूरवर्ती क्षेत्रों तक विस्तारीकरण, स्थानीय ग्रामीण परिवेश में जीवन को सुगम और सरल बनाने को तकनीकी का उपयोग जरूरी है। माडर्न तकनीकी की पहुंच सुगम बनाई जानी चाहिए, जिससे आजीविका के साधन आसानी से सुलभ हों। गांवों में शिक्षा, स्वास्थ्य, संचार जैसी मूलभूत सुविधाओं के विस्तार और रोजगार के अवसर पलायन रोकने में कारगर सिद्ध होंगे।

तीन साल पहले लोकसभा चुनाव 2019 के समय 28 मार्च 2019

पलायन की पीड़ा सीने में समेटे सुबक रहे उत्तराखंड के पहाड़


इससे पहले भी दैनिक जागरण देहरादून कार्यालय में राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस का आयोजन किया गया था। इसमें पहाड़ पलायन की पीड़ा को लेकर सवालों की थाह लेने और समाधान ढूंढने के लिए मंथन हुआ था

वर्ष 2001 में जहां मानवविहीन हो चुके गांवों की संख्या 968 थी, 2019 तक 1700 को पार कर गई। सैकड़ों की संख्या में गांव खाली होने के कगार पर थे। उत्तराखंड में राज्य गठन के बाद चार लोकसभा चुनाव हो चुके।  पलायन का मुद्दा लोकसभा चुनावों में हमेशा गायब ही रहा।

विभिन्न क्षेत्रों के बुद्धिजीवियों और जागरूक लोगों ने इस पर गहन मंथन किया। जो कारण निकलकर सामने आए, उससे साफ हो गया कि पलायन से अधिक उसके कारण बड़े हैं। पलायन एक सतत् प्रक्रिया है और विकास की खातिर यह लाजिमी भी है। मगर, उत्तराखंड में पलायन की वजह मजबूरी है, बेरोजगारी है, शिक्षा व स्वास्थ्य का समुचित अभाव है। …और भी कई कारण हैं, जिनसे पहाड़ों की गोद से सब कुछ धीरे-धीरे फिसल रहा है।

एक करोड़ एक लाख से अधिक आबादी वाले उत्तराखंड में महज 35 लाख लोग ही पर्वतीय क्षेत्रों में रह गए , जबकि 13 में से राज्य के नौ जिले पूरी तरह से पर्वतीय हैं। इसके अलावा इस बात पर भी बल दिया गया कि उत्तराखंड में वनाधिकार कानून लागू करने की सख्त जरूरत है। सामाजिक क्षेत्र में काम कर रहे प्रतिभागियों ने अपने अनुभव के आधार पर बताया कि किस तरह लोगों को स्थानीय संसाधनों का उपभोग करने के लिए भी अनुमति लेने की जरूरत पड़ रही है। कानून की जटिलताओं के चलते भी लोग पहाड़ों से विमुख होते चले जा रहे हैं।

5000 की आमदनी से कैसे होगा गुजारा

भारतीय वन सेवा के सेवानिवृत्त अधिकारी व उत्तराखंड पलायन आयोग के उपाध्यक्ष डॉक्टर एसएस नेगी ने बताया कि पर्वतीय क्षेत्रों में प्रति परिवार की औसत आमदनी महज पांच हजार रुपये महीना है। ऐसे में वह दो जून की रोटी का जुगाड़ भी बमुश्किल कर पाते हैं, तो बच्चों की बेहतर शिक्षा व स्वास्थ्य का प्रबंधन कर पाना दूर की कौड़ी है। यदि इस तरह के परिवार पलायन नहीं करेंगे तो क्या करेंगे। सरकारी सुविधाएं अधिकतर 250 व इससे अधिक की आबादी वाले गांवों तक सिमटी हैं, जबकि बड़ी संख्या 20-25 व 50 की आबादी वाले गांव की है।

राजनीतिक प्रतिनिधित्व भी घट रहा

गति फाउंडेशन के संस्थापक अध्यक्ष अनूप नौटियाल ने कहा कि वर्ष 2001 की जनगणना के आधार पर वर्ष 2006 में उत्तराखंड की विधानसभा सीटों के परिसीमन में 40 में से छह सीटें घट गईं। अब पहाड़ में 34 सीटें रह गई हैं और मैदान में 36 सीटें हो गई हैं। सवाल भविष्य का है, जब वर्ष 2026 में परिसीमन होगा। क्योंकि घटती आबादी में उत्तराखंड की राजनीतिक में पर्वतीय प्रतिनिधित्व के और घटने के आसार पैदा होने लगे हैं। पलायन के बड़े स्वरूप में भी देखें तो बेहद बड़े हिमालयी क्षेत्र में देश की महज चार फीसद ही आबादी शेष है। इसी कारण संसदीय सीटों की संख्या में हिमालयी राज्यों का स्थान महज पांच फीसद है।

परिवार टूट रहे, घट रही खेती

दून यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ मैनेजमेंट के डीन डॉक्टर एचसी पुरोहित ने पलायन को घटती कृषि व खेतों की कम उर्वरा क्षमता से भी जोड़ा। उन्होंने कहा कि रोजगार आदि की खातिर परिवारों का विघटन हो रहा है और कम उर्वरा क्षमता वाले पहाड़ों के खातों में लोग कृषि कार्य से मुंह मोडऩे लगे हैं। ऐसे में यहां के लोगों के पास पहाड़ों से निकलकर मैदानी शहरों में छोटी-मोटी नौकरी करने का ही विकल्प बच गया है। ऐसा नहीं है कि बेहतर नौकरी पलायन का कारण बन रही है, पहाड़ों से टूट रहे अधिकतर लोग मैदानी शहरों में किसी तरह गुजर बसर कर रहे हैं।

कृषि व पर्यटन की उपेक्षा से जड़ों से उखड़ रहे लोग

सामाजिक कार्यकर्ता द्वारिका प्रसाद सेमवाल का कहना है कि राज्य गठन के बाद कृषि व पर्यटन के सेक्टर में जैसे काम होना था, नहीं हो पाया। आज भी प्रदेश में इन सेक्टरों में कई लोग बेहतर काम कर पलायन को आईना दिखाया है। यह प्रयास व्यक्तिगत स्तर के हैं और सरकारी स्तर पर समग्र प्रयास के बिना खाली होते पहाड़ों को थामना संभव नहीं।

छोटे-छोटे प्रयासों का अभाव

पर्वतीय क्षेत्रों में करीब 20 वर्षों से काम कर रहे समाजशास्त्री लोकेश ओहरी का कहना है कि उत्तराखंड में सरकार बड़े-बड़े ख्वाब दिखाती है, मगर वह धरातल पर नहीं उतर पाते हैं। इससे बेहतर हो कि छोटे स्तर पर बड़ी संख्या में प्रयास किए जाएं। स्थानीय संसाधनों के आधार पर रोजगार दिलाने के प्रयास किए जाएं तो पलायन को रोका जा सकता है। इससे इतर जहां भी लोगों को अवसर मिलेगा, वह पलायन करते रहेंगे।

जो मजबूर, वही रुके गांवों में

सुविधाविहीन गांवों में वही लोग रुके हैं, जो मजबूर हैं और अन्यत्र नहीं बस सकते। यह कहना है कि दून यूनिवर्सिटी के मॉस कम्युनिकेशन के प्रवक्ता डॉक्टर हर्ष डोभाल का। ऐसे लोग अधिकतर ऊंचाई वाले इलाकों में अधिक हैं,  इनका जीवन बेहद दुरूह होता जा रहा है।

नीति का अभाव बढ़ा रहा पलायन

स्वराज अभियान से जुड़े तुषार रावत का कहना है कि पर्वतीय क्षेत्रों के हिसाब से नीति नहीं बनाई जा रही है। जिसके चलते कोई भी योजना धरातल पर प्रभावी साबित नहीं हो पाती है। नीति में बदलाव किए बिना पलायन पर अंकुश लगा पाना संभव नहीं हो पाएगा।

नीति-नियंता सभी मैदानों में जमे

राज्य निर्माण आंदोलनकारी प्रदीप कुकरेती का कहना है कि ग्राम प्रधान से लेकर, विधायक, मंत्री व सांसदों के घर मैदानी क्षेत्रों में हैं। सरकारी शिक्षकों से लेकर तमाम अधिकारी भी मैदानों में ही बसे हैं। इसी से पहाड़ों का विकास नहीं हो पा रहा और वहां से पलायन हो रहा है।

संसाधनों के विपणन के इंतजाम नहीं

पर्वतीय क्षेत्रों के संसाधनों को बाजार मुहैया करा रहे सामाजिक कार्यकर्ता देवेश का कहना है कि पर्वतीय क्षेत्रों में तमाम प्राकृतिक संसाधन हैं, मगर उनके विपणन (मार्केटिंग) की व्यवस्था न होने से लोग पहाड़ों से विमुख हो रहे हैं।

रोजगार के बिना पलायन पर अंकुश संभव नहीं

राजकीय पूर्व माध्यमिक शिक्षक संघ के उपाध्यक्ष सतीश घिल्डियाल रोजगार के अभाव को पलायन का सबसे बड़ा कारण मानते हैं।  बेहतर रोजगार की जगह लोग दो जून तक की रोटी के जुगाड़ के लिए अपनी जड़ों से उखड़ने को मजबूर हैं। पहाड़ों में न तो उद्योग हैं, न ही स्वरोजगार की पर्याप्त व्यवस्था।

पलायन रोकने के सुझावों पर भी अमल नहीं

राज्य माल और सेवा कर विभाग के सेवानिवृत्त संयुक्त आयुक्त एसपी नौटियाल का कहना है कि पलायन आयोग के सुझावों तक पर काम न हो पाना खेद की बात है। अब तक आयोग को 222 सुझाव प्राप्त हो चुके हैं, जिनमें से 40 सुझाव अकेले उनके हैं।

 

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