हिसाब-किताब:1975 से 1980 तक शेख अब्दुल्ला ने किया कश्मीर का इस्लामीकरण

Kashmir Files का सच: आखिर 32 साल पहले कश्मीरी पंडितों के साथ क्या हुआ था, उनके पलायन के पीछे कौन जिम्मेदार?

कीर्तिवर्धन मिश्र

The Kashmir Files and Story of Kashmiri Pandit Exodus: कश्मीरी पंडितों के पलायन के दौरान यासीन मलिक से लेकर तत्कालीन राज्यपाल जगमोहन और कश्मीरी नेता अब्दुल्ला-मुफ्ती तक किसकी क्या भूमिका रही?

कश्मीरी पंडितों के घाटी से पलायन से पहले और बाद के सभी सक्रिय राजनीतिक चेहरे।

कश्मीरी पंडितों के पलायन को लेकर बनी फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ इस वक्त चर्चा में है। फिल्म में 1990 के उस दौर की कहानी दिखाई गई है, जब लाखों की संख्या में कश्मीरी पंडितों को आतंकियों की धमकी के चलते अपने घर छोड़कर भागना पड़ा था। हालांकि, यह किन हालात में हुआ और वे कौन से प्रमुख चेहरे थे, जो इस पूरे घटनाक्रम में लगातार सामने आते रहे, इस पर देश में ज्यादा चर्चा नहीं हुई।

कश्मीरी पंडित यानी कश्मीर में रहने वाला ब्राह्मण समुदाय। यह समुदाय शुरुआत से ही घाटी में अल्पसंख्यक था। आइए जानते हैं कि कश्मीरी पंडितों को घाटी से निकालने के लिए नफरत कैसे बोई गई?

 

शेख अब्दुल्ला, 1975
जम्मू-कश्मीर में धार्मिक उन्माद कैसे भड़का, इसे समझने के लिए 1975 का रुख करना पड़ेगा। यह वह दौर था, जब कश्मीर घाटी के हालात सुधारने के लिए प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने शेख अब्दुल्ला के साथ (The Indira–Sheikh Accord) समझौता किया। इस समझौते के बाद ही शेख अब्दुल्ला को कश्मीर की सत्ता मिली। बताया जाता है कि इंदिरा गांधी और शेख अब्दुल्ला के समझौते का कश्मीर की अधिकतर मुस्लिम आबादी ने विरोध किया था।

स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के एक रिसर्च पेपर के मुताबिक, समझौते को लेकर हो रहे विरोध को दबाने के लिए शेख अब्दुल्ला ने राज्य में कई सांप्रदायिक भाषण दिए। 1980 में अब्दुल्ला ने 2500 गांवों के नाम बदलकर इस्लामिक नामों पर कर दिए। मुरादाबाद में मुस्लिमों के मारे जाने की तुलना जालियावालां बाग हत्याकांड से कर दी। माना जाता है कि यही वह दौर था, जब कश्मीर को पूरी तरह से इस्लामिकरण की तरफ धकेल दिया गया था। इसे लेकर श्रीनगर में कुछ दंगे भी भड़के थे।

जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट, 1977
जम्मू-कश्मीर में एक धड़ा हमेशा से अलगाववाद का समर्थक रहा था। हालांकि, इस संगठन को पहले कभी कश्मीर में अपना एजेंडा फैलाने की जगह नहीं मिली। तब इस संगठन ने ब्रिटेन में प्लेबिसाइट फ्रंट (जनमत संग्रह के समर्थक नेताओं के गुट) को जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) नाम दिया। कश्मीरी पंडितों के नरसंहार में इस संगठन की बड़ी भूमिका रही थी। इस संगठन के नेता बिट्टा कराटे ने 1991 में न्यूजट्रैक के पत्रकार मनोज रघुवंश को दिए एक इंटरव्यू में 30-40 से ज्यादा कश्मीरी पंडितों को मारने का दावा भी किया था।

गुलाम मोहम्मद शाह, 1984
इसके बाद अगली अहम तारीख आती है दो जुलाई 1984 की, जब केंद्र की इंदिरा गांधी सरकार ने ही शेख अब्दुल्ला के बेटे और तत्कालीन सीएम फारूक अब्दुल्ला की सरकार को भंग कर दिया था। आरोप था कि अब्दुल्ला सरकार ने कांग्रेस के लोगों और कश्मीरी पंडित के खिलाफ बर्बर हमले करवाए। कांग्रेस ने कुछ समय बाद ही फारूक अब्दुल्ला के बहनोई गुलाम मोहम्मद शाह को मुख्यमंत्री बना दिया।

 

पीएस वर्मा की किताब ‘जम्मू एंड कश्मीर एट द पॉलिटिकल क्रॉसरोड्स’ के मुताबिक, केंद्र की कांग्रेस सरकार को उम्मीद थी कि गुलशाह कश्मीर में उनके विचारों को लागू करेंगे। हालांकि, कांग्रेस की उम्मीद के उलट शाह ने कश्मीर को कट्टर इस्लाम की तरफ से धकेलना शुरू कर दिया।

फरवरी 1986 में गुलाम मोहम्मद शाह के सीएम रहते हुए ही जम्मू-कश्मीर में पहली बार हिंदू-मुस्लिम दंगे हुए थे। तब शाह ने सचिवालय में एक मस्जिद स्थापित करवाई थी। इसे लेकर हिंदुओं ने प्रदर्शन किए और जम्मू से लेकर कश्मीर तक जबरदस्त दंगे हुए। कश्मीर घाटी में कट्टरपंथियों ने हिंदुओं के मंदिर तक तोड़ दिए थे। बताया जाता है कि दंगों में 10 से ज्यादा कश्मीरी पंडितों की मौत हुई थी।

जगमोहन, 1986
जम्मू-कश्मीर में पहली बार भड़के दंगों को लेकर राज्य के तत्कालीन राज्यपाल जगमोहन ने गुलाम मोहम्मद शाह की सरकार को भंग कर दिया। देशभर में इस बात को लेकर काफी बहस जारी है कि जब जम्मू-कश्मीर में संकट की स्थिति पैदा हुई थी कि जगमोहन भाजपा समर्थित राज्यपाल थे। हालांकि, सच्चाई यह थी कि अपने पहले कार्यकाल में उन्हें कांग्रेस सरकार ने राज्यपाल बनाया था। वे पूरे पांच साल तक राज्यपाल रहे थे और यही वह समय था, जब कश्मीर में हालात बिगड़ना शुरू हुए।

सैयद अली शाह गिलानी-यासीन मलिक, 1987-1990
एक साल तक राष्ट्रपति शासन में रहने के बाद 1987 में जम्मू-कश्मीर में चुनाव कराए गए। पहली बार इन चुनावों में कश्मीर में कट्टर इस्लाम का समर्थन करने वाले सैयद अली शाह गिलानी ने भी उतरने का फैसला किया था। उनके समर्थन और प्रचार में यासीन मलिक जैसे अलगाववादी नेता भी शामिल रहे। इन नेताओं ने चुनाव के लिए अपनी पार्टी ‘मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट’ का गठन किया था। यही पार्टी आगे चलकर हुर्रियत के नाम से जानी गई।

1987 में हुए इन चुनावों में लगातार गड़बड़ी के आरोप लगते रहे। नतीजों में जब फारूक अब्दुल्ला को विजेता घोषित किया गया, तब मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट ने आरोप लगाया कि चुनावों में पूरी तरह धांधली हुई। यहीं से एमयूएफ के नेता एक के बाद एक अलगाववादी नेताओं के तौर पर पहचाने जाने लगे और कश्मीर कट्टरपंथ की तरफ धकेला जाने लगा। इस दौरान गिलानी का प्रचार करने वाला यासीन मलिक भी जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट का हिस्सा बन गया। इस तरह लंबे समय तक भारत से बाहर रहे जेकेएलएफ की कश्मीर में एंट्री संभव हुई।

टीका लाल टपलू, 1989
कश्मीर में हिंसा फैलाने के बाद जेकेएलएफ ने पहली बार 14 सितंबर 1989 को किसी कश्मीरी पंडित की निशाना बनाकर हत्या की। यह नाम था घाटी के भाजपा नेता टीका लाल टपलू का। इसके बाद जम्मू कश्मीर हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज नीलकंठ गंजू को श्रीनगर में हाईकोर्ट के ही बाहर मौत के घाट उतार दिया गया था। यही वह दौर था, जब राम जन्मभूमि भारत में एक बड़े मुद्दे के तौर पर उभर रहा था और केंद्र की राजीव गांधी सरकार लगातार मुश्किलों का सामना कर रही थी। बोफोर्स घोटाले के आरोपों के बाद कांग्रेस सरकार गिर गई।

वीपी सिंह-मुफ्ती मोहम्मद सईद, 1989
कांग्रेस की सरकार गिरने के बाद दो दिसंबर 1989 को वीपी सिंह के नेतृत्व में जनता दल की सरकार बनी। इस सरकार को तब लालकृष्ण अडवाणी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का बाहर से समर्थन हासिल था। पीएम रहते हुए वीपी सिंह ने कश्मीर के नेता और फारूक अब्दुल्ला के कट्टर विरोधी रहे मुफ्ती मोहम्मद सईद को गृह मंत्री नियुक्त किया था। माना जाता है कि तब कश्मीर के बिगड़ते हालात के बावजूद मुफ्ती ने राज्य में एक मजबूत गवर्नर भेजने की मांग उठा दी।

इस पद के लिए एक बार फिर जगमोहन के नाम की चर्चा उठी, लेकिन इससे पहले कि उनकी नियुक्ति होती, जेकेएलएफ के आतंकियों ने मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रूबिया का अपहरण कर लिया। यह घटना आठ दिसंबर की थी, यानी सईद के गृह मंत्री बनने के महज छह दिन बाद की। आतंकियों ने रूबिया की रिहाई के लिए कुछ और आतंकियों की रिहाई की मांग की। केंद्र सरकार ने इसके बाद आनन-फानन में रूबिया को छुड़ाने के लिए चार दिन के अंदर पांच आतंकियों को रिहा किया।

जगमोहन vs फारूक अब्दुल्ला, 1990
यूरोपियन फाउंडेशन फॉर साउथ एशियन स्टडीज (EFSAS) के मुताबिक, इस घटना के बाद ही जेकेएलएफ के हौसले बुलंद होना शुरू हो गए थे। इन आतंकियों ने धीरे-धीरे कश्मीर के अखबार आफताब और अल-सफा में हिंदू-विरोधी इश्तिहार देना शुरू किए। इसके अलावा सड़कों और गलियों में हिंदू विरोधी नारे वाले पोस्टर भी लगाए गए। यहां तक कि मस्जिदों से भी पंडितों को जल्द से जल्द घाटी छोड़ देने की धमकी दी गई। इन घटनाओं के चलते कश्मीर को लेकर वीपी सिंह सरकार की मुसीबतें भी लगातार बढ़ती रहीं। आखिरकार मुफ्ती मोहम्मद सईद के दबाव में वीपी सिंह ने एक बार फिर 19 जनवरी 1990 को जगमोहन को कश्मीर का राज्यपाल नियुक्त किया।

फारूक अब्दुल्ला ने पहले ही केंद्र सरकार को धमकी दी थी कि अगर जगमोहन को दोबारा कश्मीर का राज्यपाल नियुक्त किया जाता है, तो वे अपने पद से इस्तीफा दे देंगे। फारूक का कहना था कि जगमोहन पहले ही उनकी सरकार को भंग कर चुके थे, इसलिए उन्हें जगमोहन पर भरोसा नहीं था। फारूक ने जगमोहन की नियुक्ति के अगले दिन यानी 20 जनवरी 1990 को सीएम पद से इस्तीफा दे दिया और राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू हो गया।

वर्तमान में ऐसे कई सोशल मीडिया पोस्ट्स सामने आए हैं, जिनमें आरोप लगाए गए हैं कि फारूक अब्दुल्ला इस्तीफा देने से पहले ही कश्मीरी पंडितों को घाटी से निकालने के लिए आतंकियों की मदद कर चुके थे। कुछ पोस्ट्स में यह भी दावा किया गया है कि वीपी सिंह और संघ के समर्थन वाली सरकार द्वारा नियुक्त जगमोहन ने ही कश्मीरी पंडितों को घाटी से पलायन के लिए मनाया था। कुछ और पोस्ट्स में यह भी कहा जाता है कि कश्मीरी पंडितों को बचाने के लिए जगमोहन की तरफ से कदम काफी देरी से उठाए गए थे। हालांकि, इस लेख में दिए गए तथ्य किताबों और दस्तावेजों पर आधारित हैं।

जॉर्ज फर्नांडिस, 1990
घाटी से कश्मीरी पंडितों के पलायन के दौरान वीपी सिंह सरकार ने स्थिति को बदलने की काफी कोशिश की। हिंसा को रोकने के लिए केंद्र ने पहली बार मार्च 1990 में कश्मीर मामलों का मंत्रालय बनाया और रेल मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस को इसका अतिरिक्त प्रभार सौंपा। हालांकि, कश्मीर के हालात संभालने के लिए हुई एक और नियुक्ति से राज्य के हालात सुधरने के बजाय और बिगड़ गए। जगमोहन और जॉर्ज फर्नांडिस के बीच तलवारें साफ खिंचती नजर आईं। जगमोहन की तरफ से पीएम वीपी सिंह को लिखी एक चिट्ठी में जॉर्ज फर्नांडिस की शिकायत भी की गई थी। यहां तक कि जगमोहन ने उन्हें इस्तीफे की धमकी दी थी। मई-जून 1990 में तीन हफ्तों के अंतराल में दोनों ही नेताओं को केंद्र सरकार की तरफ से हटा दिया गया। कश्मीर के हालात न संभाल पाने और अलग-अलग मुद्दों पर घिरने के बाद 10 नवंबर 1990 को वीपी सिंह सरकार गिर गई और चंद्रशेखर के नेतृत्व वाली सरकार केंद्र में आई।

नरसिम्हा राव, 1992
कांग्रेस की तरफ से बाहर से समर्थन मिलने के बाद चंद्रशेखर ने पीएम रहते हुए महज सात महीने ही सरकार चलाई। चंद्रशेखर सरकार गिरने के बाद नरसिम्हा राव के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार सत्ता में आई। वरिष्ठ पत्रकार और द प्रिंट के संपादक शेखर गुप्ता के लेख के मुताबिक, जब नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने थे, तब कश्मीर के हालात संभालने काफी मुश्किल थे। यही हाल उस दौर में पंजाब का था, जो कि आतंकी गतिविधियों से प्रभावित रहा। गुप्ता के मुताबिक, राव ने दोनों ही राज्यों को नियंत्रण में लाने के लिए अपनी राजनीतिक समझ और बल का इस्तेमाल किया। जहां पंजाब में केपीएस गिल तो वहीं कश्मीर में भारतीय सेना के जरिए उन्होंने स्थितियों को नियंत्रण में लाने का काम किया।

कश्मीर में सख्त कदमों को उठाने की वजह से राव को उस दौर में अमेरिका के विरोध का भी सामना करना पड़ा। इसके अलावा पाकिस्तान की तत्कालीन पीएम बेनजीर भुट्टो ने भी जोर-शोर से अंतरराष्ट्रीय मंचों से कश्मीर के मुद्दे को उठाना जारी रखा। हालांकि, जब पाकिस्तान ने कश्मीर मुद्दे को यूएन में उठाने का फैसला किया, तब नरसिम्हा राव ने अपनी राजनीतिक चतुराई का परिचय देते हुए नेता प्रतिपक्ष अटल बिहारी वाजपेयी को भारत का प्रतिनिधि बनाकर भेजा। ये राव की दृढ़ता और वाजपेयी की वाकपटुता का ही कमाल था कि संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर के मुद्दे पर पाक को मुंह की खानी पड़ी थी।

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