ललितासहस्रनाम: मुम्बईया/पाश्चात्य फिल्मों की रिवर्स इंजीनियरिंग से चल जाएगा आपका काम फिल्मों की

ललितासहस्रनाम में हमको भारत की उपासनाओं का इतिहास दिख सकता है । योगदर्शन है , तो कुंडलिनी और षट्चक्र को लेकर कितने ही सूत्र ललितासहस्रनाम में यत्र-तत्र बिखरे हुए हैं , इतना ही नहीं याकिनी साकिनी आदि योगिनियों की परंपरा भी वहाँ है । अब आप वाक्‌ को देखें तो परा पश्यन्ती मध्यमा वैखरी का इतना विस्तार है ! अब आप वर्ण ,प्रकाश या आभा को लें तो कहीं सिन्दूरारुणी आभा है तो कहीं तडिल्लता समरुचि: हैं । अद्वैत-दर्शन तो मानो ललितासहस्रनाम का आधारभूत तत्त्वबोध है । संपूर्णता का सिद्धान्त ललितासहस्रनाम की गहराइयों में पेंठा हुआ है । शिवाशिव की रह:केलि के इतने सम्मोहक चित्र हैं ! ललिता कामेश्वरी है , राज्य तो ललिता का ही है , काम वहाँ चाकर है । ललित शब्द ही रति का वाचक है , ललितं रति चेष्टितम्‌ । सृष्टि के आविर्भाव और तिरोभाव के सिद्धान्त हैं , ऐसे अद्भुत बिंब ललितासहस्रनाम में हैं >> महातांडवसाक्षिणी । ललितासहस्रनाम में वैष्णव-सिद्धान्त भी हैं और बौद्ध-सिद्धान्त भी हैं । शिवशक्त्यैक-रूपिणी हैं तो शैव-सिद्धान्त की पीठिका ललितासहस्रनाम में है ही । वैदिक-सिद्धान्त हैं तो आगम भी ललितासहस्रनाम में उपस्थित हैं ही ।

✍🏻राजेंद्र रंजन चतुर्वेदी

ब्रह्मांड   पुराण में भगवान हयग्रीव और अगस्त्य मुनि की बातचीत का एक सन्दर्भ है जहाँ ललितासहस्रनाम आता है |

पहला नाम श्री माता है क्योंकि वो जगत की माता मानी जाती हैं | अब हज़ार नाम में तो कई सुन्दर नाम आते हैं, फिर ये भी ध्यान देने लायक है कि आगे पीछे वाले दोनों नामों को जोड़े में पढ़े तभी तात्पर्य समझ में आता है |

ऐसे में मेरा ध्यान दो नामों पर गया | एक है “अंतर्मुखा समाराध्या” और अगला नाम है “बहिर्मुखशु दुर्लभा” | पहले का मतलब है “जो अंतर्मन में, एकांत में अपने अन्दर पूजी जातीं हैं” और अगला ही नाम बताता है कि उनकी पूजा का सार्वजनिक प्रदर्शन उन्हें आपके लिए अनुपलब्ध कर देता है |

सादगी में भी श्रृंगार है तो पूजा में दिखावा जरा कम रखें |

लेकिन भारतवासी show off न करे तो कैसे चलेगा ? उसके लिए ऐसा करते हैं कि हम बुध को मंगल पे चलेंगें !!

इसका hidden benefit भी है वहां का साल 600+ दिन का होता है तो वो जो अभी कुछ साल से 25 पे अटकी हैं वो अचानक से 16 की हो जाएँगी !! क्रान्तिकारी आईडिया है भाई !! बहुत क्रान्तिकारी !! फिर दुनियाँ भी हमें देखेगी हम भी दुनियाँ को देखेंगे…

हे क… क… क… क… किरण! चलिए फिल्म तो आपने आसानी से पहचान ही ली होगी कि ये “डर” नाम की फिल्म है जो 1993 में सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्मों में से एक थी। इस फिल्म में शाहरुख खलनायक की भूमिका में था। सिर्फ किस्मत की बात थी कि उसे ये फिल्म मिल गयी। जो शाहरुख़ की राहुल वाली भूमिका थी वो पहले संजय दत्त को मिलने वाली थी। उसे जेल हो गयी तो इस भूमिका के लिए सुदेश बेरी को लेने की कोशिश की गयी, मगर वो स्क्रीन टेस्ट में रिजेक्ट कर दिए गए। फिर अजय देवगन से पूछा गया और दूसरी फिल्मों के काम के कारण उसने भी भूमिका नहीं स्वीकारी।

इसके बाद आमिर खान को ये रोल दिया गया। फिल्मों में अपने हिसाब से बदलाव करवाकर डायरेक्टर-प्रोड्यूसर को परेशान करने को कुख्यात आमिर खान को पहले तो ये शिकायत थी कि ये खलनायक ‘राहुल’  भला नायक से इतना पिटेगा क्यों? खलनायक घूंसे खाता है, नायक कम पिटता है , ये पता नहीं उसे क्यों नहीं सूझा। खैर, इसके बाद उसे फिल्म में दिव्या भारती लिए जाने से भी दिक्कत थी। फिल्मों में रोल मिलने में भाई-भतीजावाद कैसे काम करता है, इस पर अब सुशांत सिंह के जाने के बाद चर्चा खुलकर होने लगी है। उस दौर में दिव्या के बदले बाद में जूही चावला को लिया गया था।

नायिका भी एक बार में नहीं चुनी गयी थी। यश चोपड़ा नायिका को श्रीदेवी लेना चाहते थे। अगर “डर” में जूही के कपड़े और लहजा वगैरह देखें तो चांदनी/लम्हे की श्रीदेवी तुरंत याद आ जाएगी। श्रीदेवी पागल प्रेमिका बनना चाहती थीं और चोपड़ा राहुल का किरदार बदलना नहीं चाहते थे। इसलिए ये भूमिका पहले दिव्या भारती और फिर जूही के पास गयी। जो भूमिका सनी देओल ने निभाई, वो पहले ऋषि कपूर और जैकी श्राफ को दी गयी, उन्होंने इंकार कर दिया तो महाभारत में कृष्ण की भूमिका वाले नितीश भारद्वाज को लेने की कोशिश की गयी। सबके इनकार के बाद ये भूमिका सनी देओल को मिली थी।

फिल्म की कहानी तो खैर सबको मालूम ही है। आम भारतीय की मानसिकता के विरुद्ध ये फिल्म “प्यार में सब जायज है” को सही साबित करने की कोशिश करती है। इसका खलनायक राहुल अपने ही कॉलेज में पढ़ने वाली किरण से एकतरफा मुहब्बत करता है। वो जैसे तैसे हर वक्त किरण के करीब पहुँचने की कोशिश करता रहता है। किरण उसे घास नहीं डालती और एक नौसेना अधिकारी सुनील से शादी कर लेती है। राहुल फिर भी पीछा नहीं छोड़ता और सुनील की हत्या कर जबरन किरण को पाने की कोशिश करता है। अंततः नायक खलनायक की आमने-सामने की लड़ाई में खलनायक मारा जाता है। नायक-नायिका हंसी-ख़ुशी घर लौट आते हैं।

थोड़ा गौर करें तो पायेंगे कि इस फिल्म से पहले तक एकतरफा प्रेम प्रसंग में लड़की के चेहरे पर तेज़ाब फेंक देने जैसे वाकये आम नहीं थे। जबरन किसी लड़की के पीछे पड़ना बिलकुल निकृष्ट कोटि की हरकत मानी जाती थी।  90 के दशक में युवा रहे बता देंगे कि ऐसी हरकतों पर मित्र इत्यादि भी साथ नहीं देते थे। व्यक्ति समाज से बहिष्कृत हो जाता था। जैसे कई अपराधी हत्या-लूट आदि की योजना किसी फिल्म से प्रेरित होकर बनाते हैं वैसे ही इस दौर में “डर” जैसी फिल्मों का भी असर हुआ। अंग्रेजी की “केप फियर” और “स्लीपिंग विथ द एनिमी” जैसी फिल्मों से प्रेरित इन फिल्मों का असर समाज अब भी झेल रहा है।

अब जैसा कि हमारी आदतों से परिचित अधिकांश लोग जानते ही हैं हम “डर” जैसी फिल्मों के “एंटी-हीरो” को महिमामंडित करने वाली फिल्म की कहानी तो सुना नहीं रहे होंगे। हमारी रूचि बस ये याद दिला देने में थी, कि ऐसे खलनायकों को दुराचारी और निकृष्ट ही बताये जाने की परंपरा कहाँ रही है। इस बार धोखे से हमने “ललिता सहस्रनाम” के कुछ हिस्से सुना डाले हैं। जैसे उत्तरी भारत में “दुर्गा सप्तशती” के पाठ की परंपरा है, वैसे ही भारत के कई हिस्सों में “ललिता सहस्रनाम” का पाठ होता है। जैसे “दुर्गा सप्तशती” मार्कंडेय पुराण का हिस्सा है, वैसे ही “ललिता सहस्रनाम” ब्रह्माण्ड पुराण का हिस्सा है। भगवान विष्णु के हयग्रीव अवतार इसे अगस्त्यमुनि को सुनाते हैं और माना जाता है कि तमिलनाडु के थिरुमीयाचूर मंदिर में इसे सुनाया गया था।

ललिता सहस्रनाम का राक्षस भण्ड प्रेम के विकृत रूप का ही प्रतीक है। मदन-दहन यानी जब शिव ने कामदेव भस्म किया तो उस राख से चित्रकर्म नामक कलाकार ने मानवीय प्रतिमा बनाई। शिव पर कामदेव का कोई प्रभाव नहीं होने से निराश ब्रह्मा ने उस समय “भण्ड, भण्ड” उच्चारण किया जिससे उस जीवित हो उठी राक्षसमूर्ति का नाम भण्ड पड़ा। चित्रकर्म ने ही उस राक्षस को शिव के क्रोध से जन्म के कारण शिव उपासना को कहा। उसे बाली की तरह अपने विपक्षी की आधी शक्ति सोख लेने का वर मिला था। शिव के क्रोध से उपजने से उसकी शक्तियां तो विध्वंसक थी ही, वरदान मिलने से वो देवताओं को ही खदेड़कर खुद सब हथिया बैठा।

भण्ड  शोणितपुर से शासन करता था। शोणित का मतलब रक्त, या गहरा लाल रंग होता है। वासना को महिमामंडित करती दूसरी फ़िल्में जैसे रानी पद्मावती पर बनायी गयी अभी हाल की फिल्म देखेंगें, तो उसमें भी आपको चटख लाल रंग का भरपूर इस्तेमाल दिखेगा। वासना भाव दर्शाने को इस रंग का खूब इस्तेमाल होता है। ललिता देवी से विवाह को भगवान शिव ने कामेश्वर रूप धारण किया था। यहाँ विवाह को ललिता देवी की शर्त थी कि वो जो भी कहें या करें उसमें उन्हें स्वतंत्रता होगी, कोई रोकटोक नहीं होगी। स्त्री पर जबरन अधिकार जमाने को आतुर “डर”, या उसी दौर की “अग्निसाक्षी” जैसी फिल्मों की तुलना में ये ठीक उल्टा है।

ललिता देवी के भण्ड से युद्ध का समय देखेंगें तो उनके और अन्य शक्तियों के रथ भी “यंत्रों” और “मंडलों” के स्वरुप में हैं। ललिता देवी का रथ चक्रराज नौ भागों में बंटा था और उसके अलग- अलग भागों में अलग-अलग शक्तियां होती हैं। देवी की दो सेनानायिका मंत्रिणी और दंडनायिका (दंडनाथ) हैं और इनके रथों का विवरण भी कुछ ऐसा ही है। हिन्दुओं के लिए “काम” के अर्थ में पाने योग्य सभी वस्तुएं होती हैं, इसलिए दंडनाथ के हथियार हल और मुसल जैसे कृषि के औजार हैं। वहीँ दूसरी सेनानायिका मंत्रिणी के रथ के दूसरे भाग में प्रेम के भिन्न स्वरुप, रति, प्रीति और मनोज होते हैं।

ललिता सहस्रनाम कितना महत्वपूर्ण है ये अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि श्री औरोबिन्दो की “सावित्री” के पहले भाग का पूरा एक अध्याय (तीसरा) देवी के ललिता सहस्रनाम से काफी मिलता जुलता है। दूसरे तरीके से देखें तो किसी भी प्रयास में कैसी बाधाएं आती हैं, वो भी नजर आता है। जैसे असुरों में से एक देवी की सेना को आलस्य के वशीभूत कर रहा होता है। एक दूसरा सब कुछ अंधकार से ढक देता है। किसी भी बड़े काम को करते समय ‘चलो थोड़ी देर और सो लें’ का आलस्य भी होता है। फिर आधा काम होते – होते लगता है कि अब और हो ही नहीं सकता। कोई रास्ता ना सूझे ऐसा भी होता है।

बाकी तकनीक के मामले में कोई चीज कैसे बनी है, या काम कर रही है, ये समझने के लिए तोड़-फोड़ यानि “रिवर्स इंजीनियरिंग” इस्तेमाल करते हैं। फिल्मों और दूसरे माध्यमों से अगर कोई “नेगेटिव” चीज़ें सिखाई जा रही हों, तो उसे दोबारा उल्टा करके, दो नेगेटिव से एक पॉजिटिव बनाना चाहिए। इतनी “कलात्मक अभिव्यक्ति” की स्वतंत्रता तो सबको है ही!

✍🏻आनन्द कुमार

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