‘द कश्मीर फाइल्स’ में कट्टर इस्लामिक फैज की पंथक नज़्म…. ‘हम देखेंगें…’

The kashmir Files: ‘हम देखेंगे…’ नज्म की आत्मा में है कट्टरपंथी विचार- ‘हम देख लेंगे’

द कश्मीर फाइल्स (The kashmir files) में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की इस नज़्म से सेकुलरों और कट्टर इस्लामिकों के बीच के गठजोड़ को बेहतरीन तरीके से दिखा कर इसकी असलियत खोल दी है.

मैं हमेशा से इस नज़्म को कभी भी क्रांतिकारी गीत नहीं मानता रहा हूँ, बल्कि ये अपने कथ्य और भाव दोनों से एक इस्लामिक जेहादी सोच की नज़्म मानता रहा हूं जिसे लिबरल और वामी गैंग ने उसी तरह से हमें क्रान्ति का गीत बना कर पेश किया था जैसे ये औरंगजेब को सेकुलर बताते रहे थे.

the kashmir files, फैज़ अहमद फैज़

इसी गीत में वो लाइन भी है जिसमें फैज़ ने लिखा है कि

 बस नाम रहेगा अल्लाह का जो हाज़िर भी है नाज़िर भी

कश्मीर फाइल्स में इस गीत के आने के बाद मुझेे उन चंद तथाकथित ज़हीन लोगों की याद आ गई जिनका ब्लूप्रिंट हमेशा हमारे सामने आता रहा है, लेकिन हमने उन्हें कभी धर्मनिरपेक्षता के आधार पर तो कभी संविधान के आधार पर तो कभी गंगा- जमुनी तहज़ीब के आधार पर माफ किया है.

लेकिन क्या ये सोच नई है? क्या ईश्वर के नाम पर हमें पहली बार धमकाया गया है? नहीं! ये प्रवृत्ति पिछले 150 सालों से है. सर सैय्यद अहमद खान का मेरठ भाषण याद नहीं है तो पढ़िये उन्होंने 14 मार्च 1888 में मेरठ भाषण में क्या कहा था-

“हमारे पठान बंधु पर्वतों और पहाड़ों से निकलकर सरहद से लेकर बंगाल तक खून की नदियाँ बहा देंगे. अंग्रेज़ों के जाने के बाद यहाँ कौन विजयी होगा, यह अल्लाह की इच्छा पर निर्भर है. लेकिन जब तक एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को जीतकर आज्ञाकारी नहीं बनाएगा तब तक इस देश में शांति स्थापित नहीं हो सकती.”

ये वही सैयय्द अहमद खान हैं जिनके एक तथाकथित बयान को वामपंथी इतिहासकार बार-बार दोहरा कर उन्हें हिंदू मुस्लिम एकता का महान दूत बताते रहे हैं. शायद कभी कहीं उन्होंने यह कह दिया था कि हिंदू और मुस्लिम भारत की दो खूबसूरत आँखे हैं. लेकिन उनके मेरठ में दिये गए इस जहरीले भाषण पर सारा लिबरल गैंग अपने होठ सील लेते हैं.

फैज़ अहमद फैज़ भी वामपंथियों के लिए किसी मसीहा से कम नहीं हैं. उनके इस गीत को सभी वामपंथी बार-बार आंदोलनों में गाते रहे हैं- ये गीत है–

“हम देखेंगे… ये लाज़िम है कि हम भी देखेंगे…जब तख्त उछाले जाएँगे…जब ताज़ उछाले जाएंगे…”

लेकिन इसी गीत में वो लाइन भी है जिसमें फैज़ ने लिखा है कि

बस नाम रहेगा अल्लाह का…जो हाज़िर भी है नाज़िर भी.

इस आलोक में यह नज़्म कभी देखने की कोशिश ही नहीं की गई. वामपंथी घोर सांप्रदायिक भी हो सकता है,यह गीत ठीक से पढ़ इसका विश्लेषण करने के बाद ही पता चल सकता है .

पोस्ट लंबी होगी, लेकिन द कश्मीर फाइल्स में आये इस गीत के बाद इन नज़्म का शाब्दिक विश्लेषण बहुत जरुरी है. इस नज्म के लिए सामग्री कहाँ से ली गई है इसी से पता चल पाएगा कि आखिर वामपंथी फैज़ के मूल विचार कहाँ से आए थे?

क्या ये एक क्रांतिकारी बगावती नज़्म है या फिर सांप्रदायिक गीत है या फिर धार्मिक कविता है. सबसे पहले इसकी पहली चार लाइनों पर आते हैं-

हम देखेंगे, लाज़िम है कि हम भी देखेंगे

वो दिन कि जिसका वादा है,जो लोह-ए-अज़ल में लिखा है

 

इसमें फैज क्या देखने का वादा कर रहे हैं ? किस दिन को देखने का वादा कर रहे हैं?वो वादा क्या है? वो वादा कहां लिखा गया है? पवित्र कुरान शरीफ में तीन जो सबसे महत्वपूर्ण बातें इस्लाम का अंग मानी गई हैं वो हैं-

पहला – कोई ईश्वर नहीं है अल्लाह के सिवा- मतलब अगर आप मानते हैं कि भगवान या गॉड अल्लाह एक हैं तो अपने दिमाग से ये भ्रम निकाल दीजिए. अल्लाह ही है. ईश्वर अल्लाह नहीं है. ईश्वर और गॉड का वर्णन कुरआन शरीफ में अल्लाह के 99 नामों में कहीं नहीं है. इसलिए पहली लाइन ही है कि कोई नहीं है अल्लाह के सिवा. अल्लाह के साथ कोई शरीक नहीं हो सकता. कोई बुत नहीं, कोई अन्य संकल्पना नहीं.

दूसरा – हज़रत मोहम्मद साहेब अल्लाह के आखिरी पैगंबर हैं. इनके पहले कुरान शरीफ में लगभग 25 नबियों का उल्लेख है. लेकिन अल्लाह ने अपनी आखिरी किताब सिर्फ हज़रत पैगंबर साहेब पर रिवील की.

तीसरा – कयामत का दिन. ये अल्लाह का वादा है उन सभी ईमान लाने वाले मुसलमानों से कि न तो एक घड़ी पहले और न ही एक घड़ी बाद, एक दिन कयामत आएगी तब उसी दिन ईमान लाने वालों के हक में अल्लाह फैसला देगा और बाकी सभी जो ईमान नहीं ला पाए ( यानि दूसरे धर्मों के लोग या वो लोग जो इस्लाम में आकर भी ईमान से नहीं रहे ) उन सबको अल्लाह जहन्नुम में डालेगा और सभी मुसस्लल ईमान( पक्के ईमान) यानि मुसलमानों को जन्नत नसीब कराएगा. ये वादा है अल्लाह का अपने मोमीनों से.

‘जो लोह ए अजल’ में लिखा है.

ये लोह ए अज़ल है क्या?ये वो सनातन पन्ना है जिस पर अल्लाह ने सृष्टि निर्माण के प्रारंभ से लेकर कयामत तक का हरेक पल का हिसाब लिख दिया था.

तो हम हम इन चार लाइनों को दोबारा पढ़ते हैं तो फैज़ के मुताबिक वो अपने लोगों को अल्लाह के उस करार पर विश्वास करने को कह रहे हैं, जो उन्होंने पहले ही लिख दिया है. यानि अपना ईमान पक्का करने को कह रहे हैं.अब आगे की चार लाइनें कि कयामत के दिन क्या हालात होंगे और ईमान लाने वालों के खिलाफ जुल्मों सितम करने वालों का क्या हश्र होगा उसका वर्णन है-

जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गरांरुई की तरह उड़ जाएँगे

हम महकूमों के पाँव तलेये धरती धड़-धड़ धड़केगी

और अहल-ए-हकम के सर ऊपर जब

बिजली कड़-कड़ कड़केगी

पवित्र कुरआन शरीफ में कयामत के दिन का जो वर्णन है वो ठीक लगभग इसी प्रकार का है . कहा गया है कि उस दिन घने पहाड़ रुई की तरह उड़ने लगेंगे, जमीन के अंदर से धड़ -धड़ की आवाज़ आएगी और तारे बिखरने लगेंगे, समुद्र में उबाल आ जाएगा. आसमान में बिजलियां कड़कने लगेंगी. इसकी एक संभावित व्याख्या ये भी है कि जो जुल्मो सितम ईमान वालों को सालों तक झेलने पड़े हैं वो रुई की तरह उड़ जाएंगे, क्योंकि इसके बाद सारे दर्द खत्म हो जाएंगे और जन्नत नसीब होगी और फिर सारे कष्टों का अंत होकर वो हल्के हो जाएंगे.

हम हमकूमों के पांव तले जब धरती धड़ धड़ धड़केगी.

और अहल ए हकम के सर उपर जब बिजली कड़ कड़ कड़केगी.

अब महकूम यानि जो शासित हैं , जिन पर ताकतवर लोगों ने शासन किया है उनके पैरो के नीचे की जमीन कांपने लगेगी. और जो हाकिम हैं उनके ऊपर भी बिजली कड़केगी.

( फैज को अगर गरीबों, गुलामों को लेकर ये कविता लिखी होती तो गुलामों के पांव तले जमीन नही खिसकती सिर्फ हाकिमों या शासकों के ऊपर बिजली गिरा सकते थे. लेकिन कयामत के दिन अल्लाह के दरबार में सब बराबर हो जाएंगे. ये बिजली, धरती , आसमान सभी के ऊपर बराबर बरसेगी. यानि यहां तक ये गीत कुरआन शरीफ के बताये हुए कयामत के वर्णन पर ही चल रहा है

जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के काबे से

सब बुत उठवाए जाएँगे

हम अहल-ए-सफ़ा,मरदूद-ए-हरम

मसनद पे बिठाए जाएँगे

अब ऊपर की चार लाइनें देखते हैं. ‘जब अर्ज़ ए खुदा के काबे से सब बुत उठवाए जायेंगें’. सीधी बात है पवित्र कुरआन शरीफ मे बुतपरस्ती का निषेध है. बुतपरस्ती क्या इस्लाम में किसी भी दूसरे निराकार ईश्वर, नास्तिक और अल्लाह के सिवा किसी के सामने झुकने तक पर सख्त पाबंदी है.

माना जाता है कि काबे में पहले बहुत सारे बुत रखे हुए थे और उनको मानने वाले कबीलों के पुरोहित अपने कबीलों पर इन्ही बुतों के नाम पर शासन चलाते थे. ये पुरोहित इन कबीलों के बीच कभी एकता नहीं होने देते थे.हजरत मोहम्मद ने इन सब बुतों को तुड़वा ,मूर्तिपूजा खत्म कर एक अल्लाह की इबादत करना शुरु करवाया.

लेकिन फैज़ कह रहे हैं – बुत उठवाए जाएंगे. यानि अभी भी अर्ज़ ए खुदा के काबे में बुत हैं. फैज़ ही नहीं, इस्लाम के बड़े सभी जानकारों का मानना है कि इस्लाम के अंदर भी और इस्लाम के बाहर भी कई नए प्रकार के बुत पैदा हो गए. बुत यानि अल्लाह के सिवा किसी अन्य विश्वास के आधार पर लोगों पर धार्मिक राजनैतिक रुप से शासन करना .

इस्लाम में सभी मुसलमानों को बराबर का दर्जा दिया गया है. कोई व्यक्ति, चीज़ या स्थान भी जो अल्लाह के बंदों और उसके बीच बड़ा बनने की कोशिश करेगा वो बुत के समान माना जाएगा. अल्लमा इकबाल ने राष्ट्र या वतन को भी एक बुत का दर्ज़ा दिया है, जिसे खत्म करना जरुरी है ,क्योकि इस्लाम में वतन से बड़ी कौम है और पूरे विश्व के मुसलमान एक हैं – अल्लमा इकबाल का ये शेर है-

इन ताजा खुदाओं में बड़ा वतन है

जो पैरहन है इसका वो मजहब का कफन है.

(मतलब वर्तमान के जो सबसे ताजे सो कॉल्ड खुदा हैं उसमें वतन का कांसेप्ट सबसे बड़ा है और ये उनके मजहब के लिए कफन के समान है).

अब वापस फैज़ की लाइनो पर आते हैं. फैज़ कहते हैं ‘हम अहले सफा’…अर्थात शुद्ध ईमान लाने वाले लोग…जिन्हें ‘ मरदूद ए हरम’ यानि जिन्हें उनके सबसे पाक या पवित्र स्थानों से दूर कर दिया गया वो कयामत के बाद मसनद पर बिठाए जाएंगे. ये पवित्र स्थान इजराइल भी हो सकता है, जहां से मुसलमानों को यहूदियों ने निकाल दिया था. ये मक्का भी हो सकता है जिस पर वो लोग शासन करने लगे हैं जो इस्लाम की बुनियादी विचारों से दूर हो चुके हैं और असली ईमान लाने वालों को दूर कर दिया गया है.

फैज़ ही नहीं, इस्लाम को मानने वाला हरेक शख्स इज़रायल में अपने पवित्र स्थानों को दोबारा पाना चाहता है.

सब ताज उछाले जाएँगे सब तख़्त गिराए जाएँगे

‘सब ताज उछाले जाएंगें’ पर ही क्रांतिकारी उछलने लगते हैं कि ये तो क्रांति का गीत है. अजी नहीं. इस्लाम में सभी बराबर है. कयामत के दिन राजा और रंक सभी बराबर हो जाएंगे. सालों तक जो ईमान वाले लोग दबे रहे, कयामत के दिन वही अपने ईमान वाले कर्मों की वजह से जन्नत में मसनद पर बिठाए जाएंगे.

ये वादा है अल्लाह का अपने नेक बंदों से कि वो संसार में अल्लाह के लिए ईमान लाने के लिए जिन लोगों से भी लड़े चाहे वो राजा हों या काफिर, इन ईमान वालों को ही ईनाम मिलेगा और बाकियों को सजा मिलेगी.

बस नाम रहेगा अल्लाह का

जो ग़ायब भी है हाज़िर भी

जो मंज़र भी है नाज़िर भी

ऊपर की चार लाइनें बताती है कि कयामत के बाद सिर्फ अल्लाह का नाम रहेगा. किसी भी और विश्वास का अंत हो जाएगा. वो अल्लाह जो गायब भी है हाजिर भी .एक और अर्थ है कि कयामत के दिन जब कोई अपने ईश्वर या बुत का नाम लेगा तो उसकी कोई सुनवाई नही होगी सिर्फ अल्लाह का नाम लेने वाले ही इंसाफ के हकदार होंगें. जब अल्लाह लोगों से पूछेगा कि क्या तुम सच्चे हो .. ईमान वाले हो.. तो वहां ईमान वालों की तरफ से अन- अल -हक का नारा उठेगा.

उठेगा अन-अल-हक़ का नारा

जो मैं भी हूँ और तुम भी हो

और राज़ करेगी खल्क-ए-ख़ुदा

जो मैं भी हूँ और तुम भी हो

अन-अल-हक.. का मूल अरबी में अर्थ होता है कि ‘मैं सच्चा हूं’.. इसका अंह ब्रम्हास्मि से कोई लेना देना नहीं है. ये अपने सच्चे होने की अल्लाह के सामने गवाही है. ये सिर्फ अल्लाह के सामने बोला जाएगा. लेकिन 8वीं सदी के  सूफी मंसूर अल हल्लाज़ ने यह पहले से ही कहना शुरु कर खुद को सच्चा घोषित कर दिया . लेकिन आप खुद को सच्चा घोषित नहीं कर सकते . सिर्फ अल्लाह के सामने गवाही दे सकते है. आप सच्चे हैं कि नहीं, ये तय करना अल्लाह के ऊपर है. इसीलिए मंसूर के हाथ – पैर काट डाले गए। उसे बुरी मौत दी गई .

खैर, फैज़ यहां कयामत के उस पल का वर्णन कर रहे हैं कि चूंकि तुम्हारे और हमारे पास अल्लाह के प्रति ईमान है सो हम खुद के सच्चे होने की गवाही देंगे. इसके बाद राज़ करेगी खल्क ए- खुदा. खल्क ए खुदा का अर्थ है- खुदा के लोग . ये लोग कौन हैं जो ईमान लेकर आए. वो नहीं जो जहन्नुम में रहेंगे. इसके बाद सिर्फ इस्लाम पर ईमान लाने वाले लोगों का राज चलेगा. जो फैज भी है और बाकि सच्चे ईमान लाने वाले मुसलमान भी हैं.

अब इसी आलोक में आप सर सैयय्द अहमद खान से लेकर द कश्मीर में नरसंहार करने वालों में देख सकते हैं जिन्हें भरोसा था कि अल्लाह उन लोगों को सज़ा देगा जो उनके विरोधी हैं. उन लोगों को नेस्तनाबूद कर देगा जो  इनके सामने विरोध में खड़े रहे.

यही वजह है कि चाहे सीएए के आंदोलन में ‘हिंदुत्व तेरी कब्र खुदेगी ईंशाल्लाह ईंशाल्लाह’ के नारे हों या फिर कश्मीर में हिंदुओं के नरसंहार का मामला हो , ये कभी संविधान की आड़ लेकर तो कभी तथाकथित हिंदू सांप्रदायिकता का सहारा लेकर , सभी निज़ामे मुस्तफा और दारुल इस्लाम की स्थापना की बात ही करते हैं. ऐसे देश की जिसमें काफिरों को अल्लाह सज़ा देगा.

द कश्‍मीर फाइल्स में कुछ यूं गाई गई है फैज की नज्म:

 

लेखक
अजीत कुमार मिश्रा @ajitmishra78
लेखक पूर्व पत्रकार हैं और संस्था ShudhSanatan.org के फाउंडर हैं.

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