कडुवा सच: भारत ने ही चीन को बनवाया था संरा सुरक्षा परिषद का स्थाई सदस्य

चीन ने किया था भारत पर अटैक, फिर संयुक्‍त राष्‍ट्र में दुश्‍मन को सपोर्ट क्‍यों? नेहरू की बहन ने बताई थी वजह

चीन की आक्रामकता का जिक्र आते ही देश के पहले पीएम जवाहर लाल नेहरू का नाम अपने आप आ जाता है। ऐसा एक बार फिर हुआ है। जैसे ही विपक्ष ने तवांग में चीन के दुस्‍साहस पर चुप्‍पी को लेकर निशाना साधा। सरकार ने विपक्ष को नेहरू की नीतियों की याद दिला दी।

हाइलाइट्स
1-तवांग में चीन की आक्रामकता पर पक्ष-विपक्ष आमने-सामने
2-संयुक्‍त राष्‍ट्र में चीन की स्‍थायी सदस्‍यता का भारत ने किया था समर्थन
3-नेहरू की बहन विजय लक्ष्‍मी पंडित ने तब बताया था इसका कारण

नई दिल्‍ली14 दिसंबर: 1962। भारत को चीन ने अपना रंग दिखाया था। एक महीने की जंग में उसने सब कुछ ताक पर रख दिया था। न उसने रिश्‍ते देखे न भरोसा। प्रधानमंत्री नेहरू की विदेश नीति के लिए यह सबसे बड़ा झटका था। 20 अक्‍टूबर से एक महीने तक चले इस युद्ध में भारत ने कभी न मिटने वाला दर्द झेला था। खुद नेहरू ने माना था कि चीन के इरादे नेक नहीं हैं। वह दुनिया को दिखाना चाहता है कि क्षेत्र में सिर्फ वही एक पावर है। हालांकि, इसके बाद भी संयुक्‍त राष्‍ट्र में स्‍थायी सदस्‍यता के लिए तत्‍कालीन भारत सरकार ने दुश्‍मन का सपोर्ट किया था। जो देश हमारी जमीन कब्‍जा करना चाहता हो, जो आए दिन हमें आंख दिखाता हो, जिसकी गद्दारी का नमूना हम कई बार देख चुके हों, आखिर उसका सपोर्ट तब हमने क्‍यों किया था? इस पर नेहरू की बहन विजय लक्ष्‍मी पंडित ने तब एक बयान दिया था। इसमें उन्‍होंने बताया था कि चीन को सपोर्ट करने के पीछे क्‍या वजह थी?

आज चीन पर चर्चा फिर गर्म है। अरुणाचल प्रदेश में तवांग सेक्टर के यांग्त्से इलाके में नौ दिसंबर को चीन की आक्रामकता देखने को मिली। भारतीय सैनिकों ने चीनियों के दांत खट्टे कर दिए। लेकिन, खतरा टला नहीं है। उसकी आज से नहीं सालों से तवांग पर नजरें हैं। इस बीच पक्ष और विपक्ष में तकरार शुरू हो गई है। जैसे ही विपक्ष ने इस पूरे मुद्दे पर सरकार की चुप्‍पी पर निशाना साधा। सरकार ने विपक्ष को आईना दिखा दिया। गृह मंत्री अमित शाह ने यह भी कहा कि नेहरू प्रेम के कारण सुरक्षा परिषद में भारत की स्‍थायी सदस्‍यता की बलि चढ़ी। उन दिनों की बातें दोहराई जानें लगीं। चीन का जिक्र आते ही नेहरू का नाम अपने आप आ जाता है। जिस चीन ने हमें तब युद्ध की आग में जलाया था, आखिर हमने उसे संयुक्‍त राष्‍ट्र में मजबूत क्‍यों होने दिया? यह वही चीन है जिसने पिछले कुछ सालों में कई बार सुरक्षा परिषद में भारत के प्रस्‍ताव पर वीटो किया। चीन संयुक्‍त राष्‍ट्र सुरक्षा परिषद में स्‍थायी सदस्‍य है।

भारत पर चीन के हमले के बावजूद सुरक्षा परिषद में स्‍थायी सदस्‍यता के लिए तत्‍कालीन सरकार ने उसका समर्थन किया था। तब नेहरू की बहन विजय लक्ष्‍मी पंडित ने इसका कारण भी बताया था। उन्‍होंने एक प्रेस कॉन्‍फ्रेंस में बताया था कि यह सिद्धांतों का मामला है। रिश्‍तों से इसका कोई लेना-देना नहीं है। उन्‍होंने कहा था संयुक्‍त राष्‍ट्र में चीन की स्‍थायी सदस्‍यता का भारत समर्थन करने के लिए तैयार है। नेहरू की बहन मानती थीं कि यह सही नहीं होगा कि कोई वैश्विक संगठन ऐसा बने जिसमें दुनिया की बड़ी आबादी का प्रतिनिधित्‍व न हो

China Attacked Still India Supported Un Seat For China Vijaya Lakshmi Pandit Told Reason

शशि थरूर,अरुण जेटली और  अमित शाह के दावे

अरुणाचल प्रदेश में तवांग सेक्टर के यांग्त्से इलाक़े में नौ दिसंबर को चीनी और भारतीय सैनिकों की झड़प के बाद दो दिनों तक सरकार की चुप्पी को लेकर विपक्ष आक्रामक है.

मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस समेत बाक़ी की पार्टियाँ सवाल पूछ रही हैं कि सरकार दो दिनों तक चुप क्यों रही.

हालाँकि मंगलवार को रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने संसद में सरकार का पक्ष रखा तो गृह मंत्री अमित शाह ने पूरे मामले में कांग्रेस के रुख़ पर ही सवाल उठाए.

अमित शाह ने चीन को लेकर कांग्रेस की नीति पर सवाल उठाए और भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को भी घेरा.

अमित शाह ने यहाँ तक कह दिया कि नेहरू जी के प्रेम के कारण सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता बलि चढ़ गई. लेकिन क्या ऐसा है कि नेहरू के कारण भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता नहीं मिली थी?

क्या नेहरू ने यूएन की सुरक्षा परिषद में भारत के बदले चीन को सीट दे दी थी
चीन ने पिछले वर्षों में कई बार सुरक्षा परिषद में भारत के प्रस्ताव को वीटो किया है. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में चीन स्थायी सदस्य है.

भारत चीन के इस रुख़ पर निराशा जताता रहा है तो मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस इसके लिए मोदी सरकार पर निशाना साधती रही है.

बीजेपी कांग्रेस के रुख़ पर आपत्ति जताती रही है.

पूर्व क़ानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने एक बार अपनी प्रेस कॉन्फ़्रेंस में नौ जनवरी 2004 की ‘द हिन्दू’ की एक रिपोर्ट की कॉपी दिखाते हुए कहा कि भारत के पहले प्रधानमंत्री नेहरू ने संयुक्त राष्ट्र में सुरक्षा परिषद की सीट लेने से इनकार कर दिया था और इसे चीन को दिलवा दिया था.

द हिन्दू की रिपोर्ट में कांग्रेस नेता और संयुक्त राष्ट्र में अवर महासचिव रहे शशि थरूर की किताब ‘नेहरू- द इन्वेंशन ऑफ़ इंडिया’ का हवाला दिया गया है.

इस किताब में शशि थरूर ने लिखा है कि 1953 के आसपास भारत को संयुक्त राष्ट्र के सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्य बनने का प्रस्ताव मिला था लेकिन उन्होंने चीन को दे दिया.

थरूर ने लिखा है कि भारतीय राजनयिकों ने वो फ़ाइल देखी थी जिस पर नेहरू के इनकार का ज़िक्र था. थरूर के अनुसार नेहरू ने यूएन की सीट ताइवान के बाद चीन को देने की वकालत की थी

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दरअसल, रविशंकर प्रसाद यह कहना चाह रहे थे कि आज अगर चीन यूएन की सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्य है तो नेहरू के कारण और उसी का ख़ामियाजा भारत को भुगतना पड़ रहा है.

अब यही आरोप केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने दोहराया है.

हालाँकि कई लोग मानते हैं कि जो इस बात को लेकर नेहरू की आलोचना करते हैं वो कई अन्य तथ्यों की उपेक्षा करते हैं. संयुक्त राष्ट्र 1945 में बना था और इसे जुड़े संगठन तब आकार ही ले रहे थे.

1945 में सुरक्षा परिषद के जब सदस्य बनाए गए, तब भारत आज़ाद भी नहीं हुआ था.

27 सितंबर, 1955 को नेहरू ने संसद में स्पष्ट रूप से इस बात को ख़ारिज कर दिया था कि भारत को सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्य बनने का कोई अनौपचारिक प्रस्ताव मिला था.

27 सितंबर, 1955 को डॉक्टर जेएन पारेख के सवालों के जवाब में नेहरू ने संसद में कहा था, ”यूएन में सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य बनने के लिए औपचारिक या अनौपचारिक रूप से कोई प्रस्ताव नहीं मिला था. कुछ संदिग्ध संदर्भों का हवाला दिया जा रहा है जिसमें कोई सच्चाई नहीं है. संयुक्त राष्ट्र में सुरक्षा परिषद का गठन यूएन चार्टर के तहत किया गया था और इसमें कुछ ख़ास देशों को स्थायी सदस्यता मिली थी. चार्टर में बिना संशोधन के कोई बदलाव या कोई नया सदस्य नहीं बन सकता है. ऐसे में कोई सवाल ही नहीं उठता है कि भारत को सीट दी गई और भारत ने लेने से इनकार कर दिया. हमारी घोषित नीति है कि संयुक्त राष्ट्र में सदस्य बनने के लिए जो भी देश योग्य हैं उन सबको शामिल किया जाए.’

पूर्व वित्त मंत्री अरुण जेटली ने भी एक बार जवाहरलाल नेहरू को संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट के लिए चीन का समर्थन करने का गुनाहगार बताया था.

उस समय जेटली का कहना था कि नेहरू ने भारत के बजाय चीन का समर्थन किया था. जेटली ने कहा था कि चीन और कश्मीर पर एक ही व्यक्ति ने बड़ी ग़लती की. अरुण जेटली ने ट्वीट कर दो अगस्त 1955 को नेहरू की तरफ़ से मुख्यमंत्रियों को लिखे चिट्ठी का हवाला दिया था.

जेटली ने अपने ट्वीट में लिखा था, ”दो अगस्त, 1955 को नेहरू ने मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखा था. इस पत्र में नेहरू ने कहा था- अमरीका ने अनौपचारिक रूप से कहा है कि चीन को संयुक्त राष्ट्र में लेना चाहिए न कि सुरक्षा परिषद में. सुरक्षा परिषद में भारत को जगह मिलनी चाहिए. ज़ाहिर है हम इसे स्वीकार नहीं कर सकते. चीन का सुरक्षा परिषद में नहीं होना उसके साथ नाइंसाफी होगी.”

क्या है इतिहास?

कहा जाता है कि 1950 के दशक में, भारत संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में चीन को शामिल किए जाने का एक बड़ा समर्थक था. तब यह सीट ताइवान के पास थी.

1949 में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना के उद्भव के बाद से, चीन का प्रतिनिधित्व च्यांग काई-शेक के रिपब्लिक ऑफ़ चाइना का शासन करता था, न कि माओं का पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना. संयुक्त राष्ट्र ने पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना को यह सीट देने से इनकार कर दिया था.

शशि थरूर ने अपनी किताब में लिखा है कि भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ही थे जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र में स्थायी सदस्य बनाए जाने को लेकर पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना की वकालत की.

नेहरू ने पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना का समर्थन किया?

कुछ लोगों का मानना है कि नेहरू ने 1950 के दशक में दोनों देशों के बीच तनातनी के मद्देनज़र माओ को ख़ुश करने के लिए ऐसा किया था.

दूसरों का तर्क है कि एशियाई देशों के बीच एकजुटता के लिए नेहरू ने अति उत्साह में दांव ग़लत जगह लगा दी क्योंकि दोनों देशों के इतिहास को देखने पर यह पता चलता है कि चीन और भारत इस ऐतिहासिक यात्रा में साथी रहे हैं.

मौटे तौर पर, कई लोग इसे आदर्शवाद और अंतरराष्ट्रीय संबंधों की हक़ीक़त को लेकर नेहरू के मूल्यांकन में कमी के तौर पर देखते हैं. उनका मानना है कि ताक़त मायने रखती है और इसके लिए समझदारी से काम लेने की ज़रूरत होती है.

द डिप्लोमैट ने अपनी एक रिपोर्ट में लिखा है, ”हालांकि जिन लोगों ने यह तर्क दिया वो संयुक्त राष्ट्र में पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना को समर्थन देने के पीछे नेहरू के कारणों को जानने में असफल रहे हैं. उन्हें यह नहीं पता कि नेहरू इतिहास के बारे में बहुत पढ़ते थे और राष्ट्रों के बीच शक्ति का संतुलन उनके लिए काफ़ी महत्वपूर्ण था.

संयुक्त राष्ट्र में भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू

द डिप्लोमैट ने लिखा है, ”नेहरू के रुख़ को समझने के लिए 20वीं सदी में जाना पड़ेगा. उस समय की राजनीति से नेहरू ने यह माना कि बड़ी शक्तियों को अपने मित्रों से दूर नहीं रहना चाहिए बल्कि उन्हें अंतरराष्ट्रीय संगठनों में शामिल किया जाना चाहिए.”

नेहरू का मानना था कि प्रथम विश्व युद्ध के बाद जर्मनी के साथ ग़लत व्यवहार किया गया और अपमान की भावना और बहिष्कार ने उसे एक और असंतुष्ट देश यूएसएसआर के क़रीब ला दिया.

नेहरू इस बात को लेकर स्पष्ट थे कि पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना कोई साधारण शक्ति नहीं है.

द डिप्लोमैट में साउथ एशियन यूनिवर्सिटी में डिपार्टमेंट ऑफ़ इंटरनेशनल के असिस्टेंट प्रोफ़ेसर नबारुण रॉय ने लिखा है, ”अप्रैल 1922 में जर्मनी ने रूस के साथ रापालो संधि पर हस्ताक्षर किया, जिससे यूरोप में तनाव बढ़ गया. लेकिन ब्रिटेन ने समय रहते ही उसे 1926 में लीग ऑफ़ नेशन का सदस्य बनाने में मदद की. इसके बावजूद ग्रेट डिप्रेशन ने इसे वैश्विक स्थिरता के लिए फिर से ख़तरा बना दिया. नेहरू को यह स्पष्ट था कि पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना कोई साधारण शक्ति नहीं है. लिहाज़ा उसे वैश्विक राजनीति में समायोजित किया जाना चाहिए क्योंकि अगर ऐसा नहीं किया गया तो वो बाद में वो अप्रत्याशित तरीक़े से ख़तरनाक बन सकता है. ये वो सबसे बड़ा तर्क था जिसने सुरक्षा परिषद में चीन की स्थायी सदस्यता पर नेहरू के रुख़ की अगुवाई की.”

रॉय ने लिखा है, ”नेहरू का मानना था कि “नए चीन की वजह से न केवल पूरब में बल्कि पूरी दुनिया में शक्ति संतुलन बदल गया है. इसलिए विश्व राजनीति में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना को समायोजित नहीं करना न केवल मूर्खता है बल्कि ख़तरनाक भी है. नेहरू उनका मानना था कि यदि संयुक्त राष्ट्र से पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना को बाहर रखा गया तो यूएन के फ़ैसलों का चीन पर कोई असर नहीं पड़ेगा.”

भारत की चाहत

अंतरराष्ट्रीय संबंधों में कहा जाता है कि जैसे-जैसे कोई देश ताक़तवर बनता जाता है, उसकी महत्वाकांक्षा भी बढ़ती जाती है.

भारत भी इस मामले में अलग नहीं रहा है. हाल के दिनों में इसकी सैन्य और आर्थिक शक्ति बढ़ी है, ऐसे में विश्व राजनीति में बड़ी भूमिका निभाने को लेकर उसकी चाहत भी बढ़ी है.

इन्हीं में से एक है कि पिछले कुछ दिनों से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट को लेकर भारत लगातार मांग कर रहा है.

भारत के नेताओं ने संयुक्त राष्ट्र महासभा समेत दुनिया भर के विभिन्न मंचों पर इसके लिए पुरजोर कोशिशें की हैं ताकि अंतरराष्ट्रीय समुदायों के सामने बतौर स्थायी सदस्य भारत की योग्यता जताई जाए.

इन प्रयासों के परिणाम भी पूरी तरह निराशाजनक नहीं रहे हैं. अमरीका, ब्रिटेन, फ़्रांस और रूस जैसे प्रमुख शक्तिशाली देशों ने भारत की सदस्यता को लेकर कई मौक़ों पर अपना समर्थन जताया है.

हालांकि, चीन इसका सख़्त विरोधी रहा है. हाल के घटनाक्रमों को देखते हुए यह आश्चर्यजनक भी नहीं है क्योंकि कुछ मौक़ों पर दोनों देशों की बीच संबंध में तल्खी आई है.

दोनों एक लंबी विवादित सीमा को साझा करते हैं और 2017 में ही में दोनों देशों के बीच डोकलाम में गतिरोध और फिर युद्ध-विराम जैसी स्थिति पैदा हुई थी.

भारत और चीन दक्षिण एशियाई और हिंद महासागर क्षेत्रों में पैर टिकाने की रणनीतिक ठिकानों को तलाशने में लगे हैं.

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