सेल डीड,लीज डीड,सब लीज,पावर आफ अटार्नी? संपत्ति खरीद में क्या होनी चाहिए सावधानी

What Are Sale Deed Lease Deed And Sublease Of Property Know These Important Things Before Buying A House
क्या होती है प्रॉपर्टी की सेल डीड, लीज डीड और सबलीज? मकान खरीदने से पहले जान लें ये जरूरी बातें

मकान या जमीन खरीदने से पहले कई बातों का ध्यान रखना बेहद जरूरी होता है। प्रॉपर्टी चाहे किसी भी जगह की क्यों न हो, उसे खरीदते या बेचते समय कई चीजों का ध्यान रखना पड़ता है। बता दें कि प्रॉपर्टी की कहीं सेल डीड, कहीं लीज डीड तो कहीं सबलीज बनती है।

अक्सर खरीदारों के पैसे को बिल्डर दूसरे प्रोजेक्ट में लगा देते हैं
मुख्य बिंदु
प्रॉपर्टी की कहीं सेल डीड, कहीं लीज डीड तो कहीं सबलीज बनती है
पावर ऑफ अटॉर्नी कभी भी कोर्ट में एक मजबूत सबूत नहीं होती
खरीदार को सबसे ज्यादा दिक्कत प्रॉजेक्ट्स में देरी से होती है
नई दिल्ली 31 अगस्त: दिल्ली-एनसीआर की बात हो या फिर मुंबई या लखनऊ की। घर या जमीन खरीदते या बेचते वक्त प्रॉपर्टी की कहीं सेल डीड बनती है तो कहीं लीज डीड तो कहीं सबलीज। ऐसे में सवाल उठता है कि इनमें फर्क क्या है और कौन-सी डीड सबसे बेहतर मानी जाती है। घर खरीदने से पहले किस-किस तरह की जानकारी जरूरी है? बता दें कि किसी फ्लैट में निवेश करने से पहले यह देख लें कि जिस जमीन पर सोसायटी बन रही है, वह जमीन लीज होल्ड (सिर्फ पावर ऑफ अटॉर्नी, इसे पट्टे पर देना भी कहते हैं) वाली है या सबलीज या फिर सेल डीड (रजिस्ट्री) वाली।
अगर लीज होल्ड वाली है तो यह भी जान लें कि लीज कितने बरसों के लिए दी गई है। अगर 10 बरसों के लिए है तो यह भी मुमकिन है कि बिल्डर घर बनाकर चला जाए और बाद में लीज बढ़वाने का खर्च खरीदार पर आ जाए। साथ ही यह भी देखना जरूरी है कि लीज के बदले में जो चार्ज संबंधित अथॉरिटी ने लगाया था, बिल्डर ने वह चुकाया है या नहीं।
इन बातों का रखें ध्यान
बता दें कि पावर ऑफ अटॉर्नी कभी भी कोर्ट में एक मजबूत सबूत नहीं होती। फिर चाहे घर में बिजली कनेक्शन हो या कोई दूसरे सबूत ही क्यों न हों, जमीन पर मालिकाना हक के लिए काफी नहीं हैं। यह भी जानना जरूरी है कि बिल्डर को संबंधित अथॉरिटी ने OC (ऑक्यूपेशनल सर्टिफिकेट) दिया है या नहीं। अगर बिल्डर को यह सर्टिफिकेट नहीं मिला है और गलत तरीके से बिजली आदि का कनेक्शन जोड़ा गया है तो बंद भी किया जा सकता है।
किसी ने ऐसे डिवेलपर्स के पास निवेश किया है जो रेरा के तहत रजिस्टर्ड नहीं है तो यह खरीदार के ही रिस्क पर है। ऐसे बिल्डर ने अगर फ्लैट समय पर नहीं दिया या ले-आउट बदल दिया तो उसके खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़ना बहुत मुश्किल हो जाएगा। अगर प्लॉट सरकार बेच रही है या कोई प्राइवेट बिल्डर और उस प्लॉट पर रेरा का नंबर मिला हुआ है तो फंसने की गुंजाइश न के बराबर है।
प्रॉपर्टी ट्रांसफर के तरीके
सेल डीड (रजिस्ट्री): अगर किसी शख्स को प्रॉपर्टी खरीदने का विकल्प मिले तो उसे पहली प्राथमिकता सेल डीड वाली प्रॉपर्टी को ही देनी चाहिए। यह प्रॉपर्टी स्टांप पेपर पर खरीदी और बेची जाती है। इसमें मालिकाना हक पूरी तरह ट्रांसफर होता है। साथ ही रजिस्ट्री ऑफिस में इसकी रजिस्ट्री भी होती है। दाखिल खारिज (शहरों में म्यूनिसपल कॉरपोरेशन में प्रॉपर्टी के लिए रसीद कटती है) कराना होता है। इसे सुप्रीम कोर्ट ने भी सबसे बेहतर तरीका माना है।
लीज डीड/सबलीज: देश में कई ऐसे एरिया भी हैं जहां पर प्रॉपर्टी कुछ वर्षों से लेकर 99 साल तक के लिए लीज पर दी जाती है। अपने देश के कई भागों में इसी तरह से प्रॉपर्टी की खरीद-बिक्री हो रही है। बेचने से पहले वहां की अथॉरिटी से परमिशन भी लेनी पड़ती है। कई बार सरकारें लीज और सबलीज वाली प्रॉपर्टी को सेल डीड वाली प्रॉपर्टी बनाने के लिए ऑफर निकालती हैं। इसमें प्रति वर्ग फुट या फिर प्रति यार्ड के हिसाब से शुल्क देकर प्रॉपर्टी को सेल डीड वाली प्रॉपर्टी में बदला जा सकता है।
अमूमन 3 तरह की जमीन
1. फ्रीहोल्ड वाली जमीन
कोर्ट में इस तरह से खरीदी गई जमीनों को सबसे वैध माना जाता है। इसकी वजह यह है कि इसमें प्रॉपर्टी की रजिस्ट्री स्टांप पेपर पर होती है। सरकार को रेवेन्यू दिया जाता है और सरकार इस पर जमीन के नए मालिक का नाम लिख लेती है। जमीन की रजिस्ट्री हो रही है तो इसका सीधा-सा मतलब है कि जमीन की पुरानी हिस्ट्री यानी जमीन के लगभग सभी पुराने मालिकों के बारे में सरकार को पता है और उसका सबूत है।

2. लाल डोरा की जमीन
ये ऐसे इलाके (ज्यादातर गांवों में) होते हैं जिनका इतिहास सरकार को पता नहीं होता। अमूमन स्थानीय लोग ही जानकारी के स्रोत होते हैं कि वह जमीन पहले किसकी थी और फिर उसे कब बेचा गया। दिल्ली में भी यमुना किनारे वाले कई इलाके हैं।
3. कृषि योग्य जमीन
घर तो कहीं भी बनाया जा सकता है, लेकिन घर बनाने के बाद कानूनी मामलों में नहीं उलझना है तो यह देखना चाहिए कि घर कृषि योग्य भूमि पर तो नहीं बना है। अगर ऐसा है तो उसे रिहाइशी बनाने के लिए सरकार से गुजारिश जरूर करनी चाहिए। अगर इस तरह की जमीन में निवेश करने जा रहे हैं तो संबंधित अथॉरिटी में जमीन का खाता-खसरा नंबर से पता कर सकते हैं कि किस तरह की जमीन है।

रेरा है आपकी सेफ्टी के लिए
1. प्रोजेक्ट रजिस्ट्रेशन जरूरी: बिल्डर के लिए रेरा में रजिस्ट्रेशन कराना जरूरी है। खरीदार उसी प्रोजेक्ट में फ्लैट, प्लॉट या दुकान खरीदें, जो रेग्युलेटरी अथॉरिटी में रजिस्टर्ड हो। बिल्डर को अपना प्रोजेक्ट स्टेट रेग्युलेटरी अथॉरिटी में रजिस्टर करना होगा। साथ में प्रोजेक्ट से जुड़ी सभी जानकारी देनी होगी। देश के ज्यादातर राज्यों में रेरा का गठन किया गया है।
2. जेल की सजा: अगर बिल्डर किसी खरीदार से धोखाधड़ी या वादाखिलाफी करता है तो खरीददार इसकी शिकायत रेग्युलेटरी अथॉरिटी से कर सकेगा।
3. सरकारी प्रोजेक्ट भी दायरे में: प्राइवेट बिल्डर या डिवेलपर ही नहीं, हाउसिंग और कमर्शल प्रोजेक्ट बनाने वाले डीडीए, जीडीए जैसे संगठन भी इस कानून के दायरे में आएंगे यानी अगर डीडीए भी वक्त पर फ्लैट बनाकर नहीं देता तो उसे भी खरीदार को जमा राशि पर ब्याज देना होगा। यही नहीं, कमर्शल प्रोजेक्ट्स पर भी रियल एस्टेट रेग्युलेटरी कानून लागू होगा।
4. पांच साल तक जिम्मेदारी बिल्डर की: अगर बिल्डर कोई प्रोजेक्ट तैयार करता है तो उसके स्ट्रक्चर (ढांचे) की पांच साल की गारंटी होगी। अगर पांच साल में स्ट्रक्चर में खराबी पाई जाती है तो उसे दुरुस्त कराने का जिम्मा बिल्डर का होगा।
5. प्रोजेक्ट में देरी पर लगाम: खरीदार को सबसे ज्यादा दिक्कत प्रॉजेक्ट्स में देरी से होती है। अक्सर खरीदारों के पैसे को बिल्डर दूसरे प्रोजेक्ट में लगा देते हैं, जिससे पुराने प्रोजेक्ट लेट हो जाते हैं। रेरा के मुताबिक, बिल्डर्स को हर प्रोजेक्ट के लिए अलग अकाउंट बनाना होता है। इसमें खरीदारों से मिले पैसे का 70 फीसदी हिस्सा जमा करना होगा, जिसका इस्तेमाल सिर्फ उसी प्रोजेक्ट के लिए किया जा सकेगा।
6. ऑनलाइन मिलेगी जानकारी: बिल्डर को अथॉरिटी की वेबसाइट पर पेज बनाने के लिए लॉग-इन आईडी और पासवर्ड दिया जाएगा। इसके जरिए उन्हें प्रोजेक्ट से जुड़ी सभी जानकारी वेबसाइट पर अपलोड करनी होगी। हर तीन महीने पर प्रोजेक्ट की स्थिति का अपडेट देना होगा। रेरा से रजिस्ट्रेशन के बिना किसी प्रोजेक्ट का विज्ञापन नहीं दिया जा सकेगा।
ऐसे करें मालिकाना हक की पुष्टि
अगर जमीन लाल डोरा इलाके की नहीं है और बिक्री के लिए आती है तो उस पर मालिकाना हक 2 तरह से हो सकता है:
1. पुश्तैनी जमीन: यह जमीन किसी को उसके पिता या दादा से मिली हुई होती है। ऐसी जमीनों में कई बार सेल डीड यानी रजिस्ट्री के पेपर नहीं होते। लेकिन इनके पास जमाबंदी (सरकार हर 5 से 6 साल पर इलाके के पटवारी से सर्वेक्षण करवाती है और जमीन को असल मालिक के नाम से दर्ज करती है) होती है। इसलिए जब भी किसी की पुश्तैनी जमीन खरीदनी हो तो पिछले 5 या 6 जमाबंदी (30 साल) के कागजात जरूर देखने चाहिए। अगर जमाबंदी हुई है तो यह तय है कि वहां के रजिस्ट्री ऑफिस में भी जरूर दर्ज होगी। इसलिए जमीन जिससे खरीद रहे हैं उससे जमाबंदी के पेपर लेकर रजिस्ट्री ऑफिस से वह कागजात निकलवाकर देख सकते हैं कि उस पर किसका हक था और अब किसका है। इसके लिए क्या-क्या चाहिए
– जमाबंदी की रसीद
– एक फॉर्म भरना होता है।
– कुल चार्ज 100 से 200 रुपये लगते हैं।
2. खुद खरीदी गई जमीन: ऐसी जमीनों की सेल डीड होती है यानी इनकी रजिस्ट्री होती है। इसलिए जिससे भी जमीन खरीद रहे हैं उससे कागजात की कॉपी लेकर वहां के सब-रजिस्टार ऑफिस में भी जा सकते हैं। वहां से जमीन के पेपर निकलवाते हैं। फिर उसे उसका मूल कागजात से मिलान करते हैं। उस पर जिसका नाम दर्ज है, वह सही है या नहीं। रजिस्ट्री की सर्टिफाइड कॉपी भी निकलवा सकते हैं। इसके लिए भी वही प्रोसेस है जो ऊपर बताया गया है।
नो एन्कम्ब्रन्स सर्टिफिकेट: अगर किसी प्रॉपर्टी को गिरवी रखने की डीड सब-रजिस्टार ऑफिस में रजिस्टर्ड हुआ होगी तो वहां से इसकी जानकारी एन्कम्ब्रन्स सर्टिफिकेट के रूप मिल जाती है। वहीं प्रॉपर्टी का असली मालिक कौन है, इसकी जानकारी भी सब-रजिस्टार ऑफिस से मिल जाएगी।
वकील की मदद: प्रॉपर्टी महंगी है तो किसी वकील की मदद भी ले सकते हैं। वह जमीन से जुड़ी सभी तरह की जानकारी और कागजात कुछ फीस लेकर खरीदार को दे देते हैं।
फ्लैट खरीदने से पहले
रेरा के माध्यम से अपने बिल्डर की पूरी जानकारी हासिल करें। अमूमन हर राज्य में रेरा की अपनी वेबसाइट है। वेबसाइट पर हर बिल्डर को रजिस्ट्रेशन करना होता है। बिल्डर को बिल्डिंग प्लान, सेंक्शन प्लान, कॉमन एरिया, मिलने वाली सुविधाएं, पजेशन कब मिलेगा जैसी तमाम डिटेल्स डालनी होती हैं।
विशेषज्ञ दल
– मुरारी तिवारी, पूर्व चेयरमैन, दिल्ली बार काउंसिल
– बलविंदर कुमार, पूर्व सीनियर मेंबर, यूपी, रेरा
– राजेश शर्मा, एडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट
– अखिलेश मिश्रा, एडवोकेट, दिल्ली हाईकोर्ट

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