राजभवन बने राजनीति के अड्डे तो सुप्रीम कोर्ट का रोल क्या है?

वो साल दूसरा था, ये साल दूसरा है
अवधेश कुमार

देश में इस समय एक साथ कई राज्यों में सरकारों और राज्यपालों के बीच टकराव की स्थिति है। स्वतंत्र भारत के इतिहास में एक छोटे से अंतराल में इतने राज्यों में राज्यपालों और सरकारों के बीच टकराव का मामला सुप्रीम कोर्ट कभी नहीं पहुंचा था। इस वर्ष अभी तक तेलंगाना, तमिलनाडु, केरल और पंजाब की सरकारें राज्यपालों के विरुद्ध कोर्ट जा चुकी हैं। दिल्ली के उपराज्यपाल और सरकार के बीच टकराव पर सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार के पक्ष में फैसला दिया तो केंद्र सरकार ने पहले अध्यादेश और बाद में संसद के जरिए कानून लाकर उसे पलट दिया। इन सबसे ऐसी धारणा बन रही है कि पूर्व की कांग्रेस सरकारों की तरह ही मौजूदा बीजेपी सरकार भी विरोधी पार्टियों वाली राज्य सरकारों के विरुद्ध राज्यपालों का दुरुपयोग कर रही है।

परसेप्शन के पीछे

कई ऐसी बातें हैं, जो इस परसेप्शन को मजबूती देती हुई लगती हैं। सुप्रीम कोर्ट की हाल में की गईं टिप्पणियां राज्यपालों के आचरण के विरुद्ध रही हैं। पंजाब के राज्यपाल बनवारी लाल पुरोहित के विधानसभा में पारित विधेयकों को मंजूरी न दिए जाने के मामले में कोर्ट की टिप्पणियां काफी तीखी मानी गईं।
-दूसरी बात यह कि ये विधेयक काफी समय से राज्यपाल के पास पड़े थे। तमिलनाडु के राज्यपाल एन रवि ने जिन 10 विधेयकों को सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद वापस किया, उनमें ज्यादातर पिछले वर्ष पारित हुए थे। केरल में राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान के रोके गए आठ विधेयकों में से तीन करीब दो वर्षों से और अन्य तीन 12 महीने से लंबित हैं।
फिर भी किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले कुछ अन्य तथ्यों पर गौर करने की जरूरत है।

तमिलनाडु में राज्यपाल के रोके गए व‍िधेयकों में से एक कुलपतियों की नियुक्ति मामले में राज्यपाल के अधिकार पर रोक लगाने वाला है। दूसरा, AIADMK के चार पूर्व मंत्रियों के खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमत‍ि मांगने से संबंधित है। तीसरा,54 कैदियों की समयपूर्व रिहाई से संबंधित है।
केरल में रोके गए विधेयकों में से भी एक राज्यपाल को राज्य संचालित विश्वविद्यालयों के चांसलर पद से हटाने वाला है।
जाहिर है,ये मामले राजनीतिक हैं और इन पर राज्यपालों के भी अपने तर्क रहे हैं। केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान का तर्क है कि राज्य सरकार कुलपतियों की नियुक्ति की जिम्मेदारी विश्वविद्यालयों को दे रही है लेकिन विश्वविद्यालयों को राज्य और केंद्र सरकार से धन मिलता है। व्यय के प्रावधान वाला हर विधेयक धन विधेयक होता है,जिसे राज्यपाल की स्वीकृति बिना विधानसभा के समक्ष नहीं रखा जा सकता। लेकिन सरकार विश्वविद्यालय संबंधित विधेयक धन विधेयक मान ही नहीं रही।

पंजाब का मामला और भी विचित्र है। वहां राज्यपाल की अनुमति बिना विधानसभा सत्र बुलाकर विधेयक पारित किया गया। राज्यपाल पुरोहित का कहना था कि चूंकि सत्र ही असंवैधानिक है, इसलिए इसमें पारित विधेयक भी असंवैधानिक हो गए। सरकार कह रही है कि बजट सत्र का अवसान नहीं हुआ था,इसलिए जून में नया सत्र था ही नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार के रवैये पर भी प्रश्न चिह्न खड़ा किया।

ऐसे में यह मानना मुश्किल है कि इन राज्य सरकारों का व्यवहार संवैधानिक भावनाओं के अनुरूप है।

क्या यह सच नहीं है कि विश्वविद्यालयों में कुलपतियों के पदों पर ज्यादातर राज्य सरकारें योग्यता और क्षमता की अनदेखी कर मनमानी राजनीतिक नियुक्तियां करतीं हैं? क्या कुलपति होने के नाते राज्यपालों को अपनी सीमाओं में कदम उठाने या इन पर बोलने का अधिकार नहीं है?

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि विधानसभा सत्र बुलाने को कोर्ट में आने की आवश्यकता नहीं हो सकती, यह राज्यपाल और सरकार के बीच का विषय है। क्या मुख्यमंत्री राज्यपाल के पास जाकर कुछ विवादों का निपटारा नहीं कर सकते? केरल के राज्यपाल सार्वजनिक तौर पर कह चुके हैं कि मुख्यमंत्री राज्यपाल को सामान्य जानकारी देने के अपने संवैधानिक कर्तव्य से भी भागते हैं,राजभवन नहीं आते।

इसी बिंदु पर गौर करने वाली बात यह भी है कि अतीत में कांग्रेस सरकारों के शासनकाल में राज्यपाल की भूमिका को लेकर उठने वाले विवादों से मौजूदा विवाद बुनियादी तौर पर अलग हैं। कांग्रेस के शासनकाल में राज्यपालों पर केंद्र की कठपुतली बन दलीय राजनीतिक हित साधने के आरोप लगते थे,जबकि मौजूदा विवादों के केंद्र में वैचारिकता और अवधारणाओं के मतभेद हैं।

तमिलनाडु के राज्यपाल रवि ने एक कार्यक्रम में राज्य का वास्तविक नाम थमीझागम बताया। उन्होंने तमिलनाडु नाम के पीछे के सिद्धांत को गलत और झूठ कहा। अनेक इतिहासकार ऐसा मानते हैं। सत्तारूढ़ DMK सनातन से लेकर भारत राष्ट्र, भाषा आदि पर अलग विचार रखती है। इसलिए उसने इसे बड़ा राजनीतिक मुद्दा बना दिया।
DMK सरकार ने राज्यपाल को अभिभाषण दिया जिसके कुछ अंश उनकी दृष्टि में राष्ट्रीय एकता की भावना के अनुकूल नहीं थे। उन्होंने उसकी कई पंक्तियों और उनमें दिए गए नामों का उल्लेख नहीं किया। स्टालिन सरकार ने राज्यपाल के भाषण को रेकॉर्ड में न लेने का प्रस्ताव पारित करवा दिया।

क्या करें राज्यपाल

इसमें दो राय नहीं कि संविधान राज्यपाल को मंत्रिमंडल का निर्णय स्वीकार करने को बाध्य करता है किंतु कुछ ऐसे विषय हैं जिन पर राज्यपाल स्टैंड लेकर संदेश दे सकते हैं। लोकतंत्र केवल संविधान के रुखे शब्दों से नहीं उसकी भावनाओं के अनुरूप परस्पर सामंजस्य और संतुलन से चलता है। इसलिए यह सवाल महत्वपूर्ण है कि राज्य सरकारें अगर राजनीतिक मंशा से विधेयक पारित करें,केंद्रीय एजेंसियों को निष्प्रभावी बनाने और राज्यपालों के अधिकारों में कटौती करने जैसा कदम उठाएं तो राज्यपालों को क्या करना चाहिए। बेहतर होगा सुप्रीम कोर्ट इन पर भी मंतव्य दे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और विचारक हैं)

राज्यों में राज्यपाल की भूमिका और विवाद
अजय प्रताप तिवारी

भारतीय लोकतंत्र संसदीय प्रणाली आधारित है। यहाँ कार्यपालिका और न्यायपालिका के कार्य और शक्तियाँ संविधान से निर्धारित हैं। भारतीय संविधान में जिस तरह केंद्र में सरकार की परिकल्पना की गई है,ठीक उसी प्रकार से राज्यों में भी सरकार की व्यवस्था संविधान से निर्धारित है। केंद्र की तरह राज्यों में भी शासन का स्वरूप संसदात्मक है। केंद्र में कार्यपालिका का संवैधानिक प्रमुख राष्ट्रपति होता है ठीक उसी प्रकार से राज्य में कार्यपालिका का संवैधानिक प्रमुख राज्यपाल है। देश में लोकतंत्र की जड़ें मजबूत करने में,केन्द्र-राज्य के संबंधों को लोक कल्याणकारी बनाने में और संवैधानिक व्यवस्था को कायम रखने एवं दूसरी महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों को बखूबी निभाने में राज्यपाल की संस्था ने अहम भूमिका निभाई है। अमेरिका जैसे देश में राज्यपाल,राज्य की जनता से चुने जाते हैं जबकि भारत में राज्यपाल राष्ट्रपति से नियुक्त किए जाने का प्रावधान है। भारत में राज्यपाल की नियुक्ति कनाडा से ली गई है। राज्य में राज्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति राज्यपाल करते हैं। राज्यपाल पंचायतों और नगरपालिकाओं की वित्तीय स्थिति का पुनर्विलोकन करने को वित्त आयोग गठित करते हैं। राज्य में राज्यपाल का महत्व दर्शाते हुए कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने कहा था कि राज्यपाल राज्य में केंद्र का पहरेदार तथा संवैधानिक संपत्ति का रखवाला और राज्य को केंद्र से जोड़ने वाला,देश की एकता का कर्णधार है। “
राज्यों में राज्यपाल के कर्तव्य देखते हुए प्रत्येक वर्ष राज्यपाल और उपराज्यपालों का सम्मेलन आयोजित होता है । इस परंपरा की शुरुआत वर्ष 1949 में राष्ट्रपति भवन से हुई थी भारत के अंतिम गवर्नर-जनरल सी. राजगोपालाचारी की अध्यक्षता में। राज्यपाल राज्य का प्रमुख होने के साथ केंद्र का प्रतिनिधित्व भी करता है। केंद्र का प्रतिनिधि और संविधान से प्राप्त स्वविवेक शक्तियों के कारण राज्य सरकारें विरोध करती हैं। संविधान के भाग छः में अनुच्छेद 153 से 167 तक राज्यपाल की नियुक्ति,शक्तियों और कार्यों के बारे प्रावधान है।

राज्यपाल की शक्तियाँ एवं कार्य :

राज्य का संवैधानिक प्रमुख राज्यपाल होता है।

डी. डी. बसु लिखते हैं कि “ थोड़े शब्दों में राज्यपाल की शक्तियाँ राष्ट्रपति के समान हैं सिर्फ कूटनीति , सैनिक तथा आपातकालीन शक्तियों को छोड़कर। “

कार्यपालिका की शक्तियाँ :

1. राज्य के मुख्यमंत्री की नियुक्ति और मुख्यमंत्री की सलाह पर मंत्रियों की नियुक्ति।
2. राज्य महाधिवक्ता, राज्य लोक सेवा आयोग अध्यक्ष के साथ सदस्यों , राज्य विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्ति, राज्य निर्वाचन आयोग एवं अन्य सदस्यों की नियुक्ति राज्यपाल करता है। उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति के बारे में राष्ट्रपति को परामर्श देना।
3. राज्य में संवैधानिक तंत्र की विफलता पर राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करना।

विधायी शक्तियाँ:

1. राज्यपाल राज्य विधानमण्डल का समय – समय पर अधिवेशन बुला सकता है तथा सत्रावसान कर सकता है। मंत्रिपरिषद की सलाह पर विधानसभा को राज्यपाल भंग कर सकता है।
2. किसी लम्बित विधेयक के संबंध में शीघ्रता से विचार करने हेतु सदन को संदेश प्रेषित कर सकता है।
3. विधानमण्डल द्वारा पारित किसी भी विधेयक को राष्ट्रपति के विचार हेतु आरक्षित करने की शक्ति राज्यपाल में निहित हैं।

न्यायिक शक्तियाँ:

1. राज्यपाल की सबसे प्रमुख न्यायिक शक्तियों में क्षमादान की शक्ति है। राज्यपाल मृत्यु दण्ड और संघसूची के मामलों में शक्तिहीन है।
2. उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एवं अन्य न्यायधीशों की नियुक्ति करता है।

विवेकाधीन शक्तियाँ:

राज्यपाल को संविधान द्वारा कुछ विवेकीय शक्तियाँ प्रदान की गई हैं ।

1. राज्यपाल द्वारा मुख्यमंत्री सहित किसी भी मंत्री के विरुद्ध भ्रष्टाचार के आरोप के आधार पर मुकदमा चलाने की अनुमति देना स्वविवेकी शक्तियाँ हैं।
2. कुछ विशेष परिस्थितियों में विधानसभा का अधिवेशन बुला सकता है।
3. जब राज्य में एक से अधिक दल बहुमत साबित पेश करने का दावा करते हैं, तब राज्यपाल किसी एक को अपने विवेक से मुख्यमंत्री नियुक्त करता है।

वित्तीय शक्तियाँ:

1.राज्य की आकस्मिक निधि पर राज्यपाल का पूर्ण नियंत्रण होता है। वार्षिक वित्तीय विवरण विधानमण्डल के समक्ष रखवाता है।
2.राज्यपाल की बिना अनुमति के धन विधेयक विधानसभा में पेश नहीं किया जायेगा।
3. वह राज्य की आय व्यय के संबंध में भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट और राज्य लोक सेवा आयोग की रिपोर्ट विधानमण्डल के समक्ष पेश करता है।

राज्यपाल संबंधी विवाद का कारण :

राज्यपाल किसी राजनीतिक पार्टी से नहीं होता है। संविधान में राज्यपाल की परिकल्पना गैर-राजनीतिक प्रमुख के रूप में की गई है। राज्यपाल केंद्र और राज्य के बीच एक सेतु की भाँति कार्य करता है । राज्यपाल राज्य का संवैधानिक प्रमुख होने के साथ केंद्र के प्रतिनिधि के रूप में दोहरी भूमिका में कार्य करता है। राज्यपाल की नियुक्ति केंद्र सरकार करती है। राज्यपाल केंद्र के दिशा-निर्देश पर कार्य करता है इससे भिन्न दलों राज्य सरकारें राज्यपाल की शक्तियों का केंद्र सरकार पर गलत उपयोग करने के आरोप लगाती रहती हैं। केंद्र व राज्य में एक ही दल की सरकार नहीं है तो राज्य की कार्यप्रणाली में काफी समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं। राज्यपाल की स्वविवेक शक्तियाँ जैसे विधानमंडल से पारित किसी विधेयक को स्वीकृति देना या रोकना,राज्य में संवैधानिक विफलता पर राष्ट्रपति शासन की अनुसंशा करना,राज्य में चुनावों के बाद सरकार बनाने के लिये सबसे बड़ी पार्टी या गठबंधन को आमंत्रित करने हेतु राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों का अक्सर किसी विशेष राजनीतिक दल के पक्ष में दुरुपयोग किया गया है।

राज्यपाल से संबंधित समितियाँ :

राजमन्नार समिति :

राजमन्नार समिति का गठन 1970 में डॉ. पीवी राजमन्नार की अध्यक्षता में किया गया था। इस समिति ने सुझाव दिया कि राज्यपाल को केंद्र के एजेंट के रूप में नहीं देखना चाहिए। राज्यपाल को राज्य के संवैधानिक प्रमुख के रूप मे अपनी भूमिका निभानी चाहिए ।

सरकारिया आयोग:

सरकारिया आयोग के अध्यक्ष रणजीत सिंह सरकारिया थे जिसका गठन सन 1983 में किया गया। सरकारिया आयोग का सुझाव था कि अनुच्छेद 356 का उपयोग केवल अत्यंत दुर्लभ मामलों में किया जाना चाहिए।

वेंकटचलैया आयोग:

वेंकटचलैया आयोग 2002 में गठित किया गया। इसने राज्यपाल को पाँच वर्ष का कार्यकाल पूर्ण करने की सिफारिश की थी।

पुंछी आयोग :

इसे मदन मोहन पुंछी की अध्यक्षता में वर्ष 2005 में गठित किया गया था।

निष्कर्ष :

संवैधानिक पदों पर आसीन व्यक्तियों को अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते समय संवैधानिक मान मर्यादा के सिद्धांतो को बनाए रखना चाहिए। लोकतांत्रिक व्यवस्था में सौहार्दपूर्ण संबंध होना लोकतंत्र की पहली निशानी है। लोकतंत्र में जनकल्याण की भावन निहित होती है। राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों को संवैधानिक सीमाओं का सम्मान करना चाहिए ।

कोराजोन एक्विनो लिखते हैं कि “ मेरे पास लोकतंत्र के निर्माण का कोई सूत्र नहीं है, मैं केवल यही सुझाव दे सकता हूँ कि अपने बारे में भूल जाएँ और केवल अपने लोगों के बारे में सोचें। यह हमेशा लोग होते हैं जो चीजें करते हैं। “ संवैधानिक पदाधिकारियों को एकाधिकार से बचने और अपनी निर्धारित भूमिकाओं का पालन करके, राज्य के प्रभावी शासन को सुनिश्चित करना चाहिए।

अजय प्रताप तिवारी
अजय प्रताप तिवारी, यूपी के गोंडा जिले के निवासी हैं। इन्होंने विज्ञान और इतिहास में पढ़ाई करने के बाद देश के प्रतिष्ठित अखबारों और विभिन्न पत्रिकाओं में नियमित रूप से लेखन कार्य किया है। इसके साथ ही इन्हें साहित्य और दर्शन में रुचि है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *