मत-विमत:अमीरों-गरीबों में बढ़ता अंतर कितना चिंतनीय?

अमीरी-गरीबी की बढ़ती खाई, देश में गैर-बराबरी क्यों है फिक्र की बात? समझिए
देश में गरीबी और अमीरी की खाई बढ़ रही है। वर्ष 2022-23 में आर्थिक विषमता शीर्ष स्तर पर पहुंच गई, जो 1922 के दशक से अभी अधिक है। भारत की बात करें तो इस मामले में वह दुनिया के चुनिंदा देशों में सबसे ऊपर है। नीति-निर्माताओं के लिए यह दुविधा का विषय है।

शीर्ष एक प्रतिशत सुपर अमीरों का देश की आय में हिस्सा 22.6%
शीर्ष एक प्रतिशत सुपर अमीरों का संपत्ति में हिस्सा 40.1%
इस मामले में भारत दुनिया के शीर्ष देशों में सबसे ऊपर

आनंद प्रधान:
क्या भारत हाल के दशकों में तेज आर्थिक विकास के बावजूद आय और संपत्ति के बंटवारे के मामले में दुनिया के कुछ सबसे अधिक गैर-बराबर मुल्कों में से एक बनता जा रहा है? पेरिस स्थित World Inequality Lab की एक ताजा रिपोर्ट, ‘The Rise of the Billionaires Raj’ के मुताबिक, पिछले दो दशकों से ज्यादा समय से भारत में तेजी से बढ़ रही आर्थिक गैर-बराबरी बीते साल 2022-23 में ऐतिहासिक रूप से उच्चतम स्तर पर पहुंच गई है, जो कि ब्रिटिशकालीन भारत के 1922 के दशक की तुलना में भी ज्यादा है।
सबसे ऊपर भारत

रिपोर्ट में दावा किया गया है कि आबादी में शीर्ष एक फीसदी सुपर अमीरों का देश की आय और संपत्ति में हिस्सा बढ़ते हुए क्रमशः 22.6% और 40.1% तक पहुंच गया है। इस मामले में भारत दुनिया के चुनिंदा देशों की सूची में सबसे ऊपरी पायदान पर पहुंच गया है।

Billionaires की संख्या

यह रिपोर्ट बताती है कि देश में Dollar Billionaires की संख्या वर्ष 1991 में जहां सिर्फ एक थी, वह 2011 में बढ़कर 52 और 2022 में तिगुने से ज्यादा बढ़कर 162 हो गई। इन तीन दशकों में Billionaires की संपत्ति में तेजी से बढ़ोतरी हुई है। कुल आय में उनका हिस्सा वर्ष 1991 में जहां एक फीसदी से भी कम था, वह 2022 में उछलकर 25% तक पहुंच गया।

आर्थिक विषमता

दरअसल, 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद से तेज आर्थिक वृद्धि के बीच जहां एक ओर गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर करने वाले लोगों की संख्या में उल्लेखनीय गिरावट आई, वहीं आर्थिक गैर-बराबरी में तेज बढ़ोतरी भी हुई। कई अर्थशास्त्री और सरकारी रिपोर्टें भी समय-समय पर इस विरोधाभास को उजागर करते रहे हैं। स्थिति की गंभीरता का अंदाजा ताजा रिपोर्ट में पेश इन तथ्यों से लगाया जा सकता है:

➤देश में शीर्ष 10% भारतीय राष्ट्रीय आय का 60% हिस्सा बटोर ले जाते हैं लेकिन निचली 50% आबादी के खाते में मात्र 15% हिस्सा ही आता है।
➤वर्ष 2022-23 के आंकड़ों के मुताबिक, एक औसत भारतीय की सालाना आय 2.3 लाख रुपये है, लेकिन शीर्ष एक फीसदी सुपर अमीरों की औसत सालाना आय 53 लाख रुपये है, जो आम भारतीय की औसत सालाना आय से 23 गुणा ज्यादा है।
➤आबादी के निचले 50% भारतीयों की औसत सालाना आय सिर्फ 71 हजार रुपये (राष्ट्रीय औसत का एक तिहाई) और बीच के 40% भारतीयों की औसत सालाना आय 1.65 लाख रुपये (राष्ट्रीय औसत का लगभग दो तिहाई) है।
➤ शीर्ष एक फीसदी सुपर अमीर राष्ट्रीय आय का 22.6% ले जाते हैं, लेकिन उनमें से भी शीर्ष 0.1%, 0.01% और 0.001% अमीरों के हिस्से में राष्ट्रीय आय का क्रमशः 10%, 4.3% और 2.1% आता है।
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यह रिपोर्ट चार अर्थशास्त्रियों ने तैयार की है, जिनमें फ्रांसीसी अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी के अलावा नितिन कुमार भारती, लुकास चांसेल और अनमोल सोमंची शामिल हैं। रिपोर्ट के लिए इन लोगों ने राष्ट्रीय आय, सकल परिसंपत्तियों, आयकर के आंकड़ों, अमीरों की सूचियों के अलावा आय-उपभोग और संपत्ति सर्वेक्षणों का इस्तेमाल किया है। उन्होंने यह भी माना है कि भारत में आय और संपत्ति संबंधी आंकड़े पर्याप्त नहीं हैं और उनमें कई विसंगतियां हैं। इस आधार पर कई आलोचक इस शोध रिपोर्ट के दावों पर सवाल भी खड़े कर रहे हैं।

भगवती-सेन बहस

कुछ साल पहले जाने-माने अर्थशास्त्री प्रोफेसर जगदीश भगवती और नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन के बीच चली चर्चित बहस के केंद्र में भी यही सवाल था। मुद्दा यह था कि आर्थिक वृद्धि दर को तेज करने या राष्ट्रीय आय और संपत्ति के न्यायसम्य वितरण सुनिश्चित करने में से किसे प्राथमिकता देनी चाहिए? दूसरे, क्या नीति-निर्माताओं को गैर-बराबरी पर अंकुश लगाने के लिए सुपर अमीरों पर ऊंची दरों से टैक्स या संपत्ति कर लगाने जैसे कदम उठाने चाहिए?

गरीबी असल मुद्दा

प्रोफेसर भगवती और उनके जैसे आर्थिक सुधारों के समर्थक अर्थशास्त्री बढ़ती गैर-बराबरी के इन आंकड़ों को ‘बेवजह डरानेवाला और मुद्दे से भटकाने वाला’ बताते रहे हैं। उनका दावा है कि भारत जैसे देश के लिए असली मुद्दा गैर-बराबरी नहीं बल्कि गरीबी दूर करना है। इसके लिए आर्थिक विकास को प्राथमिकता देनी चाहिए।

विकास पर जोर

उनके मुताबिक, इससे आर्थिक गैर-बराबरी बढ़ती है तो उसे लेकर नींद खराब करने की जरूरत नहीं है। उनका तर्क है कि भारत में पिछले तीन दशकों में तेज आर्थिक वृद्धि के कारण गरीबी कम करने में मदद मिली है। इसलिए पुनर्वितरण के बजाए आर्थिक वृद्धि पर जोर बना रहना चाहिए। इस कारण वे मानते हैं कि सुपर अमीरों पर टैक्स बढ़ाने या उनकी संपत्ति पर संपदा कर लगाने से निवेश पर उल्टा असर पड़ेगा और आर्थिक वृद्धि को धक्का लग सकता है।

सबको मिले फायदा

लेकिन सेन और ज्यां ड्रेज जैसे अर्थशास्त्रियों का तर्क है कि तेज वृद्धि दर से पैदा होने वाली आय और संपदा के न्यायसम्य वितरण में नाकामी से बढ़ती गैर-बराबरी आखिरकार आर्थिक वृद्धि के पहिए को भी रोक देगी। यह सामाजिक और राजनीतिक स्थिरता के लिए भी खतरा है। इसलिए शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा जैसे मदों में सार्वजनिक व्यय को बढ़ाने के लिए ज्यादा संसाधनों यानी सुपर अमीरों पर संपत्ति कर जैसे फैसलों की जरूरत है ताकि आर्थिक वृद्धि के दायरे को बढ़ाने और उसका फायदा सभी वर्गों तक पहुंचाने में मदद मिले।

क्या है रास्ता?

नीति-निर्माताओं के लिए यह दुविधा का विषय है। लेकिन यहां गांधी जी की बात याद रखनी चाहिए कि कोई भी फैसला करने से पहले सबसे आखिरी पायदान पर खड़े व्यक्ति को याद करना और उसकी भलाई को वरीयता देनी चाहिए। यही नहीं,अब तो दुनिया भर में Billionaires की बड़ी संख्या सुपर अमीरों पर टैक्स की दरें बढ़ाने की मांग कर रही है ताकि गैर-बराबरी पर अंकुश लगाया जा सके और सामाजिक सुरक्षा के दायरे को बड़ा और मजबूत बनाया जा सके। इस साल दावोस में 250 से ज्यादा Billionaires ने यह मांग दोहरा कर नीति-निर्माताओं के लिए रास्ता खोल दिया है।

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