मत:हमें तालिबान से क्या? कल वे ग्लोबल विलेज में चरमपंथियों के रोल मॉडल होंगें

तालिबान का हमसे क्या!

अफगानिस्तान में बर्बरता और क्रूरता की नई परिभाषा गढ़ी जा रही है। बंदूक के दम पर देश को कब्जाकर इस्लामी अमीरात बनाने की तैयारी है। वह इस्लामी अमीरात कैसा होगा, उसके कुछ नियम सुनने को मिले। उसका स्वरूप समझने को मिला। यह होगा तो बहुत भयावह होगा। लेकिन, हम इसपर कुछ करना तो दूर चर्चा भी नहीं कर सकते?

कुछ बुद्धिजीवी बंदूकों को लानत भेज रहे हैं और अमेरिकी बाजारवाद में इसका मूल देखकर कहते हैं कि तालिबान के बालक बहुत भले, सभ्य और प्यारे हैं। उनका हिंसा से कोई दूर तक लेना नहीं। पश्तो में तालिबान का मतलब छात्र ही होता है। यानि वह छात्र लोग हैं, कुछ क्रांति की बात कर रहे हैं।

ऐसा कहने वाले भी जानते हैं कि वहां जो हो रहा है वह कितना वीभत्स और भयावह है। लेकिन वह आपके कुछ बोलते ही, आपका मुंह पकड़ लेंगे। आपसे कह दिया जाएगा कि आपको देश की गरीबी और महंगाई नहीं दिख रही है जो अफगानिस्तान की चर्चा कर रहे हैं?

इसका जवाब ऐसे दिया जा सकता है कि रोहिंग्या मामले पर चर्चा करते समय या फिलिस्तीन के लिए आंसू बहाते समय तो हम लोगों के यहां गरीबी रही नहीं होगी? हागिया सोफिया के समय जब डीपी बदली गईं तब तो भारत बहुत अमीर रहा होगा, यहां कोई कष्ट नहीं रहा होगा। लेकिन, यह तो प्रतिक्रियावाद हुआ।

मूल विषय यह है कि आज दुनिया ‘ग्लोबल विलेज’ है। उसके किसी एक हिस्से में अस्थिरता से सभी को प्रभावित होना पड़ता है। चीन में जब कोरोना जन्मा, तो क्या हम यह कह कर बच गए कि यह चीन का मामला है हम से क्या लेना-देना? इराक संकट के समय महंगे ईंधन पूरी दुनिया ने खरीदे। आईएसआईएस के समय में भी इसे मुस्लिम देशों की समस्या कहा जा रहा था फिर भारत सहित तमाम विकासशील और धर्मनिरपेक्ष देशों में उसके मॉड्यूल पकड़े गए। लड़के भाग-भाग कर लड़ने गए।

हम ऐसे विश्व में रहते हैं कि विश्व के किसी हिस्से में अगर अस्थिरता होती है, तो आपके तमाम कोशिशों और ना चाहने के बावजूद उसमें प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से शामिल होना ही पड़ेगा। क्योंकि लगभग सभी देशों की परस्परता है। या तो आप नार्थ कोरिया हो जाइए। दुनिया से अपने को अलग कर लीजिए।

यह तो और भी निपट मूर्खता वाली बात है कि अफगानिस्तान के विषय में हम इसलिए ना बोले कि हमारे यहां गरीबी है। इसी गरीब देश ने अफगानिस्तान के विकास में हजारों करोड़ रुपए खर्च किए हैं। उनका संसद भवन हमारे करदाताओं के पैसे से बना है। उनके कई प्रमुख नगरों को जोड़ने वाली सड़कें और पुल हमारे करदाताओं के पैसे से बने हैं।

लेकिन, हम बात भी नहीं कर सकते?

अफगानिस्तान का पॉलिटिकल स्टेटस आज जो भी हो, वह उसका वर्तमान है। कल को वह तालिबान के सपनों का इस्लामी अमीरात बने, अगर नियति को यही स्वीकार्य है तो हम क्या कर पाएंगे। लेकिन, वह हमारी पुण्य भूमि है। उससे हमारा सुनहरा अतीत जुड़ा है। क्या इन पन्नों को अलग करके हम अपने इतिहास से द्रोह करेंगे? हमारा साझा इतिहास है, वर्तमान में भागीदारी है तो भविष्य भी साझा होगा।

हमें पूरा अधिकार है कि हम उस पर बात करें। वहां शांति स्थापना को सैन्य सामर्थ्य का प्रयोग करें। वैश्विक स्तर पर दबाव बनाएं। हर संभव वह काम करें, जिससे वहां निवेश किया गया धन वहां की जनता के हित में उपयोगी सिद्ध हो। मानवाधिकारों की रक्षा हो सके।

क्योंकि तालिबान का अफगानिस्तान पर जबरन कब्जा, अन्य चरमपंथियों का मनोबल बढ़ाएगा। वह उसे आइडियल मानकर सैन्य कब्जे को गृह युद्ध छेड़ेंगे। बहुत संभव है कि गैर-इस्लामी चरमपंथी भी इससे प्रेरणा लें। इससे पूरा विश्व अशांत हो जाएगा। भारत भी अपने आप स्थिर नहीं रख सकेगा। यहां तो वैसे भी तालिबान के समर्थक तालिबानी लड़ाकों की कुल संख्या से कई गुना ज्यादा हैं।

@अरुण प्रकाश- Arrun Prakash की फेसबुक वॉल से

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