ज्ञानध्यान:आई सूर्य के उत्तरायण होने की वेला, जिससे अपना देश हुआ भारतवर्ष!!

सूर्य से उत्तर दिशा में कुबेर का वास है। सूर्य अधिकतम २४° उत्तर होते हैं, अतः २४ अंश उत्तर अक्षांश से भी उत्तर भूभाग के देश भौतिक सम्पदा में बढ़े चढ़े हैं। उत्तरायणान्त रेखा से दक्षिण के देश निर्धन और विपन्न हैं । एक दो देशों को छोड़कर, उनमें भी जो समृद्धि है वह उत्तरी लोगों के बसने से ही हुई है , जैसे ऑस्ट्रेलिया।
उत्तरायणारम्भ …दिसम्बर में होता है 21-22 दिसम्बर को…

ओउम् मित्राय नम:

सूर्य के उत्तरायण होने की बेला है!

यानी कि सूर्य ने अपने रथ की धुरा उत्तर की ओर घुमा ली है। मानव जाति को अपने आधार के पूजन का एक और अवसर मिला है।

कल उषादेवी कुछ अधिक औज्ज्वल्य के साथ प्रकटेंगी। वही उषा, जिन्हें यूनानी साहित्य “इओस” कहता है।

वही, जो अश्वनीकुमारों की चिर-प्रेमिका हैं।

वही, जिन्हें आलिंगन में भरने के लिए सूर्य अपनी स्वर्णिम किरणों की बाँहें फैलाता है और वे लज्जावश होकर तिरोहित हो जाती हैं!

न केवल बाँहें स्वर्ण की, बल्कि नेत्र भी स्वर्ण के हैं। तिस पर ही तो वेद ने उन्हें “स्वर्णाक्षि” पुकारा है।

जिह्वा भी स्वर्ण की, “स्वर्णजिह्व” और हाथ भी स्वर्णिम, “स्वर्णहस्त”। ऋग्वेद के सप्तम मण्डल में “सवितृ” का प्रतीक बने सूर्यदेव का समग्र रूप स्वर्णिम है।

यही स्वर्णिम सूर्य अब मकर में चमकेगा!

उत्तरायण की यह बेला, बरस भर बाद आती है। न उससे पूर्व और न उसके बाद। इस नियमबद्धता पर ही “हेराक्लिटस” उद्घोष करता है :

“हेलियोस, यानी कि सूर्य, कभी अपनी परिधि का अतिक्रमण नहीं करता!”

पृथ्वी को प्रकाशित करने हेतु किए जाने वाले नियम पालन की इस आवृत्ति के सम्मुख, उनके सम्मान हेतु माह में चार और बरस में अर्धशत बार होने वाली “रविवार” की आवृत्ति, कुछ भी नहीं है!

रविवार! यानी कि सूर्य के सम्मान में एक दिवस।

संस्कृत में एक धातु है : “सन्”। इसका तात्पर्य “अनुग्रह से प्राप्त करना” है।

इस सृष्टि के तमाम अनुग्रहों के मूल में सूर्यदेव हैं। इसी कारणवश रविवार का प्राचीन नाम “सनादिवस” हुआ करता था।

यहीं से अपभ्रंश होकर “सन” और “सन-डे” जैसे शब्द आए हैं। यहीं से “सूलियो”, “सोलो” और “सोली” शब्दों की निर्मिति हुयी है।

“लैटिन” भाषा में रविवार को “डाइस सोली” उचारते हैं। ये “डाइस” भी “दिवस” से व्युत्पन्न है।

सूर्य की शब्दस्वीकार्यता की बात चली है तो संस्कृत में एक शब्द है : “आत्मालोक” यानी कि स्वयं का प्रकाश, आत्मा-आलोक।

पाली में इस शब्द को “अत्तोलोक” कहा गया। “आत्मालोक” और “अत्तोलोक” के मध्य की कड़ी है : “अप्पोलोक”। यानी कि प्राकृत भाषा।

यही शब्द “अप्पोलोक”, यूनान का “अपोलो” है!

संस्कृत में ही सूर्य का एक पर्याय है : “अहस्कर”।

इसका अरबी अपभ्रंश “अहद्” है। अरब का एक शब्दबंध “योमउल अहद्” बनता है।

ये नाम उस दिन को मिलता है, जिस दिन कायनात शुरू हुयी।

ये भी सनातन ही की अवधारणा है कि जिस दिन सृष्टि आरंभ हुयी, उस दिन सूर्य का दिन था!

अरबी इसे “योमुल वाहिद” भी कहते हैं। जहाँ “वाहिद” संस्कृत के “वै हितं” से प्रकटता है। जिसका अर्थ है : “प्रथम”।

कितने ही सभ्यताओं के उदाहरण लें। हर ओर सूर्य का प्रभाव है।

जर्मन का “सोनटाख” हो या फ्राँस का “डिमोंशे”, जो संस्कृत के “द्युवन्” से उपजा है!

मानव की हर सभ्यता में सूर्य रचे-बसे हैं।

मैं मुस्कुरा देता हूँ। जब कोई कहता है, मालूम है, दुष्यंत और शकुन्तला के पुत्र “भरत” के नाम से ये राष्ट्र “भारतवर्ष” है!

क्या सच में ऐसा है?

नहीं! बल्कि समूची मानवजाति का भरण-पोषण करने वाले सूर्य का नाम “भरत” है और उन्हीं के नाम पर ये राष्ट्र “भारत” है।

उन्हीं के नाम पर शकुन्तला ने अपने पुत्र को सर्वदमन “भरत” पुकारा था!

शायद कभी, मिलियंस ईयर्स एगो, सूर्य ने पृथ्वी को अपनी बाँहों से जुदा करते हुए सदैव प्रकाशित करते रहने का वचन दिया होगा।

और वे इस नियम को कभी नहीं तोड़ते!

इसी कारणवश उन्हें “मित्र” कहा गया है। “मित्र” वही जो वचन न तोड़े। सूर्य नमस्कार मंत्रों में एक मंत्र – ओउम् मित्राय नमः – इसी का उद्घोष है।

अंतरिक्ष के अनगिनत दैत्यों से टकराकर या उनमें समाकर, ये पृथ्वी कब की नष्ट हो गयी होती। यदि सूर्य न होते। सूर्य से बढ़कर पृथ्वी का कोई मित्र नहीं!

ऐसे मित्र को नमन। ऐसी मित्रता को नमन। ओउम् मित्राय नमः।

✍🏻योगी अनुराग

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