वीर साहिबजादे जोरावर सिंह और फतेहसिंह का बलिदान दिवस है आज

धर्म के लिए सर्वस्व न्योछावर
गुरु गोबिंद सिंह जी और उनके चार साहिबजादे

1705 में 21 से 27 दिसम्बर की अवधि में गुरु गोबिंद सिंह जी के चार साहिबजादों ने धर्म के लिए सर्वस्व न्योछावर कर दिया। उस समय आधा पंजाब रोया था और आधा जमीन पर सोया था। खेद की बात है कि अब वही राज्य 21 से 27 दिसम्बर तक क्रिसमस मना रहा है।

यह ऐतिहासिक तथ्य है कि भारत में मुस्लिम आक्रांताओं ने इस्लाम का फैलाव तलवार के बल पर किया। क्रूर बादशाहों ने इस्लाम न कबूलने पर छोटे-छोटे बच्चों को भी मरवा दिया। ऐसे दो बच्चे थे- दशम गुरु गोविंद सिंह के साहिबजादा जोरावर सिंह (नौ वर्ष )और साहिबजादा फतेह सिंह (सात वर्ष)। पंजाब में ही वीर हकीकत राय का भी ऐसा ही इतिहास है। गुरु गोविन्द सिंह के अन्य दो पुत्रों साहिबजादा अजीत सिंह और साहिबजादा जुझार सिंह चमकौर युद्ध में लड़ते हुए 21 दिसंबर,1705 को बलिदान हुए थे। उन दोनों की आयु क्रमश: 19 और 17 साल थी। ये चारों साहिबजादे अपने पिता की तरह बहुत ही साहसी और पराक्रमी थे। इन चारों ने देश और धर्म के लिए ऐसा बलिदान दिया जो विश्व इतिहास में दुर्लभ है ।

जोरावर सिंह और फतेह सिंह को मुगल सूबेदार वजीर खान ने पहले क्रूरतापूर्वक प्रताड़ित किया, फिर उनकी हत्या कर दी । उन दिनों मुगलों से सिखों की लड़ाई चल रही थी। संघर्ष आनंदपुर साहिब किले में शुरू हुआ। यहीं गुरु गोबिंद सिंह मुगल सेना से लोहा ले रहे थे। महीनों लड़ाई चलती रही। गुरु गोबिंद सिह के साहस को देखकर मुगल सेना पस्त हो रही थी। गुरु जी को हराने के लिए अंत में औरंगजेब ने कूटनीति का सहारा लिया। उसने गुरुजी को एक पत्र लिखा कि अगर उन्होंने आनंदपुर का किला खाली कर दिया तो उन्हें छोड़ दिया जाएगा। गुरु गोबिंद सिंह को औरंगजेब पर भरोसा नहीं था। इसके बावजूद उन्होंने योजना बना किला छोड़ दिया। जैसे ही गुरु जी और उनकी सेना किले से बाहर निकली, मुगल सेना ने उन पर आक्रमण कर दिया।

सरसा नदी के तट पर लंबी लड़ाई चली जिसमें गुरु गोबिंद सिंह का परिवार बिछुड़ गया। बड़े साहिबजादे अजीत सिंह, जुझार सिंह गुरु जी के साथ रह गए, जबकि छोटे बेटे जोरावर सिंह और फतेह सिंह माता गुजरी के साथ थे। रास्ते में माता गुजरी को गंगू मिला, जो किसी समय पर गुरु महल की सेवा करता था। गंगू उन्हें बिछुड़े परिवार से मिलाने का भरोसा देकर अपने घर ले गया। इसके बाद सोने की मोहरों के लालच में गद्दार गंगू ने वजीर खान को उनकी सूचना दे दी। वजीर खान के सैनिक माता गुजरी और साहिबजादा जोरावर सिंह और साहिबजादा फतेह सिंह को पकड़ ले गए। उन्हें प्रताड़ना को ठंडे बुर्ज में रखा गया, ताकि वे वजीर खान के सामने झुक जाएं। सुबह दोनों साहिबजादों को वजीर खान के सामने प्रस्तुत किया गया। वहां उन्हें इस्लाम स्वीकारने को कहा गया, लेकिन दोनों वीर बालकों ने ऐसा करने से मना कर दिया।

साहिबजादे जोरावर सिंह और फतेह सिंह को मुगल सूबेदार वजीर खान ने पहले बेरहमी से प्रताड़ित किया,फिर उनकी हत्या करा दी।

वजीर खान के गुर्गों ने सिर झुकाने को कहा तो दोनों ने जवाब दिया, ‘‘हम अकाल पुरख और अपने गुरु पिता के अलावा किसी के भी सामने सिर नहीं झुकाते। ऐसा करके हम अपने दादा के बलिदान को व्यर्थ नहीं होने देंगे, यदि हमने किसी और के सामने सिर झुकाया तो हम अपने दादा को क्या जवाब देंगे, जिन्होंने धर्म के नाम पर सिर कलम करवाना सही समझा, लेकिन झुकना नहीं।’’ वजीर खान ने दोनों को काफी डराया, धमकाया और प्यार से भी इस्लाम स्वीकारने को राजी करना चाहा, लेकिन दोनों अटल रहे। अंत में उसने दोनों साहिबजादों को जिंदा दीवार में चिनवाने का आदेश दे दिया। कहते हैं, दोनों साहिबजादों को जब दीवार में चिनना आरंभ किया गया तब उन्होंने ‘जपुजी साहिब’ का पाठ शुरू कर दिया और दीवार पूरी होने के बाद अंदर से जयकारे लगाने की आवाजें आई। यह घटना 26 दिसंबर, 1705 की है। इसकी सूचना गुरुजी तक पहुंची तो उन्होंने औरंगजेब को एक जफरनामा (विजय की चिट्ठी) लिखा। इस चिट्ठी में श्री गुरु गोबिंद सिंह ने औरंगजेब को चेतावनी दी कि तेरा साम्राज्य नष्ट करने को खालसा पंथ तैयार हो गया है।

अजीत सिंह श्री गुरु गोबिंद सिंह के सबसे बड़े पुत्र थे। चमकौर के युद्ध में वे वीरगति को प्राप्त हुए। गुरु जी के नियुक्त पांच प्यारों ने अजीत सिंह को समझाने की कोशिश की कि वे युद्ध में न जाएं। लेकिन पुत्र की वीरता को देखते हुए गुरु जी ने अजीत सिंह को स्वयं अपने हाथों से शस्त्रों से सजा लड़ने भेजा। इतिहासकारों ने लिखा है कि रणभूमि में जाते ही अजीत सिंह ने ऐसी वीरता दिखाई कि मुगल सैनिक प्राण बचाने इधर-उधर भागने लगे। वे कुछ यूं युद्ध कर रहे थे मानो पाप का संहार कर रहे हों। अजीत सिंह के तीर खत्म होने लगे तो दुश्मनों ने उन्हें घेर लिया। इसके बाद अजीत सिंह तलवार निकाल अकेले ही मुगल फौज पर टूट पड़े। उन्होंने एक-एक करके मुगल सैनिकों का संहार किया, लेकिन लड़ते-लड़ते उनकी तलवार टूट गई। आखिरी सांस तक मुगलों से लड़ते हुए वे केवल 19 वर्ष की कच्ची आयु में वीरगति को प्राप्त हुए। उनके नाम पर ही मोहाली का नाम साहिबजादा अजीत सिंह नगर रखा गया है। अजीत सिंह के बलिदान के बाद साहिबजादा जुझार सिंह ने मोर्चा संभाला। वे भी उनके पदचिन्हों पर चलकर अतुलनीय वीरता का प्रदर्शन करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।

गुरुजी के साहिबजादों के बलिदान का बदला बाबा बंदा सिंह बहादुर ने लिया। उन्होंने सरहिंद में वजीर खान को उसके कुकर्मों की सजा दे पूरे इलाके पर सिखों का आधिपत्य स्थापित किया। इसी बलिदान का परिणाम था कि आगे चल कर महाराजा रणजीत सिंह के नेतृत्व में एक बड़े सिख साम्राज्य का उदय हुआ।

छोटे साहिबज़ादे साका

श्री गुरु गोबिंद सिंह के चार साहिबजादों की शहादत दुनिया के इतिहास की सबसे दर्दनाक घटना है और हृदय को झकझोर देने वाले पाप का वृतांत यह घटना एक ओर जहां मानवीय क्रूरता की वीभत्स तस्वीर पेश करती है, वहीं दूसरी ओर यह साहिबजादों के भीतर के संघर्ष की पराकाष्ठा और उत्पीड़न और अत्याचार के खिलाफ सिख सिद्दक की भावना को धार्मिक स्वतंत्रता के लिए प्रकट करती है।

चांदनी चौक, दिल्ली में सिख गुरु तेग बहादुर के बलिदान के बाद, औरंगजेब ने हिंदू धर्म के अनुयायियों के इस्लाम में जबरन धर्म परिवर्तन के विरोध को , उनके सपूत गुरु गोबिंद सिंह ने मजबूत सशस्त्र प्रतिरोध आंदोलन चलाया । इसके चलते मुग़लों और पहाड़ी राजाओं की संयुक्त सेना से , आनंदपुर में , पर्वतीय राजाओं के घेराव से टकराना पड़ा।दस लाख की सेना के अपने-अपने धर्म के अनुसार ली गई मन्नत के भरोसे गुरु साहिब ने आनंदपुर छोड़ने का फैसला किया। इन बेशुमार सिपाहियों ने क़समें भुला गुरु साहिब के कारवां का पीछा किया और जवाबी कार्रवाई में सिखों की मुगल और पहाड़ी सेना के सैनिकों के साथ लड़ाई हुई।

8 पोह (21 दिसंबर) और 13 पोह (26 दिसंबर) सम्मत 1762 1705 [5] को बाबा अजीत सिंह (17 वर्ष) और बाबा जुझार सिंह ( 13 साल) साका चमकौर साहिब में लड़ते हुए शहीद हुए थे और दो छोटे साहिबजादे बाबा जोरावर सिंह (9 साल) और बाबा फतेह सिंह (7 साल) सरहिंद प्रांत की जेल में शहीद हुए थे। कुछ इतिहासकारों ने साका सरहंद को 13 पोह के स्थान पर 3 पोह सम्मत 1762 को घटित होने वाला लिखा है।

मैथिलीशरण गुप्त ने इस बलिदान के माहात्म्य के बारे में लिखा है-

जिस कुल जाती देस के बच्चे दे सकते हों यों बलिदान। उस का वर्तमान कुऊ भी हो भविष्य है महान।

गुरमत के अनुसार आध्यात्मिक आनंद प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को स्वयं को मिटाने की आवश्यकता होती है। यह रास्ता एक महान योद्धा का है। सिख पंथ की नींव रखने वाले पहले सिख गुरु नानक देव ने सिख मार्ग पर चलने को अपना शीश बलिदान देने की शर्त रखी थी। इसी रास्ते चल गुरु गोबिंद सिंह ने 1699 में खालसा की स्थापना की। खालसा एक आदर्श, पूर्ण और स्वतंत्र इंसान है जिसे गुरबाणी में सचियार, गुरुमुख और ब्रह्म ज्ञानी के रूप में वर्णित किया गया है। खालसा तन, मन, धन गुरु को समर्पित करता है, और जुल्म का विरोध करने के लिए लड़ने और मरने से नहीं हिचकिचाता – जौ ताऊ प्रेम खेलन का चाउ सिर धर तली गली मेरी आउ। इतु मार्गि पैर धारिजै सिर दीजै कान न की जाई। (पृष्ठ 1412) अरु सिख हों अपने ही मन कौ एह लालच हो गन ताऊ उचरों। जब आव की औध निदान बने अति ही रण मैं तब जूझ मरों।जब गुरु जी ने किला छोड़ा तो दुश्मन ने सारी कसमें तोड़ दीं और उनका पीछा करना शुरू कर दिया। 21 दिसंबर 1705 को, सरसा नदी के पास, एक भयंकर युद्ध हुआ, जिसके दौरान गुरु के दो छोटे बेटे और माँ गूजर कौर वहीर से अलग हो गये।

ठंडे बुरज़ का कारावास

माता गुजरीजी और दो छोटे साहिबजादों को गंगू ब्राह्मण मिला। यह उन्हें मोरिंडे के पास सहेरी गांव में उनके घर ले गया। घर जाकर गंगू का मन बेईमान हो गया। उन्होंने मोरिंडे थाने को सूचना दी और बच्चों को सौंप दिया। मोरिंदे के थानेदार ने 23 दिसंबर 1705 को मां और बच्चों को गिरफ्तार कर सूबा सरहिंद को सौंप दिया गया। उस रात उन्हें किले की ठंडी मीनार में रखा गया। दूसरे दिन बच्चों को सरहिन्द राज्य के न्यायालय में पेश किया गया। अदालत में बच्चों को धर्म स्वीकार करने के लिए लुभाने, डराने और धमकाने का प्रयास किया गया। उन्हें भी झूठ बोला गया कि तुम्हारे पिता को मार दिया गया है, अब तुम कहां जाओगे। बच्चों ने बहादुरी से सरहिंद राज्य में अपना धर्म छोड़ने से इनकार कर दिया। वजीर खान ने काजी से राय मांगी कि इन बच्चों को क्या सजा दी जा सकती है। काजी ने कहा कि इस्लाम में बच्चों को सजा देने की इजाजत नहीं है। वजीर खान भी कुछ हद तक अपने माथे पर बच्चों की हत्या से बचना चाहता था। अब उसने नवाब मलेरकोटला से कहा कि वह चाहे तो इन बच्चों को अपनी मर्जी से सजा देकर अपने भाई से बदला ले सकता है। शेर खाँ ने आगे कहा कि मेरा भाई युद्ध में मारा गया, मैं इन शीर खोरों (दूध पीने वाले बच्चों) से कोई बदला नहीं लेना चाहता। अल्लाह यार खान जोगी के शब्दों में – “बदला ही लेना होगा तो लेंगे बाप से। महफूज रखे हम को खुदा ऐसे पाप से।”Saka Sirhind – Dr. Harchand Singh Sarhindi Tract No. 528”. Sikh Digital Library.

मोती राम मेहरा का साहस

सरहंद के धर्मनिष्ठ मोतीराम मेहरा, कोल्ड टॉवर में शीतकालीन कारावास के दौरान वजीर खान के आदेशों की अवहेलना करते हुए मोती राम मेहरा जी गर्म दूध परोस कर साहिबजादों की मदद करते रहे। उन्हें कोल्हू में यातना देकर मौत की सजा दी गई।

बलिदान

काजी और शेर खां का ऐसा ही रवैया देखकर वजीर खां के मन में नरमी आने लगी, लेकिन दीवान सुच्चा नंद नहीं चाहते थे कि साहिबजादों को बख्शा जाए। ऐतिहासिक संदर्भों के अनुसार उसने साहिबजादों से शैतान की तरह कुछ सवाल पूछे, जिनके जवाबों ने उन्हें बागी साबित कर दिया। उन्होंने वज़ीर खान से भी आग्रह किया कि इन बच्चों को छोड़ना बुद्धिमानी नहीं होगी। वजीर खान ने काजी से फिर पूछा। इस बार काजी ने बच्चों को मालिकों की इच्छा के अनुसार दीवारों में तराशने का आदेश दिया। दीवारों में बच्चों की पहचान की गई थी। कंधों तक पहुंचते ही दीवार गिर गई। बच्चों के फूल जैसे शरीर मूर्छित हो गए, चोट सहन न कर सके। उसके बाद 27 दिसंबर को बच्चों को फिर से अदालत में पेश किया गया। उन पर फिर से धर्म परिवर्तन का दबाव डाला गया, लेकिन साहिबजादों ने इसका कड़ा विरोध किया। उन्होंने अपने दादा की तरह बलिदान होने की कसम खाई थी। भाई दुन्ना सिंह हंडुरिया जो गुरु जी से चमकौर की यात्रा समय उनके साथ था, ऐसा लिखता है- जोरावर सिंह ऐसा, क्यों भाई! आप यह क्यों करते हैं? फतेह सिंह तब कह्यो बखान, ‘दस पातशाही होवह हान। अब हुक्म हुआ बच्चों को जिबाह करने का. दोनों जल्लादों ने दोनों बच्चों को अपने घुटनों के नीचे रखा और पहले उनके गले में खंजर घोंप दिया और फिर उन्हें तलवारों से उनके शरीर से अलग कर दिया। ठंडे बुर्ज में कैद माता गुजर कौर जी को जब साहबजादों के बलिदान की खबर मिली तो उन्होंने तुरंत अपने प्राण त्याग दिए। साहिबजादों का बलिदान सिर्फ बलिदान नहीं बल्कि उससे कहीं ज्यादा थी। उन्हें मानसिक रूप से बहकाने का प्रयास किया गया। कई बार उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया और उन्हें यातनाएं दी गईं। उन्होंने यह सब अत्याचार कैसे सहा इसका अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता। उन्होंने अत्याचार से मुंह मोड़कर दस रियासतों के गौरव को बनाए रखा और असाधारण साहस का परिचय देते हुए खालसा पंथ को जीत दिलाई। गुरु जी के बच्चों को इस इरादे से मारा गया कि गुर उपदेश का दीपक इस दुनिया से बुझ जाएगा। लेकिन उन्हें इस बात का आभास नहीं था कि गुरमत की अखंड ज्योति खालसाओं के दिलों में प्रवेश कर चुकी है। साहिबजादों के बलिदान के बारे में गुरु गोबिंद सिंह ने औरंगजेब को लिखा कि ऐसा क्या हुआ है कि मेरे चार बच्चे मारे गए, मेरा पांचवा बेटा खालसा अभी जिंदा है जो फनियार नाग है-

ਚਿਹਾ ਸ਼ੁਦ ਕਿ ਚੂੰ ਬੱਚਗਾਂ ਕੁਸ਼ਤਹ ਚਾਰ ॥ ਕਿ ਬਾਕੀ ਬਮਾਂਦਸਤ ਪੇਚੀਦਹ ਮਾਰ चिहा शुद कि चूँ बचगाँ कुश्तह चार| कि बाकी बमाँदस्त पेचिदह मार”78. जफरनामा

उस स्थान पर एक सूचना बोर्ड जिस में साहिबज़ादों को ज़िंदा दिवार में गाढ़ा गया

धार्मिक स्वतंत्रता के लिए गुरु तेग बहादुर के बलिदान और गुरु गोबिंद सिंह के उत्पीड़न का विरोध से प्रेरित सरहंद के एक धनी दीवान टोडर मल , सोने की मुहर वाले स्तम्भ लगाने की शर्त में, “दुनिया की सबसे महंगी” जमीन खरीदी, जिस पर साहिबजादों का अंतिम संस्कार किया गया था। आजकल सरहंद में उस स्थान पर गुरुद्वारा ज्योति रूप सजाया जाता है।

साहिबजादों के बलिदान की कहानी जब ,राय कला के भेजे दूत , नूरेमाही ने गुरु गोबिंद सिंह को रायकोट और जगरावां के पास गांव लामा जट्टापुरा में सुनाई तब गुरु साहिब ने घास का एक तिनका खोदा और भविष्यवाणी की कि मुग़ल राज्य की नींव नष्ट हो जाएगी। इस घटना से मुगल सल्तनत की जड़ें उखड़ गई हैं और उन्होंने अकाल पुरख के प्रति आभार व्यक्त करते हुए प्रार्थना की कि बच्चों का उपहार, राष्ट्र और अकाल पुरख़ को समर्पित हो गया है। आजकल, वहाँ आजकल गुरुद्वारा गुरुसर पंजुआना साहिब स्थित है ।

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