स्मृति शेष: परतंत्र भारत में आखिरी फांसी थी पं. राजनारायण मिश्र को

सियासत के पत्थरों ने निगल ली शहादत की सरज़मी ◆●◆ गुमनामियों के अँधेरे में खो गई जंग-ए-आज़ादी की आखिरी शहादत ◆●◆ अमर शहीद राजनारायण मिश्र के 75वें शहादत दिवस 9 दिसम्बर पर विशेष
• Yadunath Singh Murari

वतन की आजादी को क्रान्तिनायक पंडित राज नारायण मिश्र की शहादत आजाद भारत में कहीं खो सी गई है। जिस शहर लखनऊ में उन्हें फाँसी हुई, वहाँ उनका कोई स्मारक तक नहीं है। जिस लखनऊ जेल में उन्हेें फाँसी हुई थी, वहाँ एक सियासी शख्सियत का भव्य स्मारक व उसी शख्सियत के नाम पर निर्मित कृत्रिम इकोगार्डेन क्रान्तिनायक राजनारायण मिश्र के शहादत की सरज़मी को निगल गया है।

स्वाधीनता-यज्ञ में अंतिम आहुति लखीमपुर खीरी जिले के भीखमपुर ग्राम निवासी क्रांतिकारी राज नारायण मिश्र की थी। उनकी शहादत के 76 साल हो चुके हैं। आजादी के बाद जो सम्मान उनकी शहादत को दिया जाना चाहिए, वह नहीं दिया गया। उनके 76वें शहादत दिवस पर यह सवाल उठना लाजिमी है। इस सवाल का जवाब देश के हुक्मरानों को देना देना चाहिए
जिला कारागार लखनऊ के इतिहास में सन् 1944 के दिसम्बर महीने की 9 तारीख देश की आजादी की लड़ाई के संदर्भ में खास अहमियत रखती है। इस तारीख की सर्द और खामोश अलसुबह जेल के भीतर देश की स्वाधीनता-यज्ञ की अंतिम आहुति पड़ी। इस घटना का जिक्र हर हिन्दुस्तानी के जेहन को झकझोर देने के लिए काफी है। लेकिन मलाल इस बात का है कि स्वाधीनता के बीते 70वर्षों में उस आहुति का श्रद्धापूर्वक स्मरण तथा नमन करना तो दूर, उधर देखा तक नहीं गया। इसके बावजूद, स्वाधीनता यज्ञ की अन्तिम आहुति के रूप में क्रांतिनायक राजनारायण मिश्र के बलिदान के महत्व को न तो कम किया जा सकता है और न ही देश के प्रति उनके योगदान को खारिज किया जा सकता है।
जिला जेल लखनऊ में उस दिन अजीब सी ख़ामोशी का मंजर था। वहाँ के बेहद उदास माहौल में क्रांतिनायक राज नारायण मिश्र की फाँसी की तैयारियाँ चल रही थीं। उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों के फलस्वरूप उन्हें 27 जून,1944 को फाँसी की सजा सुनाई गई थी। शाम को श्री मिश्र से जेलर ने कहलवाया कि वे अपने भाई बाबूराम मिश्र से मुलाकात कर लें, जो क्रांतिकारी गतिविधियों के संचालन के आरोप में इसी जेल में 38 वर्ष की सजा काट रहे थे। राज नारायण मिश्र ने ऐसा करने से मना कर दिया, और कहा ”भारत माँ की आजादी के लिए अपना जीवन न्यौछावर करने से पूर्व अपने प्रिय भाई से मिलकर मोहवश दुख और विषाद पैदा हो सकता है। मैं इससे बचना चाहता हूँ, ताकि शहीद होने की बेला पर धर्मच्युत न हो जाऊँ।“
इससे पूर्व राजनारायण मिश्र की जीवन संगिनी श्रीमती विद्या मिश्र अपने एक मात्र शिशु के साथ जब उनसे मिलने आई तो उदासी और गहन पीड़ा की लकीरें उन्होंने अपनी पत्नी के चेहरे पर देखीं। यह देखकर उन्होंने अपनी पत्नी से कहा ”कितना बड़ा सम्मान मिलने जा रहा है तुम्हारे पति को, और तुम उदास हो ? हँसते हुए स्थितियों का मुकाबला करो। आजादी के लिए फाँसी पर चढ़ना तो मेरे लिए गौरव की बात है।“ श्री मिश्र ने अपने दुधमुहे शिशु को आशीर्वाद देते हुए अपनी पत्नी से कहा-“इसे ऐसी शिक्षा देना जिससे यह भी मेरी ही तरह खुद को देश के लिए बलिदान कर सके।“ उन्होंने अपनी पत्नी को यह परामर्श दिया कि वह वर्धा जाकर गाँधी जी की छत्रछाया में देश के लिए जो भी कर सकती हैं, करें।
आखिर वह घड़ी आ ही गई, जब राजरानायण मिश्र को फाँसी के तख्ते पर खड़ा कर दिया गया। उन्होंने फाँसी के तख्ते पर खड़े होकर ‘वन्दे मातरम्’ ओजपूर्ण स्वरों में गाते हुए ‘इंकलाब जिन्दाबाद’ और ‘हम आजाद हैं’ के नारे लगाए। जेलर, जल्लाद और जेल स्टाफ के लोग इस वीर युवक को देखकर रो रहे थे, किन्तु वह वीर, निडर युवक बेपरवाही से हँस रहा था। मात्र 24 वर्ष की मचलती जवानी में देश की आजादी की खातिर फाँसी पर चढ़ने वाले इस युवक को देखकर आखिर कौन ऐसा होगा, जिसके आँसू टपक न पड़ें ? भोर की किरण फूटने से पहले आजादी की लड़ाई के इस महान नायक को फाँसी दे दी गई।
भारत माँ को आंग्ल शासकों की पराधीनता की बेड़ी से मुक्त कराने के लिए स्वाधीनता आन्दोलन जो 1857 में अमर शहीद मंगल पाण्डेय की शहादत से शुरू हुआ था, लखनऊ के जिला कारागार में इस तरह अमर शहीद राजनारायण मिश्र के बलिदान से स्वाधीनता यज्ञ की अंतिम आहुति पड़ी। ब्रिटिश सरकार अब और भी अधिक भयाक्रांत हो उठी। अमर शहीद श्री मिश्र के शव को अंग्रेजी सरकार ने परिजनों को देने से इंकार कर दिया। सरकार के इस रवैये को देखकर लखनऊ के कुछ कांग्रेसी नेताओं तथा लखीमपुर-खीरी के राम आसरे शुक्ल के हस्तक्षेप पर बड़ी मुश्किल से सरकार ने उनका शव परिजनों को सौंपा। शव को तिरंगे ध्वज तथा फूल मालाओं में लपेट कर सैकड़ों क्रांतिकारियों तथा जनता की भारी उपस्थिति के मध्य कानपुर के गंगाघाट पर उनका दाह संस्कार किया गया। श्री मिश्र के इस बलिदान ने देश के जनमानस को झकझोर दिया था। पूरे देश में शोक की लहर छा गई। उस दिन लखनऊ में क्रांतिकारी खुल कर सामने आ गए और अभूतपूर्व हड़ताल हुई।
लखनऊ के जिला कारागार में 9 दिसम्बर 1944 को रचे गए इस अमिट इतिहास के पार्श्व में क्रांतिनायक राजनारायण मिश्र के अपूर्व संघर्ष, त्याग, शौर्य और साहस की तमाम गाथाएँ हैं। आज उन गाथाओं का स्मरण किया जाना बेहद जरूरी है, ताकि नई पीढ़ी उस जाँबाज शख्सियत की निडरता, स्वाभिमान तथा देश पर मर-मिटने की भावना से कुछ प्रेरणा ले सके।
ऐतिहासिक तथ्यों और जनश्रुतियों के मुताबिक जिला लखीमपुर-खीरी में आजादी की लड़ाई का सिलसिला लम्बा और पुराना है। परतंत्रता की विषबेल में गुंथे भारत के जनमानस में जब आजादी के अरमान मचलने लगे तब जिला खीरी इससे अछूता नहीं रह सका। जनपद खीरी में स्वाधीनता समर के पुण्यतीर्थ मितौली के राजा लोने सिंह के महल से सन् 1857 में स्वाधीनता यज्ञ की ज्योति प्रज्ज्वलित हुई। मितौली के राजा लोने सिंह, जहाँ एक ओर अंग्रेजों से लोहा लेते हुए शहीद हुए, वहीं लंबे संघर्ष के बाद अंग्रेजों की गिरफ्त में आए। धौरहरा के राजा इन्द्र विक्रम सिंह जेल के भीतर स्वर्गवासी हुए। उसके उपरान्त सन् 1920 तक जिले में अंग्रेजों का कुशासन कायम रहा। 1920 के खिलाफत आन्दोलन में जब जिले के कलक्टर बिलोवी को नशीरूद्दीन उर्फ मौजी, वशीर अली और माशूक अली ने कत्ल कर दिया तो उन्हें फाँसी की सजा दी गई। इसके बाद जनपद का सम्पूर्ण जनमानस अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई के लिए उठ खड़ा हुआ।
जिले की गोला तहसील के अन्तर्गत एक गाँव है भीखमपुर। इस गाँव में जब आजादी की लड़ाई की अलख जगी तो गाँव का हर नौजवान सिर पर कफन बाँधकर निकल पड़ा। इनमें ही एक नौजवान राज नारायण मिश्र थे, जो पं. बलदेव प्रसाद मिश्र तथा माता तुलसा देवी के बेहद दुलारे पुत्र थे। सन् 1941 में जब जनपद के बड़े क्रान्तिकारी नेता गिरफ्तार कर लिए गए तो आन्दोलन की बागडोर विद्यार्थियों ने संभाल ली। ओयल कस्बे का युवराज दत्त विद्यालय उन दिनों विद्यार्थी आन्दोलन का केन्द्र बन गया था। इन विद्यार्थियों का नेतृत्त्व राज नारायण मिश्र तथा करन सिंह ने किया। फलस्वरूप इन दोनों लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया तथा इन्हें एक-एक वर्ष की सजा मिली।
राज नारायण व उनके साथियों के जेल जाने के बाद सरकार की दमन नीति के बावजूद सत्याग्रह का जोर जनपद में कम नहीं पड़ा। सत्याग्रहियों से जेले भर गईं। इसी समय सिंगापुर पर जापानियों का अधिकार हो गया। यहाँ पर भी किसी अनहोनी की आशंका से तमाम सत्याग्रहियों की एक साथ छोड़ दिया गया। सरकार जिन्हें बहुत ही खतरनाक क्रान्तिकारी मानती थी, उन्हें रिहा नहीं किया गया। 9 अगस्त, 1942 को जब बम्बई के अखिल भारतीय कांग्रेस के सम्मेलन में भारत छोड़ो प्रस्ताव स्वीकार किया गया, तो स्वाधीनता हेतु आरपार की लड़ाई के लिए पूरा देश उठ खड़ा हुआ। समूची दुनिया ने देखा कि एक क्षण पहले सोता हुआ देश गरज कर जाग उठा।
जनपद खीरी में तो भारत छोड़ो आन्दोलन की मुखरता का कोई पैमाना नहीं था। भोले-भोले किन्तु स्वाभिमानी ग्रामीणों ने स्वतः स्फूर्त भावना से अंग्रेजों के खिलाफ आरपार की लड़ाई के लिए सिर पर कफन बाँध लिया। इन आन्दोलनकारियों ने जिले के अनेक भागों में ब्रिटिश सत्ता उखाड़ फेंकी। भीखमपुर गाँव के लोग राजनारायण मिश्र के नेतृत्त्व में सक्रिय थे। ये लोेग जिले भर में पूरी निडरता के साथ क्रांतिकारी गतिविधियां चला रहे थे। राजनारायण मिश्र ने अपने बड़े भाई बाबूराम मिश्र के अलावा रूप नारायण, कैलाश नाथ , भगवान दास मिश्र और साधोराम शुक्ल से परामर्श करके अंग्रेजी शासन समाप्त करने के लिए खीरी व आस-पास के जनपदों में छापा मार रणनीति अपनाने का निश्चय किया। इसके लिए शस्त्र एकत्रित करना बेहद जरूरी था। बहुत से लोगों ने अपनी बंदूकें इस पुनीत कार्य के लिए राजनारायण मिश्र को प्रदान कर दीं। श्री मिश्र अपने साथियों के साथ अंग्रेजों से सीधा मुकाबला करते हुए अंग्रेजी दासता के चिह्नों को मिटाने में लग गए।
14 अगस्त को राजनारायण मिश्र अपने दो सार्थियों के साथ रियासत महमूदाबाद के कोठार में जिलेदार से बंदूक मांगने गए। जिलेदार ने बंदूक देने के बजाय बंदूक की नली इनकी ओर सीधी कर दी। स्थिति की गंभीरता को भांप कर राजनारायण मिश्र ने जिलेदार की अपनी गोली का निशाना बना कर मौत के घाट उतार दिया। यहाँ भी क्रांतिकारियों की धर- पकड़ जारी थी। इसके बावजूद उक्त कांड के तीन दिन बाद राजनारायण अपने साथियों के साथ आसपास के इलाकों में अंग्रेजी राज की चूलें हिलाते रहे। उन्होंने इस इलाके को स्वतंत्र घोषित कर दिया। जिले की पुलिस व अन्य कर्मचारी उस तरफ जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। 18 अगस्त को इस क्षेत्र पर अपना अधिकार जमाने के उद्देश्य से अंग्रेजी फौज की एक टुकड़ी यहाँ आई। फौज ने आते ही यहाँ पर दमनात्मक कार्यवाई शुरू कर दी। यहाँ के लोग गाँव छोड़ कर जंगल में बिखर गए और वहीं से फौज व अफसरों के ठिकानों पर छापा मार तरीके से हमला करते रहे। एक दिन फौज व क्रांतिकारियों के बीच जबरदस्त भिड़ंत हुई। खूब गोलियाँ चलीं। क्रान्तिकारियों ने फौज को पीछे खदेड़ दिया। उसी समय आजादी की लड़ाई के अग्रिम पंक्ति के सिपाही ग्राम संसारपुर निवासी रम्पा तेली पर किसी ने हमला बोल दिया। रम्पा युद्ध स्थल पर ही शहीद हो गए। अंतिम क्षणों में वीर सेनानी रम्पा के हाथ में तिरंगा झंडा था, जिसे वे इंकलाब जिन्दाबाद की लड़खड़ाती ध्वनि के साथ सीधा करने का प्रयास कर रहे थे।
अंग्रेजों शासन ऐसी कार्यवाइयों के फलस्वरूप बौखला उठा। चूँकि इन सब गतिविधियों के सूत्रधार राजनारायण मिश्र थे, उनको गिरफ्तार करने के लिए अंग्रेजी सरकार ने कमर कस ली। उधर, भीखमपुर गाँव को नेस्तानबूद करने के लिए अंग्रेजी सत्ता ने सेना और पुलिस की सहायता से दमनात्मक कार्यवाइयाँ शुरू कर दीं। अंग्रेजी सत्ता एक बार पुनः आजाद हुए क्षेत्रों में काबिज हो गई। राजनारायण मिश्र उस समय भूमिगत हो गए थे, लेकिन अपनी गतिविधियाँ उन्होंने जारी रखीं। भीखमपुर गाँव के प्रत्येक व्यक्ति को गिरफ्तार कर उन पर मुकदमा चलाया गया। इनमें से 100 व्यक्तियों केा 20-20 वर्ष कैद की सजा हुई। राजनारायण मिश्र को फरार घोषित कर दिया गया, और उन्हें जीवित अथवा मृत अवस्था में गिरफ्तार करने के लिए 500 रूपए का इनाम घोषित किया गया। उनके बड़े भाई मिश्र को 38 वर्ष कैद की सजा दी गई। अंग्रेजी शासकों की हिंसात्मक कार्यवाहियाँ अब पूरे उफान पर थीं। भीखमपुर गाँव में लोग सेना व पुलिस के आतंक से जंगल तथा अन्य दूसरे स्थानों पर चले गए थे। जरा सा सन्देह होने पर लोगों को गिरफ्तार कर लिया जाता। पुलिस ने घरों का सामान लूट लिया था। बूढ़े स्त्री-पुरूष तथा बच्चों को चाबुकों से पीटा गया। खेतों की फसलें नष्ट कर उनमें नमक बो दिया गया। यह अत्याचारों की चरम सीमा थी।
दमनात्मक कार्यवाइयों के फलस्वरूप जिले में क्रांतिकारी गतिविधियों पर असर पड़ा। अदालत द्वारा फरार घोषित किए जाने तथा जीवित अथवा मृत अवस्था में गिरफ्तार किए जाने हेतु 500 रुपया पुरस्कार की घोषणा के बाद राजनारायण मिश्र का जिले में रहना मुश्किल पड़ गया। पुलिस उनके पीछे पड़ गई थी। उन्होंने जिला छोड़ दिया। वे देश में प्रदेश के विभिन्न भागों में वेश व नाम बदल कर घूमते हुए क्रांति का सृजन करते रहे। मध्य प्रदेश में ब्रिटिश विरोधी कार्यों के कारण उन्हें गिरफ्तार किया गया। उन्हें वहाँ दो माह तक नजर बंद रहना पड़ा। जब महात्मा गाँधी ने आगा खाँ महल की कैद में 21 दिनों का ऐतिहासिक अनशन किया, तब श्री मिश्र को बम्बई प्रान्त में हड़ताल कराने के दण्ड में 6 महीने की सजा मिली, जो उन्होंने नाम व पता बदल कर भुगती। वहाँ से छूटने के उपरान्त वे अक्टूबर 1943 में उत्तर प्रदेश आए। हरिद्वार, ऋषिकेश, काशी आदि स्थानों का भ्रमण करते हुए वे मेरठ के गाँधी आश्रम के एक कार्यकर्ता के यहाँ ठहरे। यहाँ उन्होंने अपना असली परिचय दिया। दुर्भाग्यवश वे वहीं गिरफ्तार कर लिए गए और लखीमपुर-खीरी लाए गए।
लखीमपुर-खीरी आने के बाद श्री मिश्र पर मुकदमा चला। उनकी पत्नी श्रीमती विद्या देवी ने मुकदमा लड़ने के लिए सब कुछ दाँव पर लगा दिया। अपनी जमीन व जेवर बेच कर उन्होंने मुकदमा लड़ा। 27 जून 1944 को मुकदमे का फैसला सुनाया गया। उन्हें फाँसी की सजा सुनाई गई। अपील व दया की प्रार्थना की गई, लेकिन निष्कर्ष कुछ नहीं निकला। प्रिवी कौंसिल में अपील करने को समय की छूट नहीं दी गई। फाँसी की सजा को उन्हें लखीमपुर-खीरी से लखनऊ जिला जेल लाया गया। 9 दिसम्बर, 1944 को अंग्रेजी सरकार की चूलें हिला देने वाले महान क्रान्तिनायक राजनारायण मिश्र को फाँसी पर चढ़ा दिया गया।
वतन की आजादी के लिए क्रान्तिनायक राज नारायण मिश्र की यह शहादत आजाद भारत में कहीं खो सी गई है। जिस शहर लखनऊ में उन्हें फाँसी हुई, वहाँ उनका कोई स्मारक तक नहीं है। जिस लखनऊ जेल में उन्हेें फाँसी हुई थी। वहाँ एक सियासी शख्सियत का भव्य स्मारक व उनके नाम पर कृत्रिम इकोगार्डेन शोभा बढ़ा रहा है। आजादी के दीवाने इस शहीद के नाम पर कहीं किसी आयोजन के भी दीदार नहीं होते हैं। उनकी शहादत का ये हश्र देख दिल में एक हूक सी उठती है। आजादी के दीवानों की शहादत पर लिखा गया यह शेर ”शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले” के हरफ धुँधले होते नजर आते हैं।

-यदुनाथ सिंह मुरारी

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