मत:उत्तर भारत के ही किसान क्यों कर रहे आंदोलन?

उत्तर भारत के किसान ही क्यों कर रहे प्रदर्शन?
February 16, 2024,

लेखक: नरेंद्र पाणि

दिल्ली-NCR में किसानों का विरोध-प्रदर्शन फिर शुरू हो गया है। आर्थिक नीतियां बनाने वालों का मानना है कि किसानों को मिलने वाली कीमत बाजार को तय करने देना चाहिए। किसान आर्थिक मुश्किलों से घिरे हैं। उनसे आदर्श अर्थव्यवस्था की बात करने का मतलब होगा, उन्हें उनके हाल पर छोड़ देश की खाद्य सुरक्षा से समझौता करना। किसानों के विरोध को तीन बड़े परिवर्तनों के संदर्भ में देखा जाना चाहिए।

बेहतर आय: पहला, GDP में खेती-किसानी की हिस्सेदारी घटती जा रही है। गैर-कृषि क्षेत्रों से होने वाली आय कहीं अधिक तेजी से बढ़ रही है। दुनिया के मुकाबले भारत में कृषि उत्पादकता काफी कम है। लेकिन, अगर यह अंतर खत्म हो जाए, तो भी तेजी से बढ़ते इंफोटेक जैसे सेक्टर की तुलना में खेती से होने वाली आय कहीं नहीं टिकेगी। किसान चाहते हैं कि यह अंतर कम हो।

बढ़ती आकांक्षाएं: दूसरा, ग्रीन रिवॉल्यूशन से उन इलाकों को ज्यादा फायदा हुआ, जहां सिंचाई की व्यवस्था थी। दूसरे इलाके पीछे छूट गए। दोनों क्षेत्रों की कृषि उत्पादकता में बड़ा अंतर आ गया। अब हरित क्रांति से फायदा उठाने वाले क्षेत्रों की आकांक्षा बढ़ चुकी है। उन्हें कृषि से अधिक रिटर्न चाहिए। वहीं, जो क्षेत्र हरित क्रांति का लाभ नहीं ले पाए, वहां के लोग अब खेती-किसानी के बाहर के रास्ते तलाश रहे हैं।

ग्लोबल वॉर्मिंग: तीसरा, जलवायु परिवर्तन का दुनिया पर प्रभाव। ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते उत्तरी गोलार्ध के बड़े क्षेत्रों में ठंड कम होगी। इससे वहां कृषि की संभावनाएं बढ़ेंगी। कनाडा सरकार की एक वेबसाइट पर बताया है कि किसान गर्म मौसम वाली फसलें उगाकर लंबी गर्मियों का फायदा उठा सकते हैं। इससे किसान समुदाय के इमिग्रेशन के लिए कनाडा और खुल गया है। विरोध-प्रदर्शनों में पंजाब सबसे आगे है।

बाजार के पास जवाब नहीं: अर्थशास्त्री कहेंगे कि इन तीनों परिवर्तन के असर पर कोई फैसला बाजार को लेने दीजिए। लेकिन बाजार कृषि उत्पादन को फूड सिक्यॉरिटी से अलग राह पर ले जा सकता है। जो इलाके कृषि के नजरिये से पिछड़े हैं, वहां उत्पादन और गिरने की आशंका है। वजह यह है कि बाजार की मांग के अनुसार, खेतों में काम करने वाले लोग खेती छोड़कर ज्यादा आकर्षक मौकों की ओर चले जाएंगे।

फूड सिक्यॉरिटी: हो सकता है भोजन की औसत उपलब्धता के मद्देनजर खाद्य सुरक्षा पर इन रुझानों का प्रभाव बहुत महत्वपूर्ण न लगे, लेकिन कुछ जटिलताओं से इसे महसूस किया जा सकता है। प्रोडक्शन साइकल से खाद्यान्नों की कीमत में उछाल आ सकता है। अगर प्रति व्यक्ति खाद्य तेजी से नहीं बढ़ता, तो कीमतें तेजी से बढ़ने लग जाएंगी। कुछ संकेत यह भी हैं कि गेहूं का प्रति व्यक्ति उत्पादन कम हो सकता है।

तर्क से परे: जिस देश में 80 करोड़ जनता को मुफ्त भोजन देना हो, वहां सरकार से खाद्य कीमतों में तेज उछाल को नजरअंदाज करने की उम्मीद नहीं की जा सकती। बाजार के पक्ष में खड़े अर्थशास्त्रियों को निराश करते हुए सरकारें समय-समय पर निर्यात पर अंकुश लगाती रहती हैं, ताकि बढ़ती कीमतों पर लगाम लगाई जा सके। इससे तात्कालिक मकसद तो पूरा हो जाता है, लेकिन किसानों को नुकसान उठाना पड़ता है।

खेती को बढ़ावा: व्यावहारिक राजनीति के दायरे से बाहर बाजार के लिए खुली छूट के साथ आगे बढ़ने का एकमात्र रास्ता है दीर्घकालिक खाद्य सुरक्षा पर ध्यान लगाना। शायद ही कोई सरकार 80 करोड़ लोगों को मुफ्त भोजन देने से पीछे हट पाए। ऐसे में कृषि नीति का लक्ष्य इसकी आपूर्ति के साथ यह पक्का करने पर होना चाहिए कि बाकी आबादी के लिए बुनियादी खाद्य की उचित कीमत हो। सरकार कृषि प्रबंधन सहकारी समितियों की स्थापना को प्रोत्साहित कर सकती है। ये समितियां बिना कोई फीस लिए और जमीन पर बिना कोई अधिकार जताए, ऐसे खेतों को मैनेज कर सकती हैं जहां अभी प्रोडक्शन कम है।

किसानों के हितों की रक्षा करते हुए दीर्घकालिक खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना कोई आसान काम नहीं। लेकिन, किसानों के बारे में बैठकर कोई धारणा बनाने से बेहतर है कि आगे बढ़ने का रास्ता तलाशा जाए।

(लेखक नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडीज, बेंगलुरु में सामाजिक विज्ञान के डीन हैं)

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