मत:इस किसान आंदोलन से भाजपा को होगा नुकसान?

Farmers Protest: किसान आंदोलन से भाजपा को कितना नुकसान, पिछले आंदोलन के बाद जीते थे चार विधानसभा चुनाव
इस बार जो किसान संगठन आंदोलन के लिए सड़कों पर उतरे हैं, उनकी संख्या और ताकत पहले आंदोलन की तुलना में बहुत कम है। संयुक्त किसान मोर्चा की अगुवाई में लगभग 40 किसान संगठन-जत्थेबंदियां सड़कों पर उतरी थीं। दर्शन पाल सिंह, गुरनाम सिंह चढ़ूनी और कई अन्य बड़े किसान नेता इस बार आंदोलन में शामिल नहीं हैं…

लोकसभा चुनाव 2024 के ठीक पहले किसान एक बार फिर न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग को लेकर आंदोलन की राह पर उतर आए हैं। जिस समय राम मंदिर निर्माण के जोश से लबरेज भाजपा अपने पूरे वेग में आगे बढ़ रही थी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 400 से ज्यादा सीटें जीतने का दावा कर रहे थे, किसान उसके रास्ते में आकर खड़े हो गए हैं। यह माना जा रहा है कि यदि यह मामला नहीं सुलझा, तो भाजपा को इससे नुकसान हो सकता है। तीन-तीन बड़े केंद्रीय मंत्री जिस तरह इस मामले को सुलझाने के लिए लगातार प्रयास कर रहे हैं, उससे भी यह समझ आ रहा है कि भाजपा को भी इससे नुकसान होने की आशंका है। लेकिन बड़ा प्रश्न यही है कि यदि किसानों का आंदोलन पहली बार की तरह ज्यादा आक्रामक हुआ तो इससे भाजपा को कितना नुकसान हो सकता है?

पिछली बार जब 2020-21 में किसान आंदोलन हुआ था, तब संयुक्त किसान मोर्चा के बैनर तले 40 से ज्यादा किसान संगठनों ने उसमें हिस्सा लिया था। लगभग डेढ़ साल चले आंदोलन में किसानों ने कई परेशानियों के बाद भी अपना आंदोलन जारी रखा और अंततः प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 19 नवंबर 2021 को तीनों विवादित कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा करनी पड़ी थी।

भाजपा की बड़ी जीत
इसके ठीक बाद यानी फरवरी-मार्च 2022 में पांच राज्यों (उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा, मणिपुर और पंजाब) की विधानसभाओं के चुनाव हुए थे। किसानों ने इन चुनावों में भाजपा के बहिष्कार की घोषणा की थी। लेकिन किसानों की इस अपील का जनता पर कोई असर नहीं हुआ था। भाजपा ने इनमें से चार राज्यों (उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा) में सफलता प्राप्त की थी, जबकि पंजाब में आम आदमी पार्टी बड़ी जीत हासिल करने में सफल रही थी।

किसानों की अपील का कोई असर नहीं
उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में भाजपा की जीत इस मायने में एतिहासिक भी थी कि उत्तर प्रदेश में तीन दशक के बाद कोई पूर्ण बहुमत की सरकार सत्ता में लगातार वापस आने में सफल हुई थी। उत्तराखंड में हर बार सत्ता बदलने का रिवाज था, लेकिन भाजपा ने सभी परंपराओं को ध्वस्त करते हुए दोबारा सत्ता में आने में सफलता हासिल की। यूपी के लखीमपुर खीरी, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के जिन किसान बहुल इलाकों में भाजपा को बड़े नुकसान होने की आशंका जाहिर की जा रही थी, वहां भी भाजपा ने बड़ी जीत हासिल की थी। यानी किसान आंदोलन का जनता पर कोई असर नहीं हुआ था।

इस बार क्या होगा
इस बार जो किसान संगठन आंदोलन के लिए सड़कों पर उतरे हैं, उनकी संख्या और ताकत पहले आंदोलन की तुलना में बहुत कम है। संयुक्त किसान मोर्चा की अगुवाई में लगभग 40 किसान संगठन-जत्थेबंदियां सड़कों पर उतरी थीं। दर्शन पाल सिंह, गुरनाम सिंह चढ़ूनी और कई अन्य बड़े किसान नेता इस बार आंदोलन में शामिल नहीं हैं। इससे भी इस बात की आशंका है कि इस बार का किसान आंदोलन ज्यादा सफल नहीं होगा।

राजनीति की बू
कुछ लोगों का मानना है कि अपनी खोई सियासी जमीन दोबारा हासिल करने के लिए अकाली दल पंजाब के किसान संगठनों को पैसा और संसाधन देकर इस आंदोलन को हवा दे रही है। यानी किसानों की आड़ में राजनीति ज्यादा हो रही है और किसानों का हित करने का इरादा कम है। इधर, उधर कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने भी भारत जोड़ो न्याय यात्रा के एक कार्यक्रम में छत्तीसगढ़ में एलान कर दिया है कि यदि कांग्रेस सत्ता में आती है, तो किसानों को एमएसपी की कानूनी गारंटी दी जाएगी। राहुल गांधी ने इसे कांग्रेस की पहली गारंटी करार दे दिया है। लेकिन यदि इस मामले पर राजनीति होती है, तो किसानों के आंदोलन में नैतिक बल कमजोर पड़ सकता है। इससे आंदोलन का जनता पर असर कम हो सकता है।

जनता का साथ भी नहीं
किसानों के दिल्ली आने की चर्चा के बीच जनता की परेशानी बढ़ गई है। यूपी गेट बॉर्डर पर पुलिस ने भारी बैरिकेडिंग कर दी है जिससे लोगों को भारी जाम से होकर गुजरना पड़ रहा है। लोगों का कहना है कि किसानों की आड़ में कुछ लोग अपनी राजनीति करने के लिए बार-बार लोगों को परेशान कर रहे हैं। इस समस्या का हल निकलना चाहिए। लोग बार-बार सड़क बंद करने की कोशिश से भी तंग आ गए हैं और लोगों में किसानों के खिलाफ ही नाराजगी बढ़ रही है। यदि किसानों को जनता का साथ नहीं मिला तो भी इससे किसान आंदोलन का असर कम हो सकता है।

किसानों पर भरोसा नहीं
इस बार भी कई ऐसे फोटो-वीडियो सामने आने लगे हैं, जहां किसान करोड़ों रुपये की महंगी गाड़ियों में सवार होकर आंदोलन के लिए आगे आ रहे हैं। अभी से यह सवाल होने लगे हैं कि यदि इन किसानों के पास करोड़ों रुपयों की गाड़ी खरीदने का पैसा है तो वे न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए आंदोलन क्यों कर रहे हैं। स्पष्ट बात है कि इस तरह के किसानों की संख्या नगण्य है, लेकिन ऐसे लोगों के आंदोलन में शामिल होने से किसानों की विश्वसनीयता पर सवाल उठने लगे हैं।

मोदी की किसानों के बीच विश्वसनीयता
वरिष्ठ पत्रकार राकेश मोहन ने  कहा कि मोदी सरकार ने किसानों के लिए कई बड़े कार्यक्रम चलाए हैं। देश के 8.12 करोड़ किसानों को हर साल 6000 रुपये की आर्थिक मदद दी जा रही है। किसान क्रेडिट कार्ड के जरिए बेहद कम ब्याज दर पर उन्हें कर्ज उपलब्ध कराया जा रहा है। खाद-बीज की खरीद पर भी छूट दी जा रही है। बिजली-पानी की सुविधा भी कहीं पर पूरी तरह मुफ्त तो कहीं मामूली लागत पर दी जा रही है। इसके बाद किसानों को फसलों को बेचने के लिए बाजार उपलब्ध कराया जा रहा है।

उन्होंने कहा कि हर साल 22 से ज्यादा फसलों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाकर दिया जा रहा है और उनकी खरीद सुनिश्चित की जा रही है। खेती में नई-नई तकनीकी सहयोग देकर किसानों की आर्थिक शक्ति बढ़ाने का प्रयास किया जा रहा है। किसानों को सौर ऊर्जा उत्पादन करने के लिए प्रेरित कर हर किसान को 15 से 20 हजार रुपये मासिक कमाने लायक बनाने के प्रयास चल रहे हैं। इसके बाद भी किसानों की नाराजगी लोगों की समझ से बाहर है। यही कारण है कि इस बार भी किसान आंदोलन का बहुत असर होने की संभावना नहीं है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *