प्राचीन अर्थ व्यवस्था: भारत सोने की चिड़िया कैसे था जिसे पूरी दुनिया लूटने लपकती थी?

कोई आठ पीढ़ी पहले कच्छ का एक वनजारा राजस्थान से बैल लेकर सौराष्ट्र बेचने गया। वहां उसे एक सौदा करांची का मिल गया तो सिंध चला गया। चौमासा शुरू हो चुका था, आंधी तूफान और, रण में पानी भर गया तो उसने घूमकर राजस्थान से आने की सोची।
लेकिन रेगिस्तान में डकैती और लूटपाट का खतरा था, उसने अपनी चौसठ स्वर्णमुद्राएँ वहां के एक परिचित माहेश्वरी सेठ के पास रखी, लिखा पढ़ी की और लौट आया।
किन्हीं कारणों से कभी वापस न जा सका।
मुद्राएं सेठ के पास पड़ी रही, पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरण होता रहा।
1947 में सेठ को पलायन करना पड़ा। हवा का रुख देख लिया था, वह खैरथल(अलवर) में शिफ्ट हो गया।
और आप आश्चर्य करेंगे, 5 पीढ़ी बाद उनके वंशज पूछताछ करते हुए भुज के पास एक घुमक्कड़ डेरे पर गये और गिनकर पूरी 59 मुहरें उनको सौंप दी। उस समय उल्टा ब्याज लगता था, सो एक पीढ़ी तक धन सहेजने की एक स्वर्णमुद्रा के हिसाब से 5 मुद्राएं काट कर बाकी उन्हें दे दीं!!
सेठ के वंशजों ने पूछताछ की।
स्थानीय वरिष्ठ लोगों को साथ रखा। 5 पीढ़ी में वणजारे का कुनबा कितना बढ़ा, सभी सदस्यों का वहीं बंटवारा किया और वापस लौट आए।
वृतांत का एक दुःखद पहलू यह था कि वे सभी अत्यंत गरीब और दीन हीन हो चुके थे, किन्तु सुखद पहलू यह है कि उसी वनजारा परिवार ने उस धन का सदुपयोग किया और आज वह एक शीर्षस्थ परिवार है, उनके परिवार में जज, वकील और उच्च ब्यूरोक्रेट हैं, उन्होंने ही यह घटना सुनाई। नाम लेने की जरूरत नहीं है!!
***
लगभग 300 वर्ष पहले समृद्धि का पैमाना गाय हुआ करती थी।
एक जोड़ी बैल, छह तोला सोने में आती थी, आप कल्पना कर सकते हैं।
बैल, घोड़ा, ऊंट के मूल्य में बहुत कम अंतर था।
तब सुथार एक गिन्नी में बैलगाड़ी बनाते थे। सबकुछ शिल्प आधारित था।
कुम्हार, चर्मकार, नापित, घसियारा, पानी लाने वाला, पशु चराने वाला, पशुओं के उपकरण, बधियाकरण, प्रशिक्षण, जैसे अनेक कार्य थे।
उदाहरण के लिए एक कुम्हार को लगभग 100 घरों के लिए वर्ष पर्यंत बर्तन सप्लाई के बदले वर्ष में दो बार एक-एक चांदी का सिक्का मिलता था। यानि 200 तोला चाँदी प्रतिवर्ष, साथ ही अन्न फ्री, सुरक्षा फ्री, मिट्टी पानी अपनी मर्जी से और अपने धंधे का स्वामी।
सोना, चांदी, घी और अन्न से विनिमय होता था। सौ सेर तिल्ली के तेल के बदले 50 सेर घी।
फल फूल तो लगभग मुफ्त थे, सूखे मेवे, मसाले, नारियल और पंसारी का सामान हाट में बिकता था।
विगत 200 वर्षों से थोड़ा पीछे जाकर भारतीय अर्थतन्त्र का विचार करेंगे तो आपको बहुत आश्चर्यजनक भारत के दर्शन होंगे।
कहीं कहीं अब भी उसके अवशेष विद्यमान हैं, धर्मपाल साहित्य का अध्ययन कर वस्तुस्थिति जान सकते हैं। मेरी जानकारी का स्रोत भी धर्मपाल जी का साहित्य ही है, यह दस खण्डों में प्रकाशित है, आप पढ़ सकते हैं।
***
गड़बड़ हुई अंग्रेजों के हस्तक्षेप से, उदाहरण के लिए नील की जबरन खेती से अन्न का कृत्रिम अभाव या ढाका की मलमल बनाने वाले कारीगरों के हाथ काट देने अथवा विदर्भ के इस्पात कारखानों को बंद करने के एवज में घर बैठे धन देना, जैसी क्रूर कुटिल बातों से यह सारा अर्थतन्त्र जो अन्योन्याश्रित और सुदृढ़ था, नष्ट हो गया। भुखमरी, विद्वेष, रोजगार का संकट और जातीय विभेद भी बढ़ा, और भारतीय समाज अत्यंत दीन हीन स्थिति को पहुँच गया।
प्रेमचंद के भारत में जिस अभागे भारत का वर्णन है, वह मरणासन्न भारतीय अर्थव्यवस्था का शोकगीत है। बिल्कुल लुटा पिटा, भूखा नंगा, हालांकि नेहरू परिवार तब भी सोने के बटन से सज्जित अचकन पहन कर अधिवेशन से एक दिन पहले होने वाले जुलूस में बग्घी पर सवार होकर ही शामिल होता था!!
भूखा नँगा भारत, हमें मिला 1947 में, तबतक सबकुछ तबाह हो गया था केवल ऊपरी वर्ग में हुंडी और सेहनाणी परम्परा विद्यमान थी, शिल्प आधारित समस्त औद्योगिक व्यवस्था छिन्न भिन्न हो चुकी थी, जिसमें वामपंथी तिकड़म की फसल की अपार सम्भावना थी और यही छल हम आज तक भुगत रहे हैं।
आधुनिक तकनीक के सहारे #हिन्दू_अर्थतन्त्र की पुनर्स्थापना हमारा लक्ष्य होना चाहिए।
****
अभी त्यौहार शुरू होने वाले हैं।
पूरे वर्ष का एक तिहाई व्यय इन उत्सवों में होने वाला है। शोरूम और कॉरपोरेट को छोड़कर, जहाँ तक सम्भव हो अपनी जड़ों को खोजिए।
एक परिवार पर आश्रित सात शिल्प हुआ करते थे, ढूंढिए कि आज वे किस स्थिति में है?
और धनतेरस तक, किसी को कोई रियायत नहीं। इन लफंगों को तो बाद में भी नहीं।
विचार कीजिए! हमारा स्वयं का इकोसिस्टम विकसित करने में योगदान दीजिये।
✍🏻कुमार के यस..

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *