ज्ञान: कूर्म अवतार का अर्थ,नींव के पत्थर नही, अंगूरों की होती है पूजा

कश्य॑पोऽष्ट॒मः।

वैशाख पौर्णिमा
अर्थात् कूर्म जयन्ती ।
विष्णु का द्वितीय अवतार #कूर्म रूप में हुआ।

कूर्म अवतार को ‘कच्छप अवतार’ (कछुआ अवतार) भी कहते हैं। कूर्म अवतार में भगवान विष्णु ने क्षीरसागर के समुद्रमंथन के समय मंदर पर्वत को अपने कवच पर संभाला था। इस प्रकार भगवान विष्णु, मंदर पर्वत और वासुकि नामक सर्प की सहायता से देवों एवं असुरों ने समुद्र मंथन करके चौदह रत्नों की प्राप्ति की।

समुद्रमन्थन (विचारमन्थन) के लिए इन्द्रियों को नियन्त्रित रखनेवाले स्थितप्रज्ञ कच्छप का आधार आवश्यक है ।

“यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।। — गीता, 2.58।।

कूर्म सम्यक् बुद्धि के द्योतक हैं।
कूर्मस्तारक तारामंडल को भी कहते हैं। कूर्मासन ब्रह्म सायुज्य प्राप्त महात्माओं का आसन है।

मुझे याद आया- अरविन्दो सिम्बल। महर्षि अरविन्द के आश्रम में कूर्म उत्सव मनाया जाता है।

मैं 1993 में नवभारत टाइम्स के लिए ‘बोलते प्रतीक’ स्तंभ लिखता था।
तब यह कूर्म प्रतीक मेरे प्रेक्षण में आया था।

मुझे लगा कि यह प्रतीक नहीं, दृश्य भाषा है। यह भाषा स्थापित करने से पुराण की आख्यानिक भाषा भी स्थापित होगी।

ग्रीक मैथोलाॅजी को पुराण की आख्यानिक भाषा पर आरोपित नहीं किया जा सकता।

इस तरह की सोच रखनेवाला व्यक्ति अकेला हो जाता है।

पर, मैं तभी अकेला होता हूँ जब इन तथ्यों पर विचार करता हूँ और इन्हें स्थापित करता हूँ

अन्यथा मेरे भी साथ प्रत्येक स्तर का संसार है।

कूर्मावतार परस्पर विरोधी तथ्यों में स्थिर हैं।

स्थितिप्रज्ञ की यही स्थिति है, कोई अन्य नहीं।
श्रीकृष्ण ने कहा- मैं समासों में द्वन्द्व समास हूँ।

सृष्टि में द्वन्द्व है। यह त्रिगुणात्मक है, पर इसमेें केवल चेन रिएक्शन नहीं है, इसमें साम्यावस्था है।
इसलिए यह त्रिवृत्त है। 360÷108×3=10 > 100> 1000 >….. सहस्र शीर्षा !

यह तथ्य आधुनिक- उत्तराधुनिक पश्चिमी विचारक की समझ में नहीं आता और हमारे वालों को भी अपनी बात कहने नहीं आता!

✍🏻प्रमोद दुबे

कमठ या कूर्म स्वरूप मिस्र के देव
*
मिस्र में 664-332 ईसा पूर्व खेप्री स्करब देव की मान्यता रही है। यह कमठ के समान पेट वाला माना गया था जिसका वह कवच आयुध भी था। भारतीय कथाओं में भी ऐसे रूप वर्णित है।
किसी भी तरह की रचना, चिंतन और नियमन के साथ साथ स्वरूप के लिए उसके पास मानव मस्तिष्क और मानव जैसी ही मुखाकृति स्वीकारी गई थी। इसे गुबरेला के रूप में भी देखकर पहचान दी जा सकती है।
यह अनोखी आकृति अभी बर्लिन के मिस्र संग्रहालय में संरक्षित है और देखी जा सकती है…
*
Humanoid Khepri Scarab
This rare model of the Egyptian scarab beetle creator god Khepri, with a human head and arms emerging from a scarab’s exoskeleton.
Most likely from the Late Period, ca. 664-332 BC.
Now in the Egyptian Museum of Berlin.

✍🏻श्रीकृष्ण जुगनू

 

कूर्मावतार के प्राकट्य दिवस पर

विष्णु के नवें अवतार के अवतरण दिवस पर ही विष्णु के द्वितीय अवतार का प्रकटीकरण हुआ था। और वह अब नवें की तुलना में बहुत डेटेड भले ही हो गया हो लेकिन उसने इस पृथ्वी के स्थिरीकरण में जो भूमिका निभाई, किसी समय उसकी एक जागतिक स्वीकृति थी।

कूर्म का भी एक वैश्विक मोटिफ है। योरोप में ऐसे बहुत से प्राचीन स्तंभ हैं जिनमें कच्छपों की पीठ को आधार के रूप में दिखाया गया है। सिर्फ हिंदू या चीनी ही नहीं, देसी अमेरिकी विश्वासों में भी एक ऐसे वैश्विक कूर्म का उल्लेख आता है। एडवर्ड बने टेलर ने वैश्विक कूर्म की थीम का विभिन्न सभ्यताओं में होना न केवल पाया बल्कि उनका तुलनात्मक अध्ययन भी किया। 1678 से 1680 के बीच जास्पर टैंकीर्ट्स ने ‘ग्रेट टर्टल’ के लेनेप मिथक को अभिलिखित किया। उत्तरपूर्वी वुडलैंड जनजातियों खासकर आरोको में भी यह मिथक पाया। चीन में ‘आओ’ नामक कूर्म का मिथक है। अमेरिका के डेलावेअर इंडियंस का मानना है कि दुनिया कछुए की पीठ पर टिकी है।

मिलर का कहना था कि : I viewed the turtle as a logical choice for this atlantan burden because its shape and appearance were appropriate to this role. स्पेक का कहना था the turtle is the earth, is life. डेलावारी लोग कूर्म को स्थैर्यकि (perseverance), अतिजीवन (longevity) और धृति (steadfastness) के लिये जानते हैं। वे जीवन, समय और कूर्म को पूर्व से पश्चिम की ओर सतत गतिमान समझते हैं। उनका कहना है कि जीवन और पृथ्वी असंभव थी, यदि कूर्म ने आधार नहीं उपलब्ध कराया होता। कभी कूर्म की समुद्र में गति को आज भी देखें।वह कभी भी लहरों से नहीं लड़ता। वह उनका, चाहे वे कैसी भी हों, उपयोग करता है। क्या जीवन जीने की यह कला हमें न आनी चाहिए थी?

बर्नार्ड नीत्शमान की उक्ति है ‘when the turtle collapses, the world ends.’ (नेचुरल हिस्ट्री, 83 (6) : 34 (जून-जुलाई 1974) में भी एक ऐसी ही कथा है।

कूर्मावतार की कथा भारतीयों में विशेषतः प्रचलित है। समुद्र मंथन के समय मंदार पर्वत कूर्म पर ही, उनके कमठ पृष्ठ पर ही टिका था। कोलंबिया में 1.5 m के दैत्याकार प्रागैतिहासिक कच्छप के जीवाश्म मिलने पर भी लोगों को उन मिथकों की याद आई थी। न्यूज़ीलैंड के माओरी लोगों के मिथक एक पृथ्वी देवी Papatuanuku की और उनके एक महाकार कच्छप A’tuin महान् का उल्लेख करते हैं। Inuit पौराणिकी में विश्व एक महाकार कूर्म Akychaकी पीठ पर टिका है। यही कूर्म पृथ्वी को भी पीठ पर ले चला है। पोलीनीशिया की पौराणिकी में होनू नामक यह कूर्म देवताओं और मनुष्यों के बीच संदेशवाहक का भी काम करता है। अज्तेकों की पौराणिकी Cipactli नामक विश्वधारक महाकूर्म की चर्चा करती है। वियतनामी मिथक Cụ Rùa नामक एक महाकच्छप की बात बताते हैं। इस नाम का अर्थ है- परदादा।

मंगोलिया, इटली, कोरिया में भी कूर्म-मिथक हैं कच्छप एफ्रोडाइट (वीनस) और हर्मेसर (मर्करी) दोनों के लिये पवित्र ग्रीक पौराणिकी में माना गया। कूर्म का सर उठाना और फिर गर्दन का छुप जाना प्रजनन व उर्वरता से जोड़ा गया। कई संस्कृतियों में कूर्म को खगोल का भार वहन करने वाला बताया गया है। आकाश इस कूर्म के टॉप गोलार्द्ध में और पृथ्वी फ्लैट स्क्वेयर में प्रतीकायित होती है।

मय धार्मिकी में यह ब्रह्मांडीय कूर्म सृष्टि- सिंधु में तैरता बताया गया है। बाद की मय सभ्यता में यही कच्छप देवता में बदल गया है।

यानी कच्छपावतार की यह कथा उन देशों से ज़्यादा फैली हुई है जिनमें नवें अवतार की फैली।

कूर्म पुराण में भगवान के कच्छपावतार की कथा है। कहा जाता है कि कूर्मावतार में कूर्म की पीठ का व्यास एक लाख योजन था। जिस तरह से एक जागतिक सर्प के एक आधारभूत अर्थ की चर्चा molecular biology के संदर्भ में की गई है, उसी प्रकार से कूर्म का संबंध एक योगचर्या से है । सुषुम्नाशीर्ष को चारों ओर से वैसे ही घेरे है। जैसे मानव सिर को पगड़ी घेरे रहती है- ऊष्णीष, जो आकृति है वह स्पष्टतः कछुए की भांति है। कहते हैं और ताराशंकर वैद्य कहते हैं- ‘यही कूर्म शरीर को स्थिर रखता है अर्थात् गिरने नहीं देता।’ इसी पर मस्तिष्क व समस्त शरीर की अवधारणा निर्भर है ।

कणाद ने ‘तिर्यक कूर्मो देहिनां नाभिदेशे वामे वक्त्रं तस्य पुच्छं च याम्ये/ऊर्ध्वे भागे हस्तपादौ च वामौ / तस्याधस्तात् संस्थितौ दक्षिणौ तु’ में नाड़ीविज्ञान के प्रसंग में कूर्म-चर्चा की है। वसवराज का इसी नाड़ीविज्ञान प्रसंग में कहना है : कूर्म व्यतिक्रान्तात् सर्वत्रैव व्यतिक्रमः ‘कूर्मचक्रम’ में भी कूर्म के संबंध में विज्ञान की बात सामने आई है : ‘कूर्म चक्रं प्रवक्ष्यामि यदुक्तं कोशलागमे / यस्य विज्ञान मात्रेण यदुक्तं देश विप्लवः’ । यह देशविप्लव होने भी जा रहा है।

यह शेष और कूर्म संगति कूर्मचक्र में यों बताई गई है- ‘स शेषोऽपि कुण्डली भूमिसंस्थितः / कूर्मपृष्ठैक भागेन पद्मतन्तुरिवाबभौ।’ कूर्मशरीर ‘शङ्कों शतसहस्राणि योजनानि बपुः स्थितम्’ के अनुसार एक लाख x शंकुमान जो बराबर 1000000000000000000 योजन के तुल्य है ।” एवं ‘कूर्मप्रमणन्तु कथितं चादि यामले’ के अर्थों में कूर्म दृश्य ब्रह्माण्ड या दृश्य सौर मंडल हो सकता है।

राजा भोज ने अवनिकूर्मशतम् की रचना की क्योंकि ‘भुवन- भार को वहन करने में सक्षम इस अद्वितीय कूर्म को विश्राम देने में उन्होंने सामर्थ्य प्रकट किया था’, ऐसा तत्कालीन प्राकृत रचनाओं में कहा गया।

कूर्म के ऊपर पृथ्वी टिकी होने या संसार टिके होने पर कई लोगों ने व्यंग्य भी किये। ‘टर्टल्स आल द वे डाउन’ की प्रसिद्ध उक्ति इसी मजाक पर टिकी थी कि जब शेषनाग कूर्म पर हैं तो कूर्म किस पर हैं तो जवाब था- कछुआ कछुए पर है। वह कछुआ किसी और कछुए पर। लेकिन मजाक एक तरफ। या तो आप ही ही खी खी कर लीजिए या स्टीफन किंग की तरह कविता लिख लीजिए:
See the turtle of enormous girth,
on his shell he holds the earth
If you want to run and play,
come along the beam today.
(The Waste Lands)

सीखा तो कच्छप से भी जा सकता है।किलरॉय जे ओल्डस्टर तो इतनी अच्छी तरह से बताते हैं: Human beings can learn valuable lessons in conservation of necessary personal resources for accomplishing the fundamental tenants of life by observing a judiciously paced turtle determinedly and stealthily traversing the world.
(Dead Toad Scrolls)

यह एक बिम्ब बहुत से अर्थों में प्रभावी है। प्रथमत: भार वहन करने में। यह तो उदार भार है क्योंकि रामचरितमानस में राम की सेनाएं तो पृथ्वी के वास्तविक और अनुदार भार रावण-राज को खत्म करने चल पड़ी है। उन लोगों के, जो ‘ते मर्त्यलोके भुवि भारभूता’ हैं – इस पृथ्वी पर भार के समान हैं- बोझ से धरती को मुक्त कराना ही वास्तविक औदार्य है। धरती इस बोझ को महसूस कर भी रही थी- ‘गिरि सरि सिन्धु भार नहिं मोही / जस मोहि गरुअ एक परद्रोही।’ इस भार को हरने के लिये हरि का जिस प्रकार ‘उदार अवतार’ हुआ है- अंसन्ह सहित मनुज अवतारा/लेहउँ दिनकर बंस उदारा- वैसे ही उनकी इस वानर सेना का भी । इसलिए इसका भार उदार है। और ‘हरिहउँ सकल भूमि गरुआई कि मैं पृथ्वी का सब भार हर लूंगा’ का जो वादा हरि ने किया था, उस वादे को पूरा करने के लिये हरि-भक्त भी संगठित और सन्नद्ध हो गये हैं। ‘सुर नर मुनि करि अभय, दनुज हति हरहि धरनि गरुआई’ यह भार खत्म हुये बिना ये सैनिक भी अपनी नियति से मुठभेड़ नहीं कर सकेंगे। यह भार या गरुआई अहं के संघनन की है। नारद को हुआ था-उर अंकुरेउ गरब तरु भारी- तो हरि ने ही ‘अवसि उपाय करबि मैं सोई’ का निश्चय किया था। जब ‘भृगुपति केरि गर्व गरुआई’ हुआ तब भी राम ने अपना करिश्मा दिखाया था । लेकिन अब यह काम राम किसी माया या करिश्मे से नहीं करेंगे। अब यह कार्य तो राम अपने सारे भक्तों की सामूहिक शक्ति के साथ करेंगे। तो पृथ्वी टलमल न हो, यह भार तब भी तुलसी के अनुसार कूर्म ही धारण करेंगे।

कूर्म अवतार का लक्ष्मी जी के साथ सीधा सम्बन्ध है। प्राय: कूर्म की पीठ पर ही श्रीयंत्र रहता है। पौराणिक कथा यह बताती है कि इन्द्र ने जब दुर्वासा की दी हुई पारिजात की माला अपने हाथी ऐरावत को दे दी और उसने उसे पैरों तले कुचल दिया तो दुर्वासा ने उनकी राज्यलक्ष्मी लुप्त हो जाने का श्राप दिया था और तब फिर मंथन हुआ और विष्णु का कूर्मावतार उन लक्ष्मी के पुनः प्रकट होने में काम आया। पारिजात स्वयं समुद्र मंथन से प्रकट हुए रत्नों में से था। पारिजात में लक्ष्मी जी का वास माना जाता है और लक्ष्मी पूजा में उसी का प्रयोग होता है। पारिजात का अपमान स्वयं लक्ष्मी का अपमान था — और यह कितनी मीठी कथा है कि जो एक पुष्प को श्रीसमृद्धि की एकात्मता में देखती है- तो लक्ष्मी को ग़ायब होना ही था। पुनः जीवनमूल्यों का, शुभ अशुभ का, अच्छे बुरे का एक मंथन ज़रूरी था।पुनः इस संदर्भ में लिये गये निर्णय का स्थिरीकरण ज़रूरी था तो कूर्म को आना ही आना था।

यह भी देखें कि कूर्म सिर्फ़ पृथ्वी को स्थैर्य वाली पर्यावरणीयता के प्रतीक नहीं हैं, मंदराचल भी उन पर ही टिका है। समुद्र मंथन एक बहुत आधारभूत कथा है जिसके अनेक पहलुओं को मैंने कुछ वर्षों पहले अपनी कविता-पुस्तक ‘अमृत नाम अनंत’ में प्रस्तुत किया था। समुद्रमंथन आधार-कथा है तो कूर्मावतार आधार-पीठ। इन कूर्मावतार ने ही कूर्मपुराण में चार पुरुषार्थों का विवरण दिया है। प्रज्ञा, स्थैर्य, अतिजीवन, पुष्टि और संरक्षण के प्रतीक देव हैं कूर्मावतार।

सो आज पूरे दिन बैठे बैठे मैं यही देखता रहा कि कैसे हम उन्हें भूल जाते हैं जिन्होंने आधारभूत काम किया होता है। नींवों पर काम करने वालों की खिल्ली उड़ाई जाती है। कंगूरे चमकते हैं, बुनियाद याद नहीं आती।

✍🏻मनोज श्रीवास्तव

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *