बेईमान यूरोपीय बुद्धिजीवी: चार शताब्दी बताते रहे कि संस्कृत भी भारत में बाहरी है

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मृग ढूंढ़त बन माहिं
सत्य सत्ता – वह भाव सत्ता हो या भौतिक सत्ता – के प्रत्येक अंश में निवास करता है। वह सत्य से बाहर कहीं अन्यत्र नहीं हो सकता। यदि बाहर तलाश किया जाता है तो कहीं मिल नहीं सकता। प्रथम परिचय[1] के लगभग 400 साल तक बाहर तलाश करने की कोशिश के बाद भी यह तो सबको पता चलता गया कि भारत से लेकर यूरोप तक की भाषाएं, इस पूरे क्षेत्र में किसी एक भाषा के प्रसार का परिणाम हैं। यह प्रसार भारत से हुआ है, यह भी उन्हें मालूम था, परंतु इसे स्वीकार करने की ईमानदारी किसी में न थी। इस पर लगभग 200 साल की चुप्पी, और लगभग उतने ही समय की आंख मिचोली के बहाने इस सच्चाई को दबाने, झुठलाने और नकारने और सबका ध्यान भारत से हटाने के लगातार प्रयत्न किए जाते रहे। इसके लिए उत्स क्षेत्र को दुनिया के किसी भी कोने में तलाशने के प्रयत्न किए जाते रहे, सिवाय भारत के।

संस्कृत में ईसा मसीह का परिचय और प्रचार साहित्य

इसका मतलब क्या है?

इसका मतलब है यूरोपीय विद्वान गोरी जाति की श्रेष्ठता, ईसाइयत के प्रसार और यूरोपीय वर्चस्व की रक्षा के लिए सत्य को झुठलाने के पाखंड को शास्त्रीय जामा पहनाते रहे। वे ज्ञानव्यवस्था के नाम पर पाखंड-व्यस्था को विश्वसनीय बनाने के लिए तथ्यों को खींचतान कर साक्ष्य तैयार करते रहे और इस तरह मानविकी का सत्यानाश करते हुए, न केवल उपनिवेशों के छात्रों को बल्कि अपने छात्रों को भी कुशिक्षित करते रहे। वे सभी जानते थे कि तथाकथित भारोपीय भाषा भारत में विकसित और समृद्ध हुई तथा यहां से अपने पूरे प्रसार क्षेत्र में सीधे या अपने उपकेन्द्रों के माध्यम से फैली । यदि किसी को इसका पता न था तो वे थे मालिकों के दिमाग पर इस हद तक भरोसा करन वाले पाश्चात्य विधि से शिक्षित भारतीय। वे कल के मालिकों की भाषा में निष्णात है, उसी में बोलते और लिखते हैं और उसी में लिखी पुस्तकें पढ़ते हैं। अपनी मातृभाषा को केवल घरेलू उपयोग तक सीमित रखते हैं, भारतीय भाषाओं में प्रकट किए गए विचारों को इस आधार पर विचारणीय नहीं मानते थे कि यदि इसमें दम होता तो इसे अंग्रेजी में न लिखा गया होता? अंग्रेजी में उनके और उनके मालिकों को रास न आये लेखन के विषय में यह तर्क देते है कि ‘यदि इसमें सचाई होती तो इसे पाश्चात्य विद्वानों ने मान न लिया होता।’ एक और यूरोप के सभी देशों के सभी विद्वान यूरोप की सनातन श्रेष्ठता कायम करने को झूठ, फरेब, दमन, अतिरंजना किसी का सहारा लेते रहे हैं और जाने अनजाने वैज्ञानिक सोच रखने वाले चिंतक भी उन्ही मान्यताओं को दुहराते रहे हैं, दूसरी ओर भारतीय बुद्धिजीवियों को उपदेश देते रहे कि तुम अपने इतिहास में मत झांकना, अपने पुराणों पर भरोसा न करना। उसका पता हम लगाएंगे और हम बताएंगे कि वह कितना सही या गलत है। यदि तुम्हारे अतीत में कुछ अच्छाइयां दिखती भी हैं तो इनको दुहराने की जरूरत नहीं। इससे तुममें अतीतग्रस्तता आ जाएगी। आगे बढ़ नहीं पाओगे। वर्तमान हो या अतीत ध्यान अपनी कमियों पर दो जिससे हम समझा सकें कि तुम जन्म जन्मांतर के निखट्टू हो, तुमसे कुछ होने वाला नहीं। जो कुछ तुम्हारे हित में है, हम स्वयं करते रहेंगे।

इसे समझने के लिए नेहरू युग के अमेरिकी खाद्यान्न सहायता समझौता में(Publ c Law 480) कार्यक्रम को समझना उपयोगी होगा जिममें अमेरिकी सलाहकार नेहरू  को इस बात का कायल करने में सफल हुए थे कि भारत जैसा बड़ी आबादी का देश अपनी निरंतर बढ़ती आबादी का पेट भरने में सफल नहीं हो सकता इसलिए भारत को अमेरिकी सहायता पर निर्भर रहना पड़ेगा। उदारतावश अमेरिका इस अनाज का मूल्य डालर की जगह रुपये में लेता और इसलिए भारत में ही विविध योजनाओं पर खर्च करता रहेगा। यह आयात भारत के कुल उत्पाद का 40 प्रतिशत तक हो चला। नेहरू जी अपनी समग्र महानता के बाद भी जिन दो मोर्चों (आत्मनिर्भरता, और आत्मरक्षा) पर भारत को असहाय बना कर इनमें से दूसरे के आघात से उनको प्राण गंवाने पड़े। भारतीय बद्धिजीवी की मनोरचना नेहरूवादी है और नेहरू सहित पूरे बुद्धिजावी समुदाय को ज्ञान और प्रचार का प्रयोग शेष जगत का मानसिक नियंत्रण करने वाले इसकी समझ में यह उतार दिया गया कि अंग्रेजी विश्वभाषा है, ज्ञानविज्ञान की भाषा है, अंग्रेजी का प्रकाशन उद्योग इतना विशाल है, उसके पुस्तकालय इतने समृद्ध हैं कि और दुनिया का कोई देश, समाज, क्षेत्र ऐसा नहीं है जिसके विषय में उसके पुस्तकालयों में संदर्भ सामग्री भरी हुई है जो स्वयं उन देशों में अपने विषय में भी दुर्लभ है इसलिए उनकी समस्याओं पर ऊँचे स्तर का शोध और विवेचन वे ही कर सकते हैं, इसलिए अपने विषय में सही ज्ञान उन्हीं के अध्येताओं के माध्यम से, या उनके साधनों का उपयोग करते हुए उनके निर्देशन में किए गए काम से ही हो सकता है।

हमें उनके सभी मामलों में आगे बढ़े होने पर कोई संदेह नहीं। यहां तक कि उनकी शोधविधि के उन्नत होने को भी स्वीकार करने को तैयार हूं क्योंकि उनकी शिक्षाप्रणाली में छोटी कक्षाओं से ही शोध की प्रवृत्ति पैदा की जाती है। आपत्ति इस बात से है कि वे आगे बने रहने के लिए दूसरों को पिछड़ा और अपने ऊपर निर्भरता को बढ़ाने को हमें शिक्षित नहीं कुशिक्षित करते हैं। हमें अपने नियंत्रण में रखने को वे हमारी जिज्ञासा तक का हनन करते हैं। उनकी बदनीयती के कारण उनका उन्नत दिखाई देने वाला ज्ञान आडंबरपूर्ण तो है पर घटिया स्तर का है। पी एल 48 के दौर में जो अनाज अमेरिका से आता था वह फूड नहीं, फीड होता था – पशु आहार, इसका ज्ञान पश्चिमी ज्ञान से वंचित नेता के प्रधानमंत्री बनने के साथ, अन्न उत्पादन में आत्मनिर्भर होने के बाद हुआ। रक्षा उत्पादन में शिथिल रहने के कारण रक्षा उपकरण दूसरे देशों से उनके पिछड़े हथियार खरीदते रहे, इस खरीद की सौदेबाजी में भ्रष्टाचार का विस्तार करते रहे। ठीक इसी तरह के पिछड़ेपन के आज तक प्रोत्साहित किया जाता रहा जिसमें हम सोचना तो दूर, पढ़ना और समझना तक भूल गए। उन्हीं के सही गलत को सही गलत मानते रहे जब कि उन्होंने विज्ञान में प्रवेश न करने दिया ताकि उससे उत्पादित माल और सुविधाओं के खरीदार बने रहें और ज्ञान (मानविकी) की सभी शाखाओं का सत्यानाश कर दिया गया और इसका आरंभ जिस घपलेबाजी से हुई उसे तक हम समझने में असमर्थ रहे।

पाकिस्तान के जिस गांधार (स्वात घाटी) में संस्कृत का जन्म हुआ, वहां अब पाकिस्तानी सरकार उर्दू पर जोर दे रही है

 

हम पीछे अपने एक लेख में यह दिखा आए हैं कि जिस विलियम जोन्स ने यह हवा उड़ाई थी कि संस्कृत सबसे उत्कृष्ट भाषा तो है पर यह ब्राहणों के साथ बाहर से आई है, उसी के अंतिम अभिभाषण का सार यह था कि यह भारत से ही अपने प्रसार क्षेत्र में फैली है। पहले संकेत रूप में जिस ईरान को केंद्रीयता के कारण उसने मूल क्षेत्र बताना चाहा था उसकी भाषा के विषय में स्वयं कहा था कि संस्कृत से उसका वही संबंध है जो प्राकृतों और अपभंशों का है, फिर यह इतना बवंडर मचा किसलिए रहा और हमारे विद्वान उसमें पत्तों की तरह उधियाते क्यों रहे और आज तक उस बहस में उलझे क्यों रहते है।

लगभग ढाई सौ साल चले इस वितंडावाद में किसी ने एक भी ऐसा प्रमाण नहीं दिया जिससे इस भाषा का उद्भव कहीं अन्यत्र सिद्ध किया जा सके और कोई ऐसा दावा नहीं जिससे निर्णायक रूप में यह न सिद्ध होता हो कि मूल देश और सभ्यता का जनक भारत ही है।
Though the historian may shake his head, though the physiologist may doubt and the poet scorn the idea, all must yield before the facts furnished by language. (There was a time when the ancestors of the Celts, the Germans, the Slovenians, the Greeks and Italians the Persians and the Hindus were living together beneath the same roof, separate from the ancestors of the Semitic and Turanian races. 64)

(It is more difficult to prove that the Hindu was the last to leave this Common home, that he saw his brothers, all depart towards the setting sun and that then, turning towards the south and the East he started alone in search of a new world.) But as in his language, and in his grammar, he has preserved something of what seems peculiar to each of the northern dialects singly, as he agrees with Greek and the German where the Greek and the German differ from the rest, and as no other language has carried off so large a share of the common Aryan heirloom — whether roots, grammar words myths or legends –It is natural to suppose that perhaps the eldest brother, The Hindu was the last to leave the ancestral home of the Aryan family. Cips, Vol, 1, page 65

भारत में तलाशने की जरूरत ही नहीं थी। सब कुछ चीख कर घोषणा कर रहा था कि भाषा, सभ्यता और सदाचार का विकास और प्रसार पूरी दुनिया में भारत से हुआ और पूरी दुनिया के शातिर लोग इस सचाई को नकारने के लिए कल्पित भूभागों के पक्ष में प्रमाणों की तलाश करते रहे, सचाई को दबाने, झुठलाने और भुलाने का प्रयास करते रहे, परंतु यह सिद्ध नहीं कर सके कि इसका सूत्रपात्र कहीं अन्यत्र हुआ है। दुनिया को शिष्टाचार सिखाने वाले और इस सच्चाई से अवगत देश – स्व स्व चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्याः सर्व मानवाः – को यह अवश्य समझाते रहे, ऐसा मत कहना कि तुम भी कुछ थे, मालिक को बुरा लगेगा, मलूक बन जाओ?
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[1] It is perfectly true that Sanskrit had been studied before by Italian, German, and French missionaries; it is likewise perfectly true that several of these missionaries were fully aware of the close relationship between Sanskrit, Greek, and Latin. A man must be blind who, after looking at a Sanskrit grammar, does not see at once the striking coincidences between the declensions and conjugations of the classical language of India and those of Greece and Italy.
Filippo Sasseti, who spent some time at Goa, between 1581 and 1588, had only acquired a very slight knowledge of Sanskrit before he wrote home to his friends ” that it has many words in common with Italian, particularly in the numerals, in the names for God, serpent, and many others.” This was in the sixteenth century.
✍🏻भगवान सिंह

 

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