ज्ञान: गणित की मातृभूमि है भारत, पुराण भी करते हैं गणित की बात

गणित की मातृभूमि है भारत-5
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कूर्म चक्र का भी यही अर्थ है-यह करने में समर्थ है। इस क्षेत्र जैसे आकार वाला जीव भी कूर्म (कछुआ) है। यह किरण का क्षेत्र होने से इसे ब्रह्मवैवर्त्त पुराण, प्रकृति खण्ड, अध्याय ३ में गोलोक कहा गया है।
ब्रह्मवैवर्त पुराण, प्रकृति खण्ड, अध्याय ३-अथाण्डं तु जलेऽतिष्टद्यावद्वै ब्रह्मणो वयः॥१॥
तन्मध्ये शिशुरेकश्च शतकोटिरविप्रभः॥२॥ स्थूलात्स्थूलतमः सोऽपि नाम्ना देवो महाविराट्॥४॥
तत ऊर्ध्वे च वैकुण्ठो ब्रह्माण्डाद् बहिरेव सः॥९॥
तदूर्ध्वे गोलकश्चैव पञ्चाशत् कोटियोजनात्॥१०॥नित्यौ गोलोक वैकुण्ठौसत्यौ शश्वदकृत्रिमौ॥१६॥
शतपथ ब्राह्मण (७/५/१/५)-स यत्कूर्मो नामा एतद्वै रूपं कृत्वा प्रजापतिः प्रजा असृजत, यदसृजत अकरोत्-तद् यद् अकरोत् तस्मात् कूर्मः॥
नरपति जयचर्या, स्वरोदय (कूर्म-चक्र)-मानेन तस्य कूर्मस्य कथयामि प्रयत्नतः।
शङ्कोः शतसहस्राणि योजनानि वपुः स्थितम्॥
ताण्ड्य महाब्राह्मण (११/१०) शङ्कुभवत्यह्नो धृत्यै यद्वा अधृतं शङ्कुना तद्दाधार॥११॥
तद् (शङ्कु साम) उसीदन्ति इयमित्यमाहुः॥१२॥
ऐतरेय ब्राह्मण (५/७)-यदिमान् लोकान् प्रजापतिः सृष्ट्वेदं सर्वमशक्नोद् तद् शक्वरीणां शक्वरीत्वम्॥
जलधि (१०१४)-ब्रह्माण्ड में तारा गणों के बीच खाली आकाश में विरल पदार्थ का विस्तार वाः या वारि कहा गया है, क्योंकि इसने सभी का धारण किया है (अवाप्नोति का संक्षेप अप् या आप्)। यह वारि का क्षेत्र होने से इसके देवता वरुण हैं।
यदवृणोत् तस्माद् वाः (जलम्)-शतपथब्राह्मण (६/१/१/९)
आभिर्वा अहमिदं सर्वमाप्स्यसि यदिदं किञ्चेति तस्माद् आपोऽभवन्, तदपामत्वम् आप्नोति वै स सर्वान् कामान्। (गोपथ ब्राह्मण पूर्व १/२)
यच्च वृत्त्वा ऽतिष्ठन् तद् वरणो अभवत् तं वा एतं वरणं सन्तं वरुण इति आचक्षते परोऽक्षेण। (गोपथ ब्राह्मण पूर्व १/७)
इस अप्-मण्डल का विस्तार पृथ्वी की तुलना में १०१४ है, अतः १०१४ = जलधि। जलधि का अर्थ सागर है, १०१४ एक सामान्य सागर में जलबिन्दुओं की संख्या है। कैस्पियन सागर (सबसे बड़ी झील) का आकार ५००० वर्ग किलो.मीटर. ले सकते हैं, औसत गहराई १किलोमीटर। एक जल बिन्दु का आयतन १/३० घन सेण्टीमीटर है, इससे गणना की जा सकती है। आकाश का वारि-क्षेत्र (ब्रह्माण्ड) सौर पृथ्वी से १०७ गुणा है, जो पृथ्वी ग्रह का १०७ गुणा है। अतः जलधि को जैन ज्योतिष में कोड़ाकोड़ी (कोटि का वर्ग) या सागरोपम कहा गया है।
समुद्राय त्वा वाताय स्वाहा (वाज. यजु. ३८/७)-अयं वै समुदो योऽयं (वायुः) पवतऽएतस्माद् वै समुद्रात् सर्वे देवाः सर्वाणि भूतानि समुद्रवन्ति। (शतपथ ब्राह्मण १४/२/२/२)
मनश्छन्दः… समुद्रश्छन्दः (वाज. यजु. १५/४)-मनो वै समुद्रश्छन्दः। (शतपथ ब्राह्मण ८/५/२/४)
अन्त्य (१०१५), मध्य (१०१६), परार्द्ध (१०१७)-जलधि (१०१४) की सीमा (अन्त) १०१५ है, अतः यह अन्त्य है। मध्य (१०१६) अन्त्य तथा परार्द्ध के बीच (मध्य) में आता है। पृथ्वी-व्यास का १००० भाग लेने पर १ योजन है, अतः यह आकाश का सहस्र-दल पद्म है। इस योजन में ब्रह्माण्ड का आकार १०१७ है, यह सबसे बड़ी रचना परमेष्ठी की माप है, अतः इसे परा या परार्द्ध कहते हैं। वैदिक माप में पृथ्वी परिधि का आधा अंश (७२० भाग) = ५५.५ कि.मी. १ योजन है। इस माप से ब्रह्माण्ड की कक्षा परा (१०१७) योजन का आधा है, अतः इसे परार्द्ध योजन कहते हैं। यह माप वेद में उषा के सन्दर्भ में है। उषा सूर्य से ३० धाम आगे चलती है। भारत में १५० का सन्ध्या-काल मानते हैं। यह सभी अक्षांशों के लिये अलग-अलग है, पर विषुव रेखा के लिये इसका मान स्थिर होगा जो धाम योजन या १/२ अंश का चाप होगा।
सदृशीरद्य सदृशीरिदु श्वो दीर्घं सचन्ते वरुणस्य धाम ।
अनवद्यास्त्रिंशतं योजनान्येकैका क्रतुं परियन्ति सद्यः ॥ (ऋक्, १/१२३/८)
इस माप में परम गुहा (परमेष्ठी, ब्रह्माण्ड) की माप परा (१०१७) योजन का आधा है-
ऋतं पिबन्तौ सुकृतस्य लोके गुहां प्रविष्टौ परमे परार्धे ।
छायातपौ ब्रह्मविदो वदन्ति पञ्चाग्नयो ये च त्रिणाचिकेताः ॥ (कठोपनिषद् १/३/१)
✍🏻अरुण उपाध्याय

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