उर्दू कैसे बनी मज़हबी भाषा, प्रेमचंद को क्यों हुई विरक्ति?

उर्दू क्या वास्तव में मजहबी भाषा बन गयी थी और है? प्रेमचंद द्वारा उर्दू भाषा में लेखन छोड़ने से उपजे कुछ प्रश्न

सोनाली मिश्र

भारत में और वह भी हिन्दी साहित्य में उर्दू को लेकर एक विशेष प्रेम है, प्रेम ही नहीं है, हिन्दी को लेकर हीनता बोध है और उर्दू को लेकर श्रेष्ठता बोध है। यहाँ तक कि उर्दू की साम्प्रदायिक रचनाएं भी हिन्दी में क्रांतिकारी मानी जाती हैं और हिन्दी की कल्पना उर्दू के बिना की ही नहीं जा सकती है, यहाँ तक कि हिन्दी के शब्दों को भी उर्दू का ठहराने का कुप्रयास किया जाता है, जैसा अभी हमने सम्राट पृथ्वीराज में देखा।

परन्तु साहित्य में इसकी जड़ें अधिक गहरी हैं और यह इस बात से समझा जा सकता है कि हिन्दी की वास्तविक क्रांतिकारी कविताओं की तुलना में बस नाम रहेगा अल्लाह का जैसी नज्मों को क्रांतिकारी माना जाता है। इसके कारण कई हैं, जिनमें कई कारण तो उर्दू साहित्य के इतिहास में भी मिलते हैं, जिसमें उर्दू को वर्चस्व की भाषा या कहें सत्ता की भाषा बनाए रखने पर बल दिया गया है और आधुनिक सन्दर्भों में हम कहें तो इसे विमर्श की भाषा बना दिया गया है। उर्दू को लेकर एक ऐसा परिदृश्य रच दिया गया है कि उर्दू अदब की भाषा बन गयी और हिन्दी पिछड़ी!

हाल ही में वरिष्ठ पत्रकार अनंत विजय ने उर्दू की इसी विशेषता पर प्रकाश डालते हुए प्रेमचंद के जीवन के उस तथ्य को लिखा, जिस पर लिखने से लोग बचते हैं। उन्होंने दैनिक जागरण में साप्ताहिक कॉलम में लिखा कि

कर्बला नाटक लिखने के बाद मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने प्रेमचंद के साथ क्या किया? प्रेमचंद ने उर्दू में लिखना क्यों छोड़ा और कहा कि हिंदुओं को उर्दू में लिखने से लाभ नहीं।

इस लेख को पढने पर ज्ञात होता है कि उर्दू में हिन्दू लेखकों का गुजारा नहीं था। उर्दू में हिन्दू लेखकों के साथ भेदभाव होता था। इसके इतिहास पर बाद में जाते हुए पहले देखते हैं कि प्रेमचन्द ने क्या कहा था। अनंत विजय लिखते हैं कि

“1964 में साहित्य अकादमी से एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी जिसका नाम है प्रेमचंद रचना संचयन। इस पुस्तक का संपादन निर्मल वर्मा और कमलकिशोर गोयनका ने किया था। इस पुस्तक में 1 सितंबर 1915 का प्रेमचंद का अपने मित्र मुंशी दयानारायण निगम को लिखे एक पत्र का अंश प्रकाशित है। इस पत्र में प्रेमचंद ने लिखा है, ‘अब हिंदी लिखने की मश्क (अभ्यास) भी कर रहा हूं। उर्दू में अब गुजर नहीं। यह मालूम होता है कि बालमुकुंद गुप्त मरहूम की तरह मैं भी हिंदी लिखने में जिंदगी सर्फ (खर्च) कर दूंगा। उर्दू नवीसी में किस हिंदू को फैज (लाभ) हुआ है, जो मुझे हो जाएगा।‘ इस वाक्यांश को ध्यान से समझने की आवश्यकता है, उर्दू में अब गुजर नहीं है और उर्दू नवीसी में किस हिंदू को लाभ हुआ है।“

यह जो अंतिम पंक्ति है कि उर्दू नवीसी से किस हिन्दू को लाभ हुआ है? इससे पता चलता है कि हिन्दू लेखकों के प्रति उर्दू में लिखने वालों का दृष्टिकोण क्या था? यह बात पूरी तरह से सत्य है कि हिन्दू और हिन्दी दोनों को ही साहित्य में अपमानजनक दृष्टि से देखा जाता था। ऐसा क्यों था? इसके लिए उर्दू साहित्य के इतिहास में जाना होगा एवं हिन्दी साहित्य के इतिहास में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने जो आलोचना लिखी है, उसे भी पढ़ना होगा।

उर्दू भाषा का इतिहास क्या कहता है?

उर्दू भाषा के इतिहास में यदि हम झांकेंगे तो पाएंगे कि शेख इमाम बख्श नाशिख ने उर्दू के साज सिंगार के लिए अरबी फारसी शब्दों की भरमार कर दी। श्री रघुपति सहाय ‘फिराक’ गोरखपुरी उर्दू भाषा और साहित्य में पृष्ठ 64 में लिखते हैं कि “उर्दू की साज संवर तो प्रत्येक कवि ने अपने जमाने में कुछ न कुछ की है, किन्तु नासिख की जो इस बारे में देन है, उससे उर्दू संसार कभी उऋण नहीं हो सकता। इसमें कोई संदेह नहीं कि उन्होंने बुजुर्गों की परम्परा छोड़कर उर्दू में अरबी-फारसी शब्दों और शब्द विन्यासों की बहुतायत कर दी और परिष्कार के नाम पर हिंदी के बहुत से मधुर शब्द भी वर्जित कर दिए, किन्तु फारसी का निचोड़ लेकर उर्दू को ऐसा टकसाली कर दिया कि वह ऊंचे ऊंचे विषयों के प्रतिपादन के योग्य हो गयी।

अर्थात उर्दू भाषा को लेकर यही भावना बार-बार थी कि संस्कृत या हिन्दू शब्द होने से वह परिष्कृत नहीं थी और वह तब परिष्कृत या महान हुई जब उसमें अरबी या फारसी शब्द सम्मिलित किए गए। यह नाशिख के समय से श्रेष्ठता बोध स्थापित करने एवं इस बात को स्थापित करने के लिए किया जाने लगा था कि मुग़ल साम्राज्य तो समाप्त हो गया परन्तु वैचारिक शासन इस भाषा के माध्यम से उन्हीं का रहेगा।

हिन्दी साहित्य कुटीर, बनारस से प्रकाशित उर्दू साहित्य का इतिहास में इसे और स्पष्ट किया गया है। इसमें लिखा है कि

जैसे जैसे उर्दू मुस्लिमों की भाषा बनती गयी वैसे वैसे उसके कवि, फिर चाहे वह हिन्दू ही क्यों न हों, मुस्लिम धर्म के प्रभाव में आ गए हैं, उनके लिए इस्लाम इतना महत्वपूर्ण हो गया है कि वह देश प्रेम को इस्लाम के लिए घातक समझते हैं। उनके लिए उनकी नबी का बतलाया मार्ग ही सत्य है और वह केवल अपने खुदा के साथ हैं। जिस भूमि में मुस्लिमों के सिवा अन्य धर्म वाले भी बसते हों या केवल अन्य धर्म वाले ही हों तो वह दारुल हर्ब कहलाता हैः, और उसे वह नापाक मानते हैं, सौदा साहब ने कहा था

“गर हो कशेशे शाहे खुरासान तो सौदा,
सिजदा न करूँ,मैं हिन्द की नापाक जमीं पर!”

इस पुस्तक में स्पष्ट लिखा है कि उर्दू अब हिन्दी से पृथक ही नहीं हो गयी है बल्कि उसकी तथा उसके देश की विद्वेषिनी भी हो गयी है।

हिन्दी साहित्य कुटीर, बनारस से प्रकाशित उर्दू साहित्य का इतिहास – पृष्ठ 17
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल इस विषय में क्या लिखते हैं, इस पर भी ध्यान देना आवश्यक है। दरअसल उन्होंने नूर मुहम्मद नूर की रचनाओं का हवाला देते हुए उर्दू की तत्कालीन प्रवृत्ति पर लिखा था।

नूर मुहम्मद नूर दिल्ली के बादशाह मुहम्मद शाह के समय में थे और उन्हें फारसी बहुत अच्छी आती थी, परन्तु उन्होंने हिन्दी भाषा का चयन किया था। उन्होंने इन्द्रावती नामक बहुत सुन्दर काव्य लिखा है और जिसमें उन्होंनें हिन्दी भाषा का प्रयोग किया था, इस पर उन्हें ताना मारा गया था कि मुस्लिम होकर हिन्दी का प्रयोग कैसे कर सकते हैं। तो उन्होंने अनुराग बांसुरी नामक ग्रंथ के आरम्भ में इसकी सफाई दी थी और कहा था कि

जानत है वह सिरजनहारा । जो किछु है मन मरम हमारा॥

हिंदू मग पर पाँव न राखेउँ । का जौ बहुतै हिन्दी भाखेउ॥

मन इस्लाम मिरिकलैं माँजेउँ । दीन जेंवरी करकस भाँजेउँ॥

जहँ रसूल अल्लाह पियारा । उम्मत को मुक्तावनहारा॥

तहाँ दूसरो कैसे भावै । जच्छ असुर सुर काज न आवै॥

अर्थात वह जो सृजनहारा है, वह सब जानता है कि उनका मर्म क्या है? वह कभी हिन्दू नहीं बनेंगे, क्या हुआ जो थोड़ी बहुत हिन्दी बोल ली। उनका मन तो इस्लाम में लगा है, और उन्हें रसूल और अल्लाह प्यारा है। उन्हें उम्मत पर विश्वास है और उसमें कोई दूसरा कैसे भा सकता है।

अनुराग बांसुरी का रचनाकाल संवत 1821 माना गया है।

उर्दू को हिन्दुओं के विरुद्ध साहित्य में प्रयोग किया गया था। हालांकि कुछ रचनाकार ऐसे थे, जिन्होनें ऐसा नहीं किया। फिर भी उर्दू को लेकर एक अलगाववाद की भावना भरी जाने लगी थी, जब उसमें से संस्कृत, ब्रज आदि भाषा के शब्द निकाल दिए गए थे।

इस विषय में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हिन्दी साहित्य का इतिहास नामक अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि

“इसका तात्पर्य यह है कि संवत 1800 तक आते आते मुसलमान हिन्दी से किनारा खींचने लगे थे। हिन्दी हिन्दुओं के लिए छोड़कर अपने पढ़ने-लिखने की भाषा वह विदेशी अर्थात फारसी ही रखना चाहते थे। जिसे उर्दू कहते हैं। उस समय तक इसका साहित्य में कोई स्थान नहीं था, इसका स्पष्ट आभास नूर मुहम्मद के इस कथन से ही मिलता है कि

कामयाब कह कौन जगावा, फिर हिंदी भाखै पर आवा
छांडि पारसी कंद नवातैं, अरुझाना हिन्दी रस बातैं

हिन्दी साहित्य एवं उर्दू साहित्य दोनों में झाँकने पर यह स्पष्ट दिखाई देता है कि मुस्लिम लेखक उर्दू को ही अपनी भाषा बनाने के लिए उत्सुक थे और वह चूंकि उसमें फारसी एवं अरबी अर्थात मजहब के अनुसार शब्दों की भरमार कर चुके थे तो वह हिन्दुओं को इस भाषा में संभवतया नहीं रहने देना चाहते थे! क्या यही कारण था कि उर्दू में लिखने वाले प्रेमचन्द को यह कहने के लिए बाध्य होना पड़ा कि उर्दू नवीसी में किस हिंदू को लाभ हुआ है।“

जबकि देखा जाए तो उर्दू वाले कथित क्रांतिकारी लेखकों को हिन्दी में आकर ही लोकप्रियता मिली जब उनकी नज्में हिन्दी में लिखकर आईं!

या कहा जाए कि जब वह हिन्दी में हिन्दुओं के सामने आईं! तो क्या यह समझा जाए कि हिन्दुओं को प्रयोग किया गया?

*प्रगतिशील लेखक संघ के बहाने हिन्दी और हिन्दुओं को अपमानित करने के षड्यंत्र पर अगले लेख में विस्तार से चर्चा की जाएगी और फिर पाठकों को समझ में आएगा कि कैसे यह पूरा खेल हुआ

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