अभिव्यक्ति की आजादी के साथ जिम्मेदारी भी है, प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद को SC की फटकार
प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद केस में जस्टिस सूर्यकांत की टिप्पणियों में गौर करने लायक हैं ये बातें
अशोका यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद केस में जस्टिस सूर्यकांत की टिप्पणी इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सामाजिक जिम्मेदारी और राष्ट्रीय संवेदनशीलता में संतुलन की जरूरत पर बल देती है. जस्टिस सूर्यकांत के कमेंट अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में राष्ट्र के एक जिम्मेदार शख्स को उसकी नागरिक बोध जिम्मेदारियों से मुक्त नहीं करते हैं.
नई दिल्ली,22 मई 2025,अशोका यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद की गिरफ्तारी के मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस सूर्यकांत ने खरी-खरी टिप्पणियां की हैं. उनके बयान न केवल इस केस के संदर्भ में, बल्कि व्यापक सामाजिक, कानूनी और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में भी असर रखते हैं.
जस्टिस सूर्यकांत की टिप्पणी इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सामाजिक जिम्मेदारी और राष्ट्रीय संवेदनशीलता के बीच एक संतुलन की जरूरत पर बल देती है. जस्टिस सूर्यकांत के कमेंट अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में राष्ट्र के एक जिम्मेदार व्यक्ति को उसकी नागरिक बोध की जिम्मेदारियों से मुक्त नहीं करते हैं.
इस केस की सुनवाई में जस्टिस सूर्यकांत और एन के सिंह की बेंच ने प्रोफेसर को जमानत तो दे दी, लेकिन जांच पर रोक लगाने से मना कर दिया. सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को मामले की जांच को एसआईटी गठित करने का निर्देश देते हुए कहा कि अभिव्यक्ति की आजादी है लेकिन इस तरह की टिप्पणी अभी ही की है.
Controversial Statement: Ashoka University Professor Arrested
जस्टिस सूर्यकांत का ये कमेंट उनके चीफ जस्टिस के रूप में भविष्य के दृष्टिकोण का एक संकेत हो सकती है, खासकर राष्ट्रीय सुरक्षा और सांप्रदायिक सद्भाव से जुड़े मामलों में. हालांकि हर केस का मेरिट अलग होता है और उसमें मुकदमा और पैरवी की प्रकृति भी अलग होती है.
बता दें कि देश के मौजूदा चीफ जस्टिस बीआर गवई 23 नवंबर 2025 को रिटायर हो रहे हैं. वरिष्ठता के नियमों के आधार पर जस्टिस सूर्यकांत देश के अगले चीफ जस्टिस हो सकते हैं. वे 1 साल 2 महीने तक देश के चीफ जस्टिस रहेंगे. सामान्य गणना के आधार पर उनका कार्यकाल 24 नवबंर 2025 से 9 फरवरी 2027 तक होगा.
इस केस की सुनवाई में न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने कहा कि सभी को अपनी बात कहने का अधिकार है, लेकिन क्या इस मुद्दे पर बोलने का यह सही समय है? उन्होंने कहा, “सभी को अपनी बात कहने का अधिकार है. लेकिन क्या यह समय इतना सांप्रदायिक होने की बात करने का है? देश ने एक बड़ी चुनौती का सामना किया है. दहशतगर्द हर तरफ से आए और हमारे मासूमों पर हमला किया. हम एकजुट रहे. लेकिन इस समय इस अवसर पर सस्ती लोकप्रियता क्यों हासिल की जाए?”
हरियाणा के सोनीपत स्थित अशोका विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान विभाग के प्रमुख प्रोफेसर की ऑनलाइन पोस्ट की जांच करने वाली पीठ ने उनके शब्दों के चयन पर सवाल उठाते हुए कहा कि इनका इस्तेमाल जानबूझकर दूसरों को अपमानित करने, उनका तिरस्कार करने या उन्हें असहज करने के लिए किया गया था.
जस्टिस सूर्यकांत ने आगे कहा, “शब्दों का चयन जानबूझकर दूसरों को अपमानित करने, नीचा दिखाने या असुविधा पैदा करने के लिए किया गया है. प्रोफेसर, जो एक विद्वान व्यक्ति हैं, उनके पास शब्दकोष की कमी नहीं हो सकती… वे दूसरों को चोट पहुंचाए बिना सरल भाषा में उन्हीं भावनाओं को व्यक्त कर सकते थे. उन्हें दूसरों की भावनाओं के प्रति सम्मान दिखाना चाहिए था. उन्हें दूसरों का सम्मान करते हुए सरल और तटस्थ भाषा का इस्तेमाल करना चाहिए था.”
उन्होंने यह भी कहा कि, “आप को अभिव्यक्ति का अधिकार है, लेकिन दूसरों की भावनाओं का भी ख्याल रखें. ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करें जो सिंपल और सहज हो, सम्मानजनक हो और तटस्थ हो.”
केस की सुनवाई में जब प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद के वकील कपिल सिब्बल ने अदालत से कहा कि प्रोफेसर सैनिकों की तारीफ कर रहे थे, उन्हें बदनाम नहीं कर रहे थे.
इस पर जस्टिस सूर्यकांत ने कहा कि लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करते हैं, लेकिन जिम्मेदारियां भी होनी चाहिए. दूसरों की रक्षा करने का कर्तव्य कहां है? सभी लोग अधिकारों की बात करते हैं, मुझे ये और वो करने का अधिकार है. लगता है कि पूरा देश पिछले 75 सालों से लोगों को सिर्फ अधिकार बांट रहा है उन्हें ये बताये बिना कि देश के प्रति उनका कर्तव्य क्या है?
जब कपिल सिब्बल प्रोफेसर महमूदाबाद के शब्दों का भाव समझाने की कोशिश की तो जस्टिस सूर्यकांत ने कहा, “श्रीमान सिब्बल आप अपनी शैक्षणिक योग्यता से इसे बहुत आसानी से समझेंगें. इसे कानूनी भाषा में Dog whistling कहा जाता है.
अदालत ने कहा, “इसे हम कानून में डॉग व्हिसलिंग कहते हैं. उन्हें अधिक सम्मानजनक और तटस्थ भाषा प्रयोग करनी चाहिए थी.”
राजनीति में डॉग व्हिसिल (dog whistle) का अर्थ ऐसे संदेश से है जो एक खास समूह या वर्ग का समर्थन जुटाने और उन्हें भड़काने को दिया जाये. महमूदाबाद की पोस्ट के बारे में आरोप था कि पाकिस्तान से युद्ध के बीच उन्होंने यह पोस्ट वामपंथियों, इस्लामिस्ट कट्टरपंथियों और छद्म लिबरलों का समर्थन पाने को लिखी. जब मेहमूदाबाद की पोस्ट पर कार्रवाई हुई तो यही समर्थक वर्ग उनके बचाव में उतरा.
जस्टिस सूर्यकांत और एन के सिंह की बेंच ने सुनवाई में विश्वविद्यालय के छात्रों और शिक्षकों के महमूदाबाद की गिरफ्तारी विरोधी प्रदर्शन संबंधी रिपोर्टों पर कहा, “यदि वे कुछ भी करने की हिम्मत करते हैं, तो यह स्वीकार्य नहीं है, यदि वे एकजुट होने आदि का प्रयास करते हैं, तो हम जानते हैं कि इनसे कैसे निपटना है, वे हमारे अधिकार क्षेत्र में हैं.”
प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद को 18 मई 2025 को हरियाणा पुलिस ने “ऑपरेशन सिंदूर” और महिला सैन्य अधिकारियों, कर्नल सोफिया कुरैशी और विंग कमांडर व्योमिका सिंह पर आपत्तिजनक सोशल मीडिया पोस्ट पर पकड़ा था. प्रोफेसर अली ने पोस्ट में कहा था कि दक्षिणपंथी टिप्पणीकारों को कर्नल कुरैशी की तारीफ के साथ-साथ लिंचिंग हिंसा और बुलडोजर कार्रवाइयों के खिलाफ भी बोलना चाहिए.
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ऑपरेशन सिंदूर
प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद
Anti thesis: The Problem With Section 152 Bns Operation Sindoor Proffessor Ali Khan Mahmudabad Post Sedition Opinion
विमत:राजद्रोह और धारा 152 की समस्याएं… आखिर अभिव्यक्ति की आजादी पर क्यों शुरू हुई बहस?
महमूदाबाद की आलोचना शायद गलत समय पर की गई हो। लेकिन राजद्रोह कानून के BNS संस्करण का इस्तेमाल क्यों किया जाए? बारीकी से पढ़ने पर पता चलता है कि यह प्रावधान पुलिस को IPC की तुलना में और भी अधिक व्याख्यात्मक स्वतंत्रता देता है।
लेखक : ज्वालिका बालाजी और आदित्य प्रसन्न भट्टाचार्य
bns section 152
बीएनएस की धारा 152
दस दिन पहले, राष्ट्र अभी भी ऑपरेशन सिंदूर की घटनायें आत्मसात कर रहा था, जिसे दो उत्कृष्ट अधिकारियों – कर्नल सोफिया कुरैशी और विंग कमांडर व्योमिका सिंह कुशलतापूर्वक ब्रीफ कर रही थी। अधिकांश ने इसमें सामूहिक गर्व की भावना महसूस की। कुछ ने गहरे सवाल भी उठाए। उदाहरण को, एक प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद ने सोशल मीडिया पर टिप्पणी में कहा कि सेना की ओर से दो अलग-अलग धर्मों की महिला नेतृत्व का प्रदर्शन सराहनीय था। लेकिन क्या ‘दक्षिणपंथी टिप्पणीकारों’ को मॉब लिंचिंग, अभद्र भाषा और अवैध विध्वंस की भी आलोचना करनी चाहिए।
प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद पर BNS धारा 152 में मामला दर्ज किया गया – जो IPC में राजद्रोह का कंट्रोवर्सियल सक्सेसर है। क्या यह सशस्त्र बलों के संरक्षित संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप था? सैनिकों की सेवा का सम्मान राजद्रोह के जाल को फैलाकर नहीं, बल्कि स्वतंत्रता की रक्षा करके किया जाना चाहिए। गणतंत्र की रक्षा केवल सीमा पर साहस से ही नहीं होती, बल्कि घर पर बोलने और सवाल करने के अधिकार से भी होती है।
राजद्रोह पर क्यों शुरू हुई चर्चा
BNS को उपनिवेशवाद से मुक्ति के वादे के तौर पर लागू किया गया था। इसका उद्देश्य औपनिवेशिक IPC 1860 को संवैधानिक मूल्यों और लोकतांत्रिक शासन के साथ अधिक सुसंगत ढांचे से बदलना था। फिर भी, BNS धारा 152 में जो कुख्यात IPC धारा 124A की जगह लेती है, ‘राजद्रोह’ शब्द हटा दिया जाता है, भाषण और असहमति पर राज्य का नियंत्रण फिर से शुरू हो गया है.
धारा 124A ने सरकार के खिलाफ नफरत,अवमानना या असंतोष उत्तेजित करने वाले भाषण को अपराध घोषित कर दिया। इसे जेम्स फिट्जजेम्स स्टीफन के 1870 में तैयार किया गया, उभरते हुए राष्ट्रवादी आंदोलन से निपटने को बनाया गया हथियार था। गांधी ने इसे ‘नागरिकों की स्वतंत्रता दबाने को डिजाइन किए गए IPC के राजनीतिक वर्गों में सबसे खतरनाक’ बताया। 1962 में सुप्रीम कोर्ट ने केदार नाथ सिंह को लेकर अपने फैसले में 124A का दायरा सीमित कर दिया था। राजद्रोह केवल तभी लग सकता था जब भाषण से सार्वजनिक अव्यवस्था या हिंसा भड़कती हो और ऐसे परिणामों से उसका निकट संबंध हो।
समय के साथ, अदालतों ने 124A को संदेह की दृष्टि से देखा और 2022 में, सुप्रीम कोर्ट ने सभी लंबित मुकदमें रोक दिये और संघ से प्रावधान पर पूरी तरह से पुनर्विचार का आग्रह किया। ऐसा लग रहा था कि प्रावधान निरस्त या फिर से तैयार होगा। इसके बजाय, BNS ने इसे धारा 152 से बदल दिया, जो एक व्यापक और अधिक अस्पष्ट संस्करण है।
152 क्या कहता है और क्या नहीं
सेक्शन 152 किसी भी ऐसे कार्य करने या उसमें लिप्त होने को अपराध मानती है जो ‘अलगाव, सशस्त्र विद्रोह या विध्वंसक गतिविधियां’ उत्तेजित करता है, या ‘अलगाववादी गतिविधियों की भावनाओं’ को प्रोत्साहित करता है, या ‘भारत की संप्रभुता या एकता और अखंडता’ खतरे में डालता है। पहली नजर में, यह गंभीर खतरे लक्षित करता दिखता है। लेकिन न्यायालयों की व्याख्यायित 124A के विपरीत, इसमें आसन्नता, इरादे या सार्वजनिक व्यवस्था को ठोस खतरे की आवश्यकता नहीं होती है।
‘विध्वंसक गतिविधियां’ और ‘अलगाववादी गतिविधियां’ शब्द अपरिभाषित हैं, और इन कृत्यों को करने और उनमें लिप्त होने का अंतर स्पष्ट नहीं है – जिससे कानून प्रवर्तन को इसके आवेदन के लिए व्यापक विवेकाधिकार प्राप्त है।
2024 में दिए गए एक फैसले में, राजस्थान हाईकोर्ट ने इस खतरे को पहचाना। इसने धारा 152 को राजद्रोह का नया रूप कहा और फैसला सुनाया कि इसे केवल तभी लागू किया जा सकता है जब विद्रोह या अलगाव से सीधा संबंध हो, साथ ही वास्तविक इरादा भी हो। हालांकि यह एक स्वागत योग्य कदम है, लेकिन यह बताता है कि विधायी अतिक्रमण को सही करने को एक बार फिर अदालतों को हस्तक्षेप करना चाहिए।
महमूदाबाद मामला
इस कानूनी घमासान में महमूदाबाद आया। उसकी पोस्ट में पॉलिसी की आलोचना ने राजनीतिक प्रतिक्रिया को जन्म दिया और धारा 152 में गिरफ्तारी हुई। सुप्रीम कोर्ट की दो जज बेंच ने अंतरिम जमानत दे दी, लेकिन एफआईआर पर रोक लगाने से इनकार कर पोस्ट की भाषा को डिकोड करने को एक एसआईटी गठित की।
पोस्ट में मॉब लिंचिंग और घृणा फैलाने वाले भाषण के बारे में चिंता थी। सबसे खराब स्थिति में, यह एक तीखी आलोचना थी जो शायद कम संवेदनशील समय को सबसे अच्छी थी। सबसे अच्छी स्थिति में, यह लोकतांत्रिक प्रवचन का एक हिस्सा था। उनके शब्द विध्वंसक या अलगाववादी गतिविधि या भारत की संप्रभुता, एकता या अखंडता को खतरा नहीं हैं।
यहां धारा 152 लागू करने से असहमति और देशद्रोह के बीच की रेखा ढह जाती है। यह एक ऐसी रेखा है जिसे उत्तर-औपनिवेशिक आपराधिक कानून को सतर्कता से बनाए रखना चाहिए। महमूदाबाद की टिप्पणी धारा 152 के आवेदन को समझाने को उपयोगी होना चाहिए – कानूनी सुधार के उद्देश्य से सरकार या राजनीतिक कार्यों की आलोचना की रक्षा करना।
सजा के रूप में प्रक्रिया
राजद्रोह की समस्या कभी भी दोषसिद्धि नहीं रही है। यह हमेशा प्रक्रिया रही है। पहले गिरफ्तारी, बाद में सजा। NCRB के आंकड़ों से पता चलता है कि 124A में सजा की दर नगण्य थी। असली नुकसान लंबे समय तक प्री-ट्रायल हिरासत, अपराधीकरण का तमाशा और इससे भेजे गए संदेश में था – असहमति को दंडित किया जा सकता है और किया जाएगा।
धारा 152, अस्पष्ट भाषा को अस्पष्ट मानकों से जोड़कर, पुलिस खुद को सेंसर के रूप में देखने के इस पैटर्न को और तीव्र कर सकती है। औपनिवेशिक कानून की रणनीतिक अस्पष्टता थी – चुनिंदा रूप से लागू करने को पर्याप्त अस्पष्ट कानून तैयार करना। विडंबना यह है कि मैकाले और स्टीफन जैसे औपनिवेशिक ड्राफ्ट्समैन अब गर्व महसूस करेंगे। बीएनएस धारा 152 उनकी औपनिवेशिक विरासत आगे बढ़ाती है।
अब आगे क्या?
यह राजनीतिक नेतृत्व और संवैधानिक शासन को विचारणीय है। सरकारें पुलिस से धारा 152 अंधाधुंध लागू न करने को कहकर संयम दिखायें। इस धारा को ऐसे भाषण को आपराधिक बनाने की अनुमति नहीं देनी चाहिए जो आलोचनात्मक हो लेकिन विध्वंसक न हो।
(लेखक विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी से हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)