किसान आंदोलन का नेतृत्व कर रहे हैं ये वामपंथी

कृषि कानूनों के विरोध में किसान आंदोलन का नेतृत्व कर रहे हैं ये प्रमुख चेहरे
किसान आंदोलन की इस वक्त न सिर्फ देश में बल्कि विदेशों में भी चर्चा है.मोदी सरकार द्वारा लाए गए कृषि कानूनों के विरोध में पंजाब,हरियाणा,राजस्थान,उत्तर प्रदेश सहित कई प्रदेशों के किसान शामिल हैं. वैसे तो किसानों की मांग है कि उनके करीब साढ़े पांच सौ संगठनों से बात की जाए और केंद्र सरकार इसके लिए तैयार भी है। आज हम आपका परिचय करवाते हैं किसानों का प्रतिनिधित्व कर रहे कुछ प्रमुख चेहरों से.

नई दिल्ली. किसान आंदोलन की इस वक्त न सिर्फ देश में बल्कि विदेशों में भी चर्चा है. मोदी सरकार द्वारा लाए गए कृषि कानूनों के विरोध में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश सहित कई प्रदेशों के किसान शामिल हैं. आज हम आपका परिचय करवाते हैं किसानों का प्रतिनिधित्व कर रहे कुछ प्रमुख चेहरों से.

सुरजीत सिंह फूल– भारतीय किसान यूनियन (क्रांतिकारी) के 75 वर्षीय नेता फूल इस आंदोलन के सबसे चर्चित चेहरा हैं. उन्हें 2009 में पंजाब सरकार ने माओवादियों से संबंध के आरोप में यूएपीए लगा दिया था और कड़ी पूछताछ की थी. फूल ने ही बुराड़ी जाने के अमित शाह के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था.

हन्नन मोल्लाह– ऑल इंडिया किसान सभा के 74 वर्षीय मोल्लाह सीपीएम से जुड़े हुए हैं. 16 साल की उम्र में सीपीएम ज्वाइन किया और पोलित ब्यूरो तक पहुंचे.

बोघ सिंह मंशा– 68 वर्षीय बोघ सिंह मंशा भारतीय किसान यूनियन के नेता हैं. पंजाब में छात्र नेता के तौर पर अपनी राजनीतिक पारी शुरू करने वाले मंशा पिछले 42 सालों से किसान आंदोलन से जुड़े हुए हैं.

जोगिंदर सिंह– 75 वर्षीय जोगिंदर सिंह राजनीति में आने से पहले इंडियन आर्मी में सेवा दे चुके हैं. जोगिंदर सिंह उन चंद नेताओं में शामिल हैं जिनसे गृह मंत्री अमित शाह ने बुराड़ी में आंदोलन करने के लिए बात की थी.

डॉ. दर्शन पाल– मालवा क्षेत्र में सक्रिय क्रांतिकारी किसान यूनियन के 70 वर्षीय नेता दर्शन पाल पंजाब सिविल मेडिकल सर्विस से रिटायर होने के बाद खेती करने लगे. उन्होंने किसान आंदोलनों में 2007 के दौरान हिस्सा लेना शुरू किया. कोरोना काल में उन्हें क्रांतिकारी किसान यूनियन का प्रेसीडेंट बना दिया गया.

कुलवंत सिंह संधु – सीपीएम के छात्र विंग एसएफआई से अपनी राजनीति शुरू करने वाले 65 साल के संधु ने पंजाब में अलगाववाद के खिलाफ लड़ाई लड़ी. जलंधर के रुरका कलां गांव के सरपंच चुने गए. अलगाववादियों ने उनके एक पैर में गोली मार दी थी. 2001 में उन्होंने सीपीएम छोड़ दिया.

बूटा सिंह बुर्ज गिल– भारतीय किसान यूनियन के 66 वर्षीय बूटा सिंह इस आंदोलन में अहम भूमिका निभा रहे हैं. बूटा सिंह उन नेताओं में शामिल थे जो 1984 में राजभवन के घेराव में शामिल थे. लंबे समय से कृषि आंदोलनों में शामिल रहे हैं.

निर्भय सिंह दूधिके– 70 साल के निर्भय सिंह कीर्ति किसान यूनियन के नेता हैं. 1972 में पंजाब के मोगा में दो छात्रों की हत्या के विरोध में हुए आंदोलन में सबसे पहले चर्चा में आए. आपातकाल के दौरान 19 महीने जेल में रहे. इसके बाद उन्होंने 1980 में सीपीएम ज्वाइन कर लिया.

बलदेव सिंह निहालगढ़– कुल हिंद किसान सभा के 64 वर्षीय नेता सीपीआई से जुड़े हुए हैं. उन्होंने यूथ विंग के साथ राजनीति की शुरूआत की. सीपीआई के ही किसान संगठन ऑल इंडिया किसान सभा से जुड़े. वामपंथी विचारधारा के बड़े किसान नेता के तौर पर बलदेव सिंह निहालगढ़ का नाम इस आंदोलन में बेहद प्रमुखता से सामने आ रहे हैं

पंजाब,हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों की तरह देश के बाक़ी किसान आंदोलन क्यों नहीं कर रहे हैं?


पंजाब के किसान

महाराष्ट्र में औरंगाबाद ज़िले के कपास के काश्तकार दिनेश कुलकर्णी अपने 50 प्रतिशत कपास उत्पादन की बिक्री न होने के कारण हताश हैं.

वो कहते हैं, “पिछले साल बारिश का मौसम काफ़ी लंबा चला और इस साल महामारी शुरू होने के कारण मेरा पिछले साल का कपास पूरा नहीं बिक सका.”

दिनेश कुलकर्णी की तरह कपास के हज़ारों किसानों का उत्पादन पूरी तरह से मंडी से उठ भी नहीं पाया. खुले बाज़ार में मांग कम है और दाम ज़्यादा.

वहीं, महामारी के कारण सरकार भी एपीएमसी (कृषि उपज मंडी समिति) के अंतर्गत न्यूनतम समर्थन मूल्य (मिनिमम सपोर्ट प्राइस) के हिसाब से अपने कोटे का हिस्सा ख़रीद नहीं सकी.

कपास के किसानों के लिए ये संकट का समय है। ऊपर से हाल में भारत सरकार ने तीन विवादास्पद कृषि सुधार क़ानून पारित किए हैं,जिसके विरोध में धान और गेहूं उगाने वाले किसान पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सड़कों पर उतर आए हैं. कृषि क़ानूनों को लेकर ये किसान केंद्र सरकार से नाराज़ हैं.

किसानों का प्रदर्शन

आंदोलन केवल उत्तर भारत में ही क्यों?

लेकिन खेती में हो रहे नुक़सान को बाद भी दिनेश कुलकर्णी और उनके राज्य के किसान सड़कों पर क्यों नहीं उतरे? उनके राज्य में विरोध प्रदर्शन न के बराबर क्यों है?
इसके जवाब में दिनेश कुलकर्णी कहते हैं कि नए क़ानूनों के कुछ पहलुओं का विरोध उनके राज्य के किसान भी कर रहे हैं लेकिन सड़कों पर उतर कर नहीं बल्कि सरकार से बातचीत के ज़रिए.
उन्होंने बताया, “हम पाँच जून से केंद्र सरकार से लगातार बातचीत कर रहे हैं. सरकार ने क़ानून पारित कर दिया, हमारी बात अब तक नहीं मानी है लेकिन हम मायूस नहीं हुए हैं.”

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े लाखों किसानों की सदस्यता वाले भारतीय किसान संघ के सदस्य दिनेश कुलकर्णी स्वीकार करते हैं कि किसानों के मसले उत्तर भारत और पश्चिमी-दक्षिण भारत में एक जैसे हैं.वो कहते हैं, “किसानों की समस्या हर जगह एक जैसी है. केंद्र और राज्य की सरकारें एपीएमसी (कृषि उपज मंडी समिति) में जो हमारे उत्पादन खरीदती हैं वो पूरे देश में इसका औसत 10 प्रतिशत ही होता है. बाक़ी 90 प्रतिशत किसानों को खुले बाज़ार में डिस्ट्रेस सेल (मजबूरी में बेचना) पड़ता है.”

कुलकर्णी के अनुसार खुले बाज़ार में ख़रीदार (व्यापारी और कंपनी) किसानों का शोषण करते हैं. इसलिए किसानों की समस्या हर जगह समान है.वो ये भी मानते हैं कि नए क़ानून से उत्तर भारत के किसानों को अधिक नुक़सान उठाने की आशंका पैदा हो सकती है.

किसानों का प्रदर्शन

…इसलिए पंजाब में स्थिति अलग है

एपीएमसी में सरकार से पहले से तय दाम में ख़रीददारी का राष्ट्रीय औसत 10 प्रतिशत से कम है, लेकिन इसका उलट पंजाब में 90 प्रतिशत से अधिक है.हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की उपजाऊ ज़मीनों पर उगने वाला अनाज राज्य सरकारें एपीएमसी की मंडियों में न्यूनतम समर्थन मूल्य (मिनिमम सपोर्ट प्राइस) देकर किसानों से ख़रीद लेती हैं. इसका मतलब खुले बाज़ार में केवल 10 प्रतिशत उत्पादन की बिक्री की गुंजाइश रह जाती है.दूसरी तरफ़, देश के लगभग 6,000 एपीएमसी में से 33 फीसदी अकेले पंजाब में ही हैं.
नए कृषि क़ानून में पंजाब का कोई किसान अपनि उत्पादन खुली मंडी में अपने राज्य या राज्य से बाहर कहीं भी बेच सकता है. लेकिन विरोध करने वाले छोटे किसान कहते हैं कि वो एपीएमसी के सिस्टम से बाहर जा कर अपना माल बेचेंगे तो प्राइवेट व्यापारी उनका शोषण कर सकते हैं.इसीलिए पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान एपीएमसी को हटाना नहीं चाहते.

किसान

हर राज्य में खेती का अलग सिस्टम

केरल में सीपीआई(एमएल) के एक पूर्व विधायक कृष्णा प्रसाद,ऑल इंडिया किसान सभा के वित्तीय सचिव हैं. वो दिल्ली में क़ानून के विरोध में पूरी तरह से शामिल हैं.
हमने उनसे पूछा कि किसानों की इतनी ज़बरदस्त नाराज़गी पंजाब और हरियाणा में ही क्यों दिख रही है? पश्चिम और दक्षिण राज्यों में क्यों नहीं? उनका कहना था, “हरित क्रांति से कृषि और आर्थिक सिस्टम सभी प्रांतों में अलग-अलग हैं. पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दो ख़ास अनाज उगाये जाते हैं- धान और गेहूं.”

“देश के 6,000 एपीएमसी मंडियों में से 2,000 से अधिक केवल पंजाब में है. सिस्टम में यहाँ के किसानों को गेहूं और चावल के दाम बिहार, मध्य प्रदेश और दूसरे कई राज्यों से कहीं अधिक मिलते है. इस सिस्टम के अंतर्गत सरकार किसानों को न्यूनतम सपोर्ट दाम देने के लिए बाध्य है.”

कृष्णा प्रसाद कहते हैं कि इन किसानों को डर इस बात का है कि अब नए क़ानून में एपीएमसी को निजी हाथों में दे दिया जाएगा और सरकार के फ़ूड कॉरपोरेशन ऑफ़ इंडिया (एफसीआई) जैसे गल्ला गोदामों का निजीकरण कर दिया जाएगा.

किसान

छोटे किसानों की हालत सबसे ख़राब

दरअसल, देश भर में कुल किसानों की आबादी में छोटे किसानों का हिस्सा 86 प्रतिशत से अधिक है और वो इतने कमज़ोर हैं कि प्राइवेट व्यापारी उनका शोषण आसानी से कर सकते हैं.

देश के किसानों की औसत मासिक आय करीब 6,400 रुपये है. किसान कहते हैं नए क़ानूनों में उनकी आर्थिक सुरक्षा तोड़ उन्हें कॉर्पोरेट के हवाले कर दिया गया है.कृष्णा प्रसाद कहते हैं कि नए कृषि क़ानून में दो ऐसी बातें हैं, जिनसे भारत में कृषि और किसानों का भविष्य अंधकार में पड़ता दिखाई देता है.

वो कहते हैं, “ये एपीएमसी और कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग या ठेके पर की जाने वाली खेती सबसे घातक है. कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग में बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ एक तालुका या गांव के सभी किसानों की ज़मीने ठेके पर ले सकती हैं और एकतरफ़ा फ़ैसला कर सकती हैं कि कौन-सी फ़सल उगानी है.किसान इनके बंधुआ मज़दूर बन कर रह जाएँगे.”
कृष्णा प्रसाद के मुताबिक़, “सरकार ने नए क़ानून लाकर कृषि क्षेत्र का निगमीकरण करने की कोशिश की है और इसे भी ‘अंबानी-अडानी और मल्टीनेशनल कंपनियों के हवाले’ कर दिया है.”वो कहते हैं,”समझने की बात ये है कि निजी कॉर्पोरेट कंपनियां जब आएँगी तो उत्पाद में मूल्य संवर्धन करेंगी,जिसका लाभ केवल उन्हें होगा.छोटे किसानों को नहीं. आप जो ब्रैंडेड बासमती चावल खरीदते हैं वो मूल्य संवर्धन के साथ बाज़ार में लाए जाते हैं.”

“किसान को एक किलो के केवल 20-30 रुपये ही मिलेंगे लेकिन मार्किट में वो मूल्य संवर्धन के बाद 150 रुपये से लेकर ब्रैंड वाले बासमती चावल का दाम 2,200 प्रति किलो तक जा सकता है. बेचारे ग़रीब किसान को एक किलो के केवल 20 रुपये ही मिल रहे हैं.”
भारत के कुछ राज्यों में कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग का रिवाज़ नए क़ानून के पारित किये जाने से पहले से मौजूद है और कृषि के निजीकरण के उदाहरण भी मिलते हैं.लेकिन अभी ये बहुत छोटे पैमाने पर है.

केरल के किसान

केरल मॉडल सबसे बढ़िया?

केरल के किसान नारायण कुट्टी ने बताया कि राज्य में किसान 50-60 की संख्या में कुछ जगहों पर प्रदर्शन ज़रूर कर रहे हैं लेकिन अधिकतर किसानों ने नए क़ानून का समर्थन किया है.कहते हैं,”केरल में 82 प्रतिशत को ऑपरेटिव्स हैं और वहाँ किसान इस मॉडल को पसंद करते हैं.”

असल में केरल में खेती की सब से अच्छी मिसाल छोटी किसान महिलाओं के कोऑपरेटिव्स में मिलती है,जिसे राज्य में कुदुम्बश्री के नाम से जाना जाता है.इसे राज्य सरकार ने 20 साल पहले शुरू किया था.

आज इस योजना में चार लाख के क़रीब महिला किसान शामिल हैं जो 14 ज़िलों में 59,500 छोटे समूहों में विभाजित की गई हैं.ये सब्ज़ी,धान और फल उगाती हैं.चार से 10 सदस्यों का एक समूह होता है जो उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा मंडी में या तो सरकार को बेच देता है या खुली मंडी में.

केरल के कृषि मंत्री सुशील कुमार ने जुलाई में राज्य के कृषि मंत्रियों की कॉफ़्रेंस में दावा किया था कि कॉर्पोरेट द्वारा कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग के बजाय उनका राज्य सहकारी समितियों और सामुदायिक नेटवर्क द्वारा सामूहिक खेती को बढ़ावा दे रहा है, जिसके बहुत अच्छे नतीजे सामने आ रहे हैं.

किसानों का प्रदर्शन

राजनीति या किसानों के असल हमदर्द?

भारतीय जनता पार्टी के सूत्रों का दावा है कि किसानों का आंदोलन पंजाब तक सीमित इसलिए है कि राज्य में कांग्रेस की सरकार है और कांग्रेस इस आंदोलन को स्पॉन्सर कर रही है.

वो कहते हैं, “कांग्रेस सिर्फ़ सियासत कर रही है. हम जो क़ानून लेकर आये हैं, वो कांग्रेस पार्टी के 2019 के चुनावी घोषणा पत्र में आपको मिल जाएगा. पंजाब सरकार केंद्रीय कृषि बिल को नकारने के लिए अलग क़ानून लाई है, जो उनके अनुसार किसानों की मांगों को पूरा करता है. तो अब आंदोलन किस बात का?”

महाराष्ट्र के किसान दिनेश कुलकर्णी और केरल के किसान नारायण कुट्टी से बातें करके समझ में आया कि उन्हें भी आंदोलन के पीछे कांग्रेस पार्टी का हाथ लगता है.

हालाँकि केरल के पूर्व विधायक कृष्णा प्रसाद कहते हैं कि सियासत बीजेपी और कांग्रेस दोनों पार्टियाँ कर रही हैं. उनके अनुसार जब मोदी जी विपक्ष में थे तो उनकी पार्टी ने कांग्रेस सरकार के ऐसे प्रस्तावों का कड़ा विरोध किया था और अब सत्ता में आकर उन्होंने कांग्रेस के ही प्रस्तावों को लागू कर दिया है तो अब कांग्रेस परेशान हो रही है.

कृष्णा प्रसाद का कहते हैं, “सच तो ये है कि केवल मोदी जी की आलोचना करना सही नहीं है. कृषि क्षेत्र का निगमीकरण कांग्रेस पार्टी ने 1991 में ही शुरू कर दिया था.”

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