समान नागरिक संहिता हिंदू एजेंडा नहीं, शाहबानो जैसी औरतों की जरूरत है

समान नागरिक संहिता हिंदुत्व का एजेंडा नहीं शाहबानो जैसी महिलाओं की जरूरत है
Uniform Civil Code : समान नागरिक संहिता की जरूरत अंग्रेजों ने भी महसूस की लेकिन हुकूमत बनाए रखने के लिए बांटो और राज करो की नीति पर चला था। लिहाजा इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। जब आजादी मिली तो संविधान निर्माताओं ने भी इस पर बहस की। अंबेडकर तो खुलकर इसके पक्ष में थे।

        मुख्य बिंदु 
एक देश दो विधान नहीं चलेगा
समान नागरिक संहिता लागू हो
शादी और बच्चे सबके एक जैसे
तलाक और विरासत अलग कैसे

नई दिल्ली 20 अगस्त: अभी हाल ही में जावेद अख्तर का एक इंटरव्यू देख रहा था। समान नागरिक संहिता यानी यूनिफॉर्म सिविल कोड का विरोध करने वालों से उन्होंने एक सवाल पूछा – अपने बच्चों को तुर्की, अमेरिका और यूरोप भेजने से पहले भारत के मुसलमान क्या वहां के कानून को देखते हैं? जावेद अख्तर ने ये भी शंका जताते हुए कहा – मुसलमानों को शायद ऐसा लग रहा है कि यूसीसी के आने के बाद वो एक से ज्यादा शादी नहीं कर पाएंगे। अख्तर साहब की बात एक हद तक नहीं बहुत हद तक जायज है। और तीन तलाक पर बैन के बाद इस तरह का डर घर कर गया है तो हंसी आती है। हमारा पौराणिक इतिहास हिंदू राजाओं और समाज में समृद्धों के बहुविवाह की परंपरा से पटा हुआ है। ये प्रथा आज भी कई जगहों में जारी है। हिंदू धर्म में तो वेद, पुराण और संहिताओं का अंबार है। अब अगर उसके आधार पर कानून बनने लगे तो घोर कन्फ्यूजन की स्थिति पैदा हो जाएगी। इसी तरह अगर शरिया के मुताबिक मुसलमान जाती जिंदगी जीना चाहते हैं तब तो बेटियों की शिक्षा पर सवाल उठेंगे, बैंक से ब्याज को हराम माना जाएगा। इसलिए यूनिफॉर्म सिविल कोड को एक प्रगतिशील समाज की जरूरत के तौर पर ही देखा जाना चाहिए। एक देश में दो विधान, दो निशान और दो प्रधान नहीं चलेंगे – ने नारा देने वाले श्यामा प्रसाद मुखर्जी अकेले नहीं थे। और न ही ये हिंदुत्ववादियों का एजेंडा है। ये शाहबानो जैसी महिलाओं की जरूरत है। तभी तो हमारे संविधान के पितामह डॉक्टर अंबेडकर ने यूसीसी के पक्ष में अपनी राय रखी थी। जब संविधान सभा में कई सदस्यों ने अलग-अलग धर्मों के पर्सनल लॉ में हस्तक्षेप पर आपत्ति जताई तो अंबेडकर ने कहा – अगर सामाजिक मामलों में राज्य यानी सरकार का कोई दखल नहीं होगा तो देश एक जगह ठहर जाएगा।

मुस्लिम देशों में यूसीसी

विविधता से भरे देश में ऐसा नहीं है कि हिंदुओं के सारे मामले किसी एक हिंदू पर्सनल लॉ से तय होते हैं। एक हिंदू अगर पारंपरिक रस्मों से शादी करे तो कोई और कानून और स्पेशनल मैरिज एक्ट में कोर्ट में शादी कर ले और बीवी किसी और धर्म की हो तो उसके लिए अलग एक्ट। गफलत है। बहुत गफलत है। अब मुसलमानों की चिंताओं पर आते हैं। आम तौर पर जेहन में सवाल आता होगा कि क्या किसी मुस्लिम देश में यूसीसी जैसा कानून है जो किसी धार्मिक ग्रंथ से गाइड न होता हो। तो तीन उदाहरण दिए चलते हैं-

तुर्की – यहां की 99 प्रतिशत आबादी मुस्लिम है। अतातुर्क मुस्तफा कमाम पाशा के इस देश में 1926 से ही धर्मनिरपेक्ष कानून लागू है। शादी, वारिस, बच्चों और संपत्ति पर अधिकार के कानून सबके लिए समान हैं। शरिया का इससे कोई लेना – देना नहीं है। हाल ही में इसे और प्रोग्रेसिव बनाया गया। सहमति से सेक्स के लिए मर्दों और औरतों की उम्र सीमा 18 की गई है। शादीशुदा जिंदगी में पति-पत्नी को फैसले लेने के समान अधिकार दिए गए हैं। संयुक्त संपत्ति में हक के फैसले को पति-पत्नी पर छोड़ दिया गया है। वो सहमति से जो तय कर लें।

नेपाल – नेशनल सिविल कोड 2017 ने तय कर दिया है कि देश का फैमिली लॉ एक होगा। बहुविवाह पर रोक है। शादी के लिए न्यूनतम उम्र सीमा 20 है। पति-पत्नी को तलाक के समान अधिकार मिले हुए हैं। महिलाएं शादी के बाद भी सरनेम बदलने के लिए मजबूर नहीं हैं।

क्यूबेक, कनाडा – कनाडा के सबसे बड़े प्रांत में एक ही सिविल कोड चलता है। संपत्ति पर हक, शादी और बच्चों के अधिकार सबके लिए एक है।
गुलामी और आजादी के बाद अब तक यही प्रचारित किया जाता है मानो यूनिफॉर्म सिविल कोड सिर्फ मुसलमानों के लिए होगा। दिक्कत यही है। इससे कोई इनकार नहीं कर सकता भारत की तुलना किसी और देश से नहीं हो सकती है। पूर्वोत्तर से लेकर अंडमान तक हमारे समाज में जितनी विविधता है उतनी कहीं नहीं। पर यूसीसी को सिरे से खारिज करना तर्कसंगत नहीं है।

अब कुछ तारीखों और तकरीरों से यूसीसी को समझते हैं

1856 – ब्रिटिश राज के दूसरे लॉ कमिशन ने अपनी रिपोर्ट में अपराध, साक्ष्य और अन्य मसलों पर एक कोड की वकालत की लेकिन हिंदुओं और मुसलमानों के पर्सनल लॉ में दखल नहीं देने की सिफारिश की

1858- ईस्ट इंडिया कंपनी के बाद महारानी विक्टोरिया का शासन शुरू हुआ तब भी धार्मिक मामलों में कोई हस्तक्षेप नहीं करने का वादा किया गया।

1941- हिंदू कोड बिल – बीएन राव कमेटी ने हिंदू मैरिज बिल और सक्सेशन बिल लाने की जरूरत बताई

1943- केंद्रीय सदन में भारी विरोध के कारण पारित नहीं हो सका।

11 अप्रैल, 1947 – कानून मंत्री बीआर अंबेडकर ने संविधान सभा में हिंदू कोड बिल पेश किया।

23 नवंबर, 1948- संविधान सभा में यूसीसी पर बहस हुई। संविधान के ड्राफ्ट में इसे अनुच्छेद 35 में रखा गया लेकिन बाद में इसे अनुच्छेद 44 में रख दिया गया जो राज्यों के नीति निर्देशक तत्व हैं।

1952-56- हिंदू कोड में तीन कानून पास किए गए। हिंदू मैरिज एक्ट 1955, हिंदू सक्सेशन एक्ट 1956 और हिंदू एडप्शन एंड मेंटेनेंस एक्ट 1956

1954- स्पेशल मैरिज एक्ट पारित किया गया। यहां सारे पर्सनल लॉ धराशायी हो जाते हैं क्योंकि इस एक्ट में मजहब और जाति के भेदभाव बिना दो वयस्क शादी कर सकते हैं। बहुविवाह को अवैध ठहराया गया। संपत्ति और उत्तराधिकार के कानून पर्सनल लॉ से तय नहीं होगें।

2023- 22वें विधि आयोग ने धार्मिक संस्थाओं और आम लोगों से यूसीसी पर राय मांगी है। उत्तराखंड में तो कमेटी बना दी गई है। पुष्कर धामी ने यूसीसी लागू करने का वादा किया है।

आजादी के बाद से लेकर अब तक कई ऐसे मौके आए जब सुप्रीम अदालत ने हैरानी जताई कि संविधान के अनुच्छेद 44 पर कोई सरकार अमल क्यों नहीं करती। ऐसे कुछ फैसलों पर गौर करने की जरूरत है।

सुप्रीम कोर्ट भी हैरान
अहमद खान बनाम शाहबानो बेगम – 1985 का ऐतिहासिक फैसला। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस वाईवी चंद्रचूड़ की अगुआई वाली पीठ ने शाहबानो के पति को गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया। कोर्ट ने मुस्लिम पर्सनल लॉ मानने से इनकार करते हुए तलाकशुदा शाहबानो के पक्ष में फैसला दिया। अदालत ने कहा कि अनुच्छेद 44 मृत अवस्था में रख दिया गया है। अगर यूनिफॉर्म सिविल कोड आ जाए तो राष्ट्रीय अखंडता, एकता और जेंडर जस्टिस का सपना साकार होगा। लेकिन राजीव गांधी सरकार ने नया एक्ट लाकर इस फैसले को ही पलट दिया।

मिस जोरडान दिएंगदेह बनाम एसएस चोपड़ा (1985) – मेघालय में खासी जनजाति की महिला ने अपने सिख पति से तलाक मांगा। उसकी दलील थी कि इंडियन डायवोर्स एक्ट 1869 में उसे तलाक मिले क्योंकि उसका पति नपुंसक है। दोनों की शादी क्रिश्चियन मैरिज एक्ट 1872 में हुई थी। हाई कोर्ट ने कहा कि 1869 का एक्ट सिर्फ ईसाइयों पर लागू होता है, इसलिए महिला को ज्यूडिशियल सेपरेशन मिलेगा न कि तलाक। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले का जिक्र करते हुए कहा था कि देश को एक यूनिफॉर्म कानून की सख्त जरूरत है

सरला मुदगल बनाम केंद्र सरकार (1995) – ये पेचीदा मामला था। कोर्ट को तय करना था कि हिंदू कानून से शादी कर चुका हिंदू पति क्या इस्लाम को अपनाने के बाद दूसरी शादी कर सकता है? कोर्ट ने फैसला सुनाया कि इस्लाम कबूल करने के बाद दूसरी शादी गैर कानूनी है। जस्टिस कुलदीप सिंह ने कहा कि 41 साल बाद भी सरकार अनुच्छेद 44 को कोल्ड स्टोरेज से निकालने के मूड में नहीं है।

शबनम हाशमी बनाम केंद्र सरकार (2014)- इस्लामी कानून में बच्चे और माता पिता के बीच बायोलॉजिकल रिलेशन होना जरूरी है। शबनम हाशमी ने एक बच्ची गोद लिया लेकिन कानूनी तौर पर वो सिर्फ उसकी अभिभावक हो सकती थीं। तो उन्होंने पर्सनल लॉ के खिलाफ अपील की। कोर्ट ने जुवेनाइल जस्टिस एक्ट 2000 में हाशमी को राहत दी और उम्मीद जताई इस तरह का एक्ट अनुच्छेद 44 की भावनाओं को पूरा करने में मामूली कदम साबित होगा।

गुलामी और आजादी के बाद अब तक यही प्रचारित किया जाता है मानो यूनिफॉर्म सिविल कोड सिर्फ मुसलमानों के लिए होगा। दिक्कत यही है। इससे कोई इनकार नहीं कर सकता भारत की तुलना किसी और देश से नहीं हो सकती है। पूर्वोत्तर से लेकर अंडमान तक हमारे समाज में जितनी विविधता है उतनी कहीं नहीं। पर यूसीसी को सिरे से खारिज करना तर्कसंगत नहीं है। आपने देखा कि कैसे अदालतें भी अलग-अलग कानूनों के घनचक्कर में फंसती हैं और उन्हें किसी और एक्ट का सहारा लेकर फैसला सुनाना पड़ता है। इंग्लैंड से लॉ पढ़ने वाले ओवैसी जैसे लोग जब इस पर राजनीति करते हैं तो वो अपने ही समाज का नुकसान कर रहे होते हैं।

अलग-अलग पर्सनल लॉ भ्रम पैदा करते हैं

All You Need To Know About Uniform Civil Code History Background And Article 44 Of Indian Constitution

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *