विधानसभा चुनाव में निराश भाजपा ने बदली रणनीति, शुरूआत से कर रही शुरू

विधानसभा चुनावों में हार से अमित शाह BJP की रणनीति बदलने को मजबूर
अमित शाह (Amit Shah) ने पार्लियामेंट में संपूर्ण बहुमत के लिए पंचायतों (Panchayat Polls) का रास्ता अख्तियार किया है, ताकि विधानसभा चुनावों में जीत सुनिश्चित हो और फिर राज्य सभा में – और इस तरह भाजपा अपने स्वर्णिम काल (BJP Golden Period) में पहुंच सके
अमित शाह (Amit Shah) ने फिर से मोर्चा संभाल लिया है – बिलकुल ही नये जोश-खरोश, तेवर और कलेवर के साथ. बिहार में चुनावी मुहिम की शुरुआत के बाद सेहत ठीक न होने की वजह से अमित शाह को कुछ दिन के लिए फील्ड से दूर रहना पड़ा था, लेकिन बिहार के नतीजे आते ही वो हैदराबाद की सड़कों पर सदल बल पहुंच गये और असदुद्दीन ओवैसी के गढ़ में भगवा फहरा कर दिल्ली लौटे.

दिल्ली में पंजाब के किसान पहले से ही डेरा डाले हुए थे, लिहाजा उनसे भी मेल मुलाकात चल रही है. किसानों से कई दौर की बातचीत के बावजूद बात तो नहीं बनी है, लेकिन तभी राजस्थान के पंचायत चुनाव (Panchayat Polls) नतीजे आते हैं और भाजपा नेताओं का उत्साह देखते ही बनता है.

मोदी सरकार के मंत्री प्रकाश जावड़ेकर तो यही समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि किसान आंदोलन से भाजपा की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा है, कहते हैं, ‘नये कृषि कानूनों में हुए सुधारों पर विपक्षी दलों के हमले के बावजूद लोग भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सपोर्ट कर रहे हैं.’

किसान आंदोलन अमित शाह के लिए CAA और धारा 370 के विरोध के मुकाबले ज्यादा भारी पड़ रहा है. सीएए और जम्मू-कश्मीर को लेकर धारा 370 के विरोध को तो अमित शाह ने पुलिस और सुरक्षा बलों के बल से न्यूट्रलाइज कर दिया, लेकिन किसानों से सोच समझ कर पेश आने की मजबूरी है.

किसान आंदोलन का भी नेतृत्व एक तरीके से पंजाब से हो रहा है जहां सरकार कांग्रेस की है और गठबंधन साथी शिरोमणि अकाली दल एनडीए छोड़ कर पहले से मैदान में डट गया है. जो किसान फिलहाल दिल्ली में डेरा डाले हुए हैं, दो साल बाद 2022 में वोट के लिए उनके पास पहुंचना है और वो भी अकेले.

लेकिन अमित शाह ने भाजपा के लिए नया रास्ता निकाल लिया है – 2022 के विधानसभा चुनाव से साल भर पहले वहां स्थानीय निकायों के चुनाव होने हैं. अमित शाह ने भाजपा नेताओं को अभी से काम पर लगा दिया है.

पंजाब भाजपा अध्यक्ष अश्विनी शर्मा से जब टाइम्स ऑफ इंडिया ने इस बारे में पूछा तो उनका कहना रहा, ‘हमारा फोकस शहरी निकाय चुनावों पर है. मैं खुद चुनाव के मद्देनजर विभिन्न जिलों का दौरा कर संगठन को मजबूत करने में लगा हुआ हूं. अभी तक हम गठबंधन में लड़ते थे, लेकिन अब हम खुद के चुनाव निशान पर लड़ेंगे – वोटर्स को भी सीधे मतदान का मौका मिलेगा.’

2019 के आम चुनाव के बाद विधानसभा चुनावों में लगातार मिली असफलता ने लगता है अमित शाह को भाजपा की चुनावी रणनीतियों में बदलाव के लिए मजबूर किया है. महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनावों में भाजपा को कम सीटें मिलना, झारखंड में सत्ता का हाथ से फिसल जाना और फिर दिल्ली में हार का इतिहास दोहराया जाना – निश्चित तौर पर भाजपा को रणनीति की समीक्षा करना जरूरी था – और अब उसी पर पूरे देश में काम चालू हो चुका है.

जमीन तैयार करने के बाद पांव जमाने की कोशिश

बिहार विधानसभा चुनाव के लिए भाजपा ने सिर्फ साम-दाम-दंड-भेद ही नहीं चिराग पासवान के जरिये ऑपरेशन वोटकटवा भी चलाया और उसका पूरा फायदा भी मिला, लेकिन हैदराबाद एक्सपेरिमेंट थोड़ा अलग रहा. ये एक्सपेरिमेंट रहा राष्ट्रीय मुद्दों के सहारे निहायत ही स्थानीय चुनाव लड़ना – लेकिन उसी तरीके से जैसे कोई जनरल इलेक्शन की जंग में कूद पड़ता हो.

हैदराबाद प्रयोग बेहद सफल होने के बाद भाजपा ने उसे देश भर में अमल में लाने की कोशिश की है. राजस्थान से तो रिजल्ट भी आ चुका है और ऐसा आया है कि भाजपा के लिए खुशी को संभालना मुश्किल हो रहा है. भाजपा नेता प्रकाश जावड़ेकर की बातों से तो ऐसा ही लगता है.

केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर कहते हैं, ‘पूरब, उत्तर, दक्षिण… आप जहां भी जाएंगे – सिर्फ भाजपा, भाजपा, भाजपा है.’

भाजपा को स्वर्णिम काल में पहुंचाने के अभियान में अमित शाह ने संभाला मोर्चा

खुशी में आम इंसान के भाव आंसू प्रकट करते हैं और राजनीति में उनकी जगह शब्द ले लेते हैं,प्रकाश जावड़ेकर आगे कहते हैं -‘ये जीत बता रही है कि राजस्थान की जनता भाजपा के साथ है… राजस्थान ही नहीं बिहार, तेलंगाना,अरुणाचल प्रदेश के चुनावी नतीजे बता रहे हैं कि पूरा देश भाजपा और इस बदलाव से खुश है.लोगों ने विपक्षी दलों की नकारात्मक राजनीति को खारिज कर दिया है.’

हैदराबाद, राजस्थान और पंजाब ही नहीं, भाजपा राज्यों में शहरी निकाय और पंचायतों के जरिये जमीन तैयार करने की कोशिश कर रही है – और एक बार जब जमीन तैयार हो जाये तो पांव जमाने के लिए कदम बढ़ाना होता है – जैसा भाजपा धीरे – धीरे पश्चिम बंगाल में करती आ रही है.

भाजपा का ये प्रयोग जम्मू-कश्मीर में हो रहे डीडीसी चुनावों में भी चल रहा है – और फिर केरल और ऐसे ही दूसरे राज्यों में शहरी निकायों को लेकर भी तैयारी है. पूरी तैयारी है. भाजपा नेता राधामोहन सिंह लखनऊ में डेरा डाले हुए थे तो उसका भी मकसद यही रहा – और पश्चिम बंगाल में चुनावी अभियान को गति देने के बाद 28-29 दिसंबर को भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा भी लखनऊ उन तैयारियों का ही जायजा लेने जाने वाले हैं.

जम्मू-कश्मीर से धारा 370 खत्म कर उसे केंद्र शासित प्रदेश बनाने के बाद पहली बार वहां DDC यानी डिस्ट्रिक्ट डेवलपमेंट काउंसिल के चुनाव हो रहे हैं. 28 नवंबर से शुरू होकर ये चुनाव आठ चरणों में 22 दिसंबर तक होंगे.

हैदराबाद तो नमूना भर रहा, जम्मू-कश्मीर चुनाव में भाजपा ने सीनियर नेता सैयद शाहनवाज हुसैन और अनुराग ठाकर को टास्क थमाया है. डीडीसी के चुनाव को भी विधानसभा चुनाव के लिए रिहर्सल के रूप में देखा जाना चाहिये. भाजपा नेता मनोज सिन्हा को जम्मू-कश्मीर का उप राज्यपाल बनाये जाने के बाद से ही मोदी सरकार वहां राजनीतिक गतिविधियां बढ़ाने की कोशिश कर रही है.

भाजपा नेतृत्व की प्राथमिकता शहरी निकायों में पैठ बनाने के बाद पार्टी का दबदबा कायम करना है, ताकि लोगों तक सीधी पहुंच बनाना और राजनैतिक गतिविधियों के साथ साथ संवाद स्थापित किया जा सके.

ये भी बूथ लेवल मैनेजमेंट ही तो है!

2014 में केंद्र की सत्ता पर कब्जे के बाद जब अमित शाह को भाजपा की कमान सौंपी गयी तभी से वो अपने मिशन में लग गये और मन में जो मंजिल रही उसे लेकर तेजी से कदम बढ़ाते हुए आगे बढ़ने लगे.

मंजिल को लेकर अमित शाह के मन में जो कल्पना रही उसे वो 2017 में सार्वजनिक किये – और ये तभी किया जब ओडिशा में निकायों के चुनाव हो रहे थे. ये तब की बात है जब मीडिया में भाजपा के स्वर्णिम काल (BJP Golden Period) का जिक्र होने लगा था. अमित शाह भाजपा कार्यकर्ताओं को तभी साफ कर दिया था – नहीं, ये कोई स्वर्णिम काल नहीं है. अमित शाह ने बताया कि भाजपा का स्वर्णिम काल वो तब समझेंगे जब पंचायत से लेकर पार्लियामेंट तक भाजपा सत्ता में होगी.

2017 तो भाजपा के लिए काफी अच्छा रहा. पंजाब में गठबंधन सरकार भी चली गयी, लेकिन उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर के बाद साल के आखिर में गुजरात में सत्ता में जैसे- तैसे वापसी के साथ ही हिमाचल प्रदेश को भी कांग्रेस मुक्त बना कर जयराम ठाकुर के नेतृत्व में सरकार बन गयी. 2018 की शुरुआत भी अच्छी रही जब त्रिपुरा में बरसों पुराने लेफ्ट शासन को हटाकर भाजपा ने सरकार बनायी, हालांकि, मुख्यमंत्री बिप्वब देब के फैसलों से भाजपा आलाकमान थोड़ा नाखुश है. त्रिपुरा के बाद कर्नाटक चुनाव में भाजपा नेता बीएस येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद की जबरन शपथ लेने के बावजूद कुर्सी छोड़नी पड़ी. करीब सवा साल बाद भाजपा में ऑपरेशन लोटस के जनक येदियुरप्पा ने एचडी कुमारस्वामी की गठबंधन सरकार को हटा कर फिर से कुर्सी पर बैठ लिये. सुनने में आया है कि कुमारस्वामी अफसोस जाहिर करते फिर रहे हैं कि तब अगर कांग्रेस की जगह भाजपा से हाथ मिलाया होता तो ये हाल न होता. साल का आखिर भाजपा के लिए बहुत बुरा रहा जब मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में पार्टी को सत्ता से हाथ धोना पड़ा.

ऐसे तमाम खट्टे मीठे अनुभवों को देखते हुए अमित शाह ने मंजिल की दिशा में भाजपा के लिए कुछ पड़ाव तय किये और गुजरते वक्त के साथ वे मील के पत्थर बनते गये. मसलन, भाजपा को सबसे बड़ी पार्टी बनाने का सफल अभियान चलाया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पांच साल के शासन के बाद पहले के मुकाबले ज्यादा सीटें लाकर अपने बूते लोक सभा में बहुमत हासिल करना.

ये सब होने के बावजूद भाजपा के लिए राज्य सभा में मुश्किलें थमने का नाम नहीं ले रही थीं, फिर भी तीन तलाक, धारा 370 और सीएए के बाद कृषि कानून बनाने में भाजपा नेतृत्व सफल रहा – लेकिन 2019 में सत्ता में वापसी के बावजूद भाजपा विधानसभा चुनावों में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पा रही थी – कम से कम बिहार चुनाव से पहले तो यही हाल रहा.

लगता ये सब सोच कर ही अमित शाह ने भाजपा की रणनीतियों में बदलाव किया है. लोक सभा में अपने बूते बहुमत हासिल करने के बाद अब वो पंचायत स्तर पर पार्टी को मजबूत करने में लग गये हैं.

अमित शाह के लिए पंचायत और शहरी निकायों के चुनाव भी बूथ लेवल मैनेजमेंट जैसा ही है, जिसके वो माहिर माने जाते हैं – पंचायत अगर अपनी हुई तो पूरा पार्लियामेंट भी अपना हो जाएगा. लोक सभा में बहुमत के बाद अगर विधानसभाओं में बहुमत मिलने लगे तो राज्य सभा में भी भाजपा अकेले दम पर अपना सिक्का चला सकेगी – ये है भाजपा के स्वर्णिम काल का प्लान.

पंचायत चुनाव के फायदे भी बहुत सारे हैं. पंचायत चुनाव ज्यादातर व्यक्तिगत रिश्तों पर लड़े जाते हैं जिनमें उम्मीदवारों को टिकट तो दिये जाते हैं लेकिन पार्टी या विचारधारा बहुत मायने नहीं रखती. अब अगर पंचायत स्तर पर भाजपा खुद को मजबूत कर लेती है तो समझ लेना चाहिये स्थानीय नेताओं के माध्यम से मोदी लहर कायम करने की कोशिश की जाएगी.

देखा जाये तो पार्लियामेंट के बाद पंचायतों के चुनाव जीतकर भाजपा स्वर्णिम काल में पहुंचना चाहती है ताकि विधानसभाओं में जीत सुनिश्चित की जा सके और उसके रास्ते राज्य सभा में भी बहुमत हासिल हो जाये. दरअसल, ये भी अमित शाह के बूथ लेवल मैनेजमेंट जैसा ही है – और जब पचांयतों के जरिये बूथ लेवल मैनेजमेंट होने लगें तो फिर कामयाबी की संभावनाएं बढ़ जाती है।

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