सुको मध्यस्थता कमेटी में मान के शामिल होने और इस्तीफे की अंतर्कथा

इनसाइड स्टोरी:सुप्रीम कोर्ट की समिति में भूपिंदर सिंह मान के शामिल होने और फिर इससे अलग होने की कहानी
नई दिल्ली15 जनवरी,( राहुल कोटियाल) किसान आंदोलन में मध्यस्थता के लिए सुप्रीम कोर्ट की तरफ से बनाई गई कमेटी से पूर्व राज्यसभा सांसद और किसान नेता भूपिंदर सिंह मान ने खुद को अलग कर लिया है। 14 जनवरी को उन्होंने एक प्रेस नोट जारी करते हुए कहा, ‘मैं सुप्रीम कोर्ट को धन्यवाद देता हूं कि उन्होंने मुझे इस कमेटी में मनोनीत किया, लेकिन खुद एक किसान और एक किसान नेता होने के नाते, आम लोगों और किसानों की चिंताओं को देखते हुए किसी भी पद की कुर्बानी के लिए तैयार हूं। मैं खुद को कमेटी से अलग करता हूं। मैं पंजाब और किसानों के साथ हूं।’

मान का समिति से अलग होना कई लोगों के लिए चौंकाने वाली खबर बनकर आई, लेकिन उनकी राजनीति को नजदीक से जानने वालों के लिए यह अप्रत्याशित नहीं था। अखिल भारतीय किसान महासभा के पुरुषोत्तम शर्मा ऐसे ही व्यक्ति हैं, जो मान को 80 के दशक से जानते हैं। वे बताते हैं, ‘भूपिंदर मान का न तो इस समिति में शामिल होना अप्रत्याशित था और न ही अब खुद को इस समिति से अलग कर लेना।’

भूपिंदर मान इस समिति से क्यों अलग हुए? इस सवाल का जवाब तलाशने से पहले यह समझना जरूरी है कि उन्हें इस समिति में शामिल ही क्यों किया गया था जबकि बतौर किसान नेता उनका कोई व्यापक जनाधार नहीं है। पुरुषोत्तम शर्मा कहते हैं, ‘यह समझने के लिए भूपिंदर सिंह मान का इतिहास जानना जरूरी है।’

‘कांग्रेस से जुड़े तो किसानों से दूर हो गए’

आजादी से पहले पंजाब के गुजरांवाला (अब पाकिस्तान में) में पैदा हुए सरदार भूपिंदर सिंह मान एक दौर में किसानों के बड़े नेता हुए करते थे। 1960 के दशक में उन्होंने पंजाब में ‘खेती-बाड़ी यूनियन’ की स्थापना की जो आगे चलकर ‘भारतीय किसान यूनियन’ बनी। पुरुषोत्तम शर्मा बताते हैं कि उस दौर में भूपिंदर मान के नेतृत्व में किसानों को फसल के लाभकारी मूल्यों मिलने के कई आंदोलन हुए और यह वो दौर था उनकी पहचान महेंद्र सिंह टिकैत जैसे नेताओं से भी बड़ी हुआ करती थी। 1980 और 90 के दशक में मान के साथ कई किसान आंदोलनों में हिस्सा ले चुके शर्मा बताते हैं, ‘कई किसान नेताओं की राजनीतिक दलों के साथ गहरी पैठ बन जाती है। मान के साथ भी यही हुआ। कांग्रेस में बेहद गहरी पैठ बनी, जिसके चलते वे राज्यसभा सदस्य बना दिए गए, लेकिन यहीं से किसानों के बीच उनकी पकड़ कमजोर होती चली गई।’

1990 का दशक शुरू हुआ तो देश में उदारीकरण की भी शुरुआत हुई। किसान संगठनों में वैचारिक मतभेद की जड़ें भी यहीं से गहराना शुरू हुई। पुरुषोत्तम शर्मा कहते हैं, ‘ये वो दौर था जब विश्व व्यापार संगठन से जुड़ने या न जुड़ने की बहस तेज हो रही थी। एक तरफ़ तमाम किसान संगठन थे जो खुद को इससे अलग रखना चाहते थे और दूसरी तरफ शरद जोशी और भूपिंदर मान जैसे लोग थे जो इससे जुड़ने की वकालत कर रहे थे। इसके बाद भूपिंदर मान अपना जनाधार लगातार खोते ही चले गए।’

राज्यसभा की सदस्यता ने भूपिंदर मान को न सिर्फ़ व्यक्तिगत तौर पर किसानों से अलग-थलग कर दिया बल्कि भारतीय किसान यूनियन के भी कई टुकड़े इस दौर के बाद होने लगे। लेकिन एक दौर में भूपिंदर मान का संगठन कितना मज़बूत रहा होगा इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आज पंजाब के जो 31 किसान संगठन इस आंदोलन को चला रहे हैं, उनमें से ज्यादातर संगठन उन्हीं के मूल संगठन से टूट कर पैदा हुए हैं।

‘सांसद बनकर जनाधार गंवाया’

किसान नेता मेजर सिंह बताते हैं, ‘राज्यसभा जाने के बाद से मान का जनाधार नहीं बचा। वे समय- समय पर राजनीतिक बयान देकर सुर्खियों में तो शामिल होते रहे लेकिन लोगों के बीच उनकी कोई पकड़ नहीं रह गई। इसी आंदोलन में दिल्ली आने से पहले जब पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने सभी किसान नेताओं को चर्चा के लिए बुलाया था तो भूपिंदर मान भी वहां पहुंचे थे। लेकिन वहां भी वे सबसे अलग-थलग ही रहे क्योंकि किसान नेताओं में भी उनका कोई नामलेवा अब नहीं रह गया था।’

ऐसे में सवाल उठता है कि जब भूपिंदर सिंह मान का न कोई जनाधार रह गया है और न किसानों के बीच कोई पकड़ तो फिर बतौर किसान नेता सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें समिति का हिस्सा ही क्यों बनाया? इस सवाल के जवाब में पुरुषोत्तम शर्मा कहते हैं, ‘मैं सुप्रीम कोर्ट पर कोई सवाल नहीं उठा रहा। लेकिन कोर्ट को जिसने भी ये नाम सुझाए उसने सभी ऐसे लोगों के नाम दिए हैं, जो पहले से इन कानूनों के पक्ष में रहे हैं। समिति में शामिल दो अर्थशास्त्री हैं और दो किसान नेता। ये दोनों किसान नेता एक ही विचारधारा के हैं जो खेती-किसानी को कॉर्पोरेट के हवाले करने की वकालत करते हैं। भूपिंदर मान भी पहले से इसी विचारधारा के समर्थक रहे हैं और समिति में शामिल दूसरे किसान नेता अनिल घनवट भी। बल्कि अनिल उसी संगठन का हिस्सा हैं, जो कभी भूपिंदर सिंह के साथी रहे शरद जोशी ने स्थापित किया था।’

‘मान ने पहले कृषि कानूनों का समर्थन किया था’

पुरुषोत्तम शर्मा आगे कहते हैं, ‘मान इन कानूनों का समर्थन भी कर चुके हैं और यह समर्थन पूरी तरह से राजनीतिक था। उन्होंने बाकायदा कृषि मंत्री को चिट्ठी लिखकर कानूनों का समर्थन किया था जिससे साफ था कि वे सरकार की मदद करने के लिए ऐसा कर रहे हैं।’ तो फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि वे किसानों के पक्ष में खड़े हो गए समिति से खुद को अलग कर लिया? किसान नेता मेजर सिंह यह सवाल पूछने पर कहते हैं, ‘पंजाब और हरियाणा में लगातार मजबूत होता आंदोलन इसका सबसे बड़ा कारण है। वहां कोई नेता खुलकर इन कानूनों का पक्ष लेने की स्थिति में अब नहीं रह गया है। हरियाणा के मुख्यमंत्री का हेलिकॉप्टर तक जब इस आंदोलन के चलते नहीं उतर सका तो सोचिए कोई आम इंसान क्या इन कानूनों का समर्थन अब हरियाणा-पंजाब में कर सकेगा?

पुरुषोत्तम शर्मा भी बढ़ते जन दबाव को ही इसका मुख्य कारण मानते हुए कहते हैं, ‘पंजाब-हरियाणा में भाजपा वालों के घरों को लगातार घेरा जा रहा है। कानून का समर्थन करने वालों को जनता का गुस्सा झेलना पड़ रहा है। जो लोग सरकार में शामिल हैं और जिनके पास पूरा सरकारी महकमा अपनी सुरक्षा के लिए तैयार है वो भी अब जनता का गुस्सा देखते हुए कानूनों का समर्थन करने से घबरा रहे हैं तो फिर जनता के बीच में रह कर कोई व्यक्ति कैसे यह रिस्क ले सकता है।’

भूपिंदर मान के समिति से अलग होने के पीछे पंजाब की आम जनता और किसानों के आक्रोश की जो बात मेजर सिंह और पुरुषोत्तम शर्मा कह रहे हैं, उसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि भारतीय किसान यूनियन (मान) से जुड़े किसानों ने अब भूपिंदर मान को उन्हीं के संगठन से बेदख़ल कर दिया है। वह संगठन जिसके कभी वे मुखिया हुआ करते थे और जिस संगठन का नाम ही कभी उनके नाम पर पड़ा था- भारतीय किसान यूनियन (मान).

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