जयंती: जुल्म से जुल्म तक सिमटी है बंदा बैरागी की गाथा

बन्दा सिंह बहादुर
मातृभूमि के वीर सपूत
बन्दा सिंह बहादुर बैरागी एक सिख सेनानायक थे। उन्हें बन्दा बहादुर, लक्ष्मन देव और माधो दास भी कहते हैं। वे पहले ऐसे सिख हुए,जिन्होंने मुग़लों के अजेय होने का भ्रम तोड़ा; छोटे साहबज़ादों के बलिदान का बदला लिया और गुरु गोबिन्द सिंह के संकल्पित प्रभुसत्तासम्पन्न लोक राज्य की राजधानी लोहगढ़ में ख़ालसा राज की नींव रखी। यही नहीं,उन्होंने गुरु नानक देव और गुरू गोबिन्द सिंह के नाम से सिक्का और मोहरे जारी करके,निम्न वर्ग के लोगों की उच्च पद दिलाया और हल वाहक किसान-मज़दूरों को ज़मीन का मालिक बनाया।

सरदार बन्दा सिंह बहादुर बैरागी

जन्म
27 अक्टूबर 1670
राजौरी, जम्मू
मृत्यु
जून 9, 1716 (उम्र 45)
दिल्ली, मुग़ल साम्राज्य
माधो दास (पूर्व नाम )
सक्रिय वर्ष
1708 -1716
प्रसिद्धि कारण
मुग़लों से लोहा लेने के लिये प्रसिद्ध हैं

ज़मींदारी प्रथा समाप्त करने, सरहिन्द के नवाब वज़ीर ख़ान को मारा, पंजाब और भारतीय उपमहाद्वीप के अन्य इलाक़ों में स्वराज और ख़ालसा राज की स्थापना की।
उत्तराधिकारी:छज्जा सिंह ढिल्लों
बच्चे:1 ( अजय सिंह )
मोहाली में बंदा सिंह बैरागी का स्मारक
बाबा बन्दा सिंह बहादुर का जन्म कश्मीर स्थित पुंछ जिले के तहसील राजौरी क्षेत्र में विक्रम संवत् 1727, कार्तिक शुक्ल 13 (1670 ई.) को हुआ था। उनका वास्तविक नाम लक्ष्मणदेव था। लक्ष्मण देव के भाग्य में विद्या नहीं थी, लेकिन छोटी सी उम्र में पहाड़ी जवानों की भांति कुश्ती और शिकार आदि का बहुत शौक़ था। वह अभी 15 वर्ष की उम्र के ही थे कि ऎेक गर्भवती हिरणी के उनके हाथों हुए शिकार ने उने अत्यंत शोक में ङाल दिया। इस घटना का उनके मन में गहरा प्रभाव पड़ा। वह अपना घर-बार छोड़कर बैरागी बन गये। वह जानकी दास नाम के एक बैरागी के शिष्य हो गए और उनका नाम ‘माधोदास बैरागी’ पड़ा। तदन्तर उन्होंने एक अन्य बाबा रामदास बैरागी का शिष्यत्व ग्रहण किया और कुछ समय तक पंचवटी (नासिक) में रहे। वहाँ एक औघड़नाथ से योग की शिक्षा प्राप्त कर वह पूर्व की ओर दक्षिण के नान्देड क्षेत्र को चले गए जहाँ गोदावरी के तट पर उन्होंने एक आश्रम की स्थापना की।

गुरु गोबिन्द सिंह से प्रेरणा


3 सितम्बर 1708 ई. को नान्देड में सिक्खों के दसवें गुरु गुरु गोबिन्द सिंह ने इस आश्रम में और उन्हें सिक्ख बनाकर नाम बन्दा सिंह बहादुर रख दिया। पंजाब और शेष अन्य राज्यों के हिन्दुओं के प्रति दारुण यातना झेल रहे तथा गुरु गोबिन्द सिंह के सात और नौ वर्ष के बच्चों की सरहिंद के नवाब वज़ीर ख़ान द्वारा निर्मम हत्या का प्रतिशोध लेने को रवाना किया। गुरु गोबिन्द सिंह के आदेश से ही वे पंजाब आये और सिक्खों के सहयोग से मुग़लों को पराजित करने में सफल हुए। मई,1710 में उन्होंने सरहिंद को जीत लिया और सतलुज नदी के दक्षिण में सिक्ख राज्य की स्थापना की। उन्होंने ख़ालसा नाम से शासन भी किया और गुरुओं के नाम के सिक्के चलवाये।

राज्य-स्थापना हेतु आत्मबलिदान

बन्दा सिंह ने अपने राज्य के एक बड़े भाग पर फिर से अधिकार कर लिया और इसे उत्तर-पूर्व तथा पहाड़ी क्षेत्रों की ओर लाहौर और अमृतसर की सीमा तक विस्तृत किया। 1715 ई. के प्रारम्भ में बादशाह फ़र्रुख़सियर की शाही फ़ौज ने अब्दुल समद ख़ाँ के नेतृत्व में उन्हें गुरुदासपुर ज़िले के धारीवाल क्षेत्र के निकट गुरुदास नंगल गाँव में कई मास तक घेरे रखा। खाद्य सामग्री के अभाव के कारण उन्होंने 7 दिसम्बर को आत्मसमर्पण कर दिया। फ़रवरी 1716 को 794 सिक्खों के साथ वह दिल्ली लाये गए जहाँ 5 मार्च से 12 मार्च तक सात दिनों में 100 की संख्या में सिक्खों की बलि दी जाती रही । 16 जून को बादशाह फ़र्रुख़शियर के आदेश से बन्दा सिंह तथा उनके मुख्य सैन्य-अधिकारियों के शरीर काटकर टुकड़े-टुकड़े कर दिये गये।

सुशासन

मरने से पूर्व बन्दा सिंह बहादुर जी ने अति प्राचीन ज़मींदारी प्रथा का अन्त कर दिया था तथा कृषकों को बड़े-बड़े जागीरदारों और ज़मींदारों की दासता से मुक्त कर दिया था। वह साम्प्रदायिकता की संकीर्ण भावनाओं से परे थे। मुसलमानों को राज्य में पूर्ण धार्मिक स्वातन्त्र्य दिया गया था। पाँच हज़ार मुसलमान भी उनकी सेना में थे। बन्दा सिंह ने पूरे राज्य में यह घोषणा कर दी थी कि वह किसी प्रकार भी मुसलमानों को क्षति नहीं पहुँचायेगे और वे सिक्ख सेना में अपनी नमाज़ पढ़ने और खुतवा करवाने में स्वतन्त्र होंगे।

जुल्म और यातनाओं में कटे ‘बाबा बंदा सिंह बहादुर’ के आखिरी दिन!

बाबा बंदा सिंह बहादुर का संपूर्ण जीवन यह बताता है कि वह महान शूरवीर, दिलेर और साहसी योद्धा थे, जिनकी ताकत के आगे पंजाब और पहाड़ी इलाकों के मुस्लिम शासक कच्ची दीवार की तरह से गिरते और मिट्टी में मिलते चले गए.

उन्होंने कुछ ही वर्षों में पंजाब के प्रमुख नगरों को जीतकर गुरु नानक देव जी और गुरु गोबिंद सिंह जी के नाम का सिक्का भी जारी किया.

उन्होंने उन सभी लोगों को सबक सिखाया जो गुरु तेग बहादुर जी की शहीदी और गुरु गोबिंद सिंह जी के मासूम बच्चों का कत्ल करने में शामिल थे.

आखिर दिनों में बंदा सिंह बहादुर को मुगलों ने खूब प्रताड़ित किया और उन्हें मुस्लिम बनाने के लिए जोर आजमाइश भी की गई, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और देश की खातिर अपना बलिदान दे दिया.


ऐसे में जुल्म और यातनाओं में कटे बंदा सिंह बहादुर के आखिरी दिनों पर नजर डालना आवश्यक हो जाता है –

8 महीने मुगलों ने डाले रखा घेरा

दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमिटी की ‘बाबा बंदा सिंह बहादुर के अंतिम दिन और दो सिख शहीद बच्चे’ पुस्तक में प्रोफेसर हरबंस सिंह लिखते हैं कि बाबा बंदा सिंह बहादुर और उनके साथियों की अंतिम दिनों की कहानी बेहद दर्दनाक है.

मार्च, 1715 में बंदा सिंह बहादुर अपने सिपाहियों के साथ गुरदास नंगल की गढ़ी में घिर गए. मुगलों ने गढ़ी में जाने वाले सभी रास्तों की नाकाबंदी कर दी गई. किले तक पहुंचने वाले भोजन और पीने के पानी पर पूरी तरह से रोक लगा दी गई.

मुगल सेना के लगभग 30 हजार सिपाहियों ने किले को चारों तरफ से घेर लिया, लेकिन इसके बावजूद उन्हें यह डर रह-रहकर सता रहा था कि कहीं बंदा सिंह बहादुर इस घेरे को तोड़कर निकल न जाए.

कई महीनों तक बंदा सिंह बहादुर और उसके साथी अपना पेट भरने के लिए गढ़ी में पैदा हुई घास और पेड़ों के पत्ते खाते रहे. इसके बाद पशुओं की हड्डियों को पीसकर आटे के स्थान पर प्रयोग किया गया.

सब कुछ खत्म होने के बाद नौबत यहां तक आ गई कि सभी योद्धाओं को अपनी जांघों का मांस काटकर और भूनकर खाना पड़ा.

इन सारी मुसीबतों और परेशानियों के होते हुए भी बंदा बहादुर के वफादार सिपाहियों ने 8 महीनों तक मुगल फौजों का डटकर मुकाबला किया.

भूखे भेड़ियों की तरह टूट पड़े मुगल

जब बचने का कोई रास्ता नहीं बचा तो शरीरिक रूप से कमजोर हो चुके इन योद्धाओं ने गढ़ी के दरवाजे खोल दिए.

शाही फौज भूखे भेड़ियों की तरह बीमार और भूख के शिकार सिखों पर टूट पड़ी और लगभग 300 सिखों का नंगी तलवारों से कत्ल कर दिया गया.

17 दिसंबर, 1715 को बंदा सिंह बहादुर समेत 740 सिखों को लोहे की जंजीरों में जकड़कर कैद कर लिया गया.

कत्ल किए गए योद्धाओं के सिरों को काटकर और पेट को चीरकर उनमें भूसा भर दिया गया. उनके सिरों को नेजों पर टांग दिया गया.

कैद किए गए सिखों को दिल्ली ले जाया जाना था, इससे पहले इन्हें जंजीरों में जकड़कर बेहद घटिया वस्त्र पहनाए गए और जानवरों की पीठ पर बांधकर लाहौर के बाजारों में उनकी नुमाइश की गई.

इसके बाद इन कैद किए गए योद्धाओं को दिल्ली भेजने का प्रबंध किया गया. लाहौर के सूबेदार ने स्वयं इन कैदियों को दिल्ली जाकर मुगल शासक को सौंपने की आज्ञा मांगी.

बंदा सिंह को पिंजरे में बंद कर दिल्ली लाया गया

श्री गुरु तेग बहादुर खालसा कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हरबंस सिंह दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमिटी के प्रकाशन में छपी पुस्तक में लिखते हैं कि इन सिखों को जुलूस निकालते हुए दिल्ली में लाया गया था. सबसे आगे सिखों के सिर भूसे से भरकर नेजों और बांसों पर टंगे हुए थे.

बंदा सिंह बहादुर को जंजीरों में जकड़कर पिंजरे में बंद करके हाथी पर लाद दिया गया था. उनका मजाक बनाने के लिए उन्हें सुनहरी पगड़ी और जरी से सजी फूलों वाली पोशाक पहनाई गई.

बंदा सिंह बहादुर के पीछे उनके अन्य साथियों को दो-दो की गिनती में एक साथ जंजीरों में जकड़कर ऊंटों के ऊपर लादा हुआ था. कई सिखों को भेड़ों के चमड़े के कपड़े पहनाए गए थे.

मौत इन योद्धाओं के सिर पर नाच रही थी, बावजूद इसके उनके चेहरे पर इसकी सिकन तक न थी. वह आनंद मगन होकर वाहेगुरु की वाणी गाते चले जा रहे थे.

… और जारी कर दिया मौत का फरमान
बंदा सिंह बहादुर, भाई बाज सिंह, भाई फतेह सिंह, भाई ताज सिंह और अन्य 23 साथियों को त्रिपोलिया जेल में कैद करने के लिए मीर आतिश इब्राहिम-ओ-दीन-खां के सुपुर्द कर दिया गया.

शेष सिखों को कत्ल करने के लिए दिल्ली के कोतवाल सरबराह खां के हवाले कर दिया गया.

इन कैदियों को कत्ल करने का काम 5 मार्च 1716 को शुरू हुआ. कत्ल करने के लिए कोतवाली के चबूतरे पर लाने से पहले प्रत्येक सिख से पूछा जाता कि अगर वह मुस्लिम बन जाता है, तो उसे छोड़ दिया जाएगा और साथ ही ईनाम भी दिया जाएगा.

लेकिन किसी ने भी अपने धर्म को नहीं छोड़ा और हंसते-हंसते शहीद हो गए.

बंदा सिंह बहादुर के साथी तो कत्ल कर दिए गए लेकिन उनकी मौत को कुछ समय के लिए टाल दिया गया, ताकि उनके गुप्त खजाने का पता लगाया जा सके.

अंत में 9 जून 1716 को इनकी भी मौत का हुक्म जारी कर दिया गया.

कत्ल करने से पहले बंदा सिंह बहादुर के आगे भी दो शर्त रखी गईं ‘मौत या इस्लाम’?

बंदा तो बंदा ठहरे उन्होंने खुशी से मौत वाला रास्ता चुन लिया.

बेटे का कलेजा मुंह में डाल दिया

मौत से पहले बंदा सिंह को सुनहरी कपड़े पहनाकर कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की दरगाह पर लाया गया और दरगाह के चारों ओर घुमाया गया.

इसके बाद बंदा सिंह बहादुर को एक स्थान पर बैठा दिया गया और उनके चार वर्षीय बेटे अजय सिंह को उनकी गोद में रख दिया.

बंदा सिंह से कहा गया कि वह अपने हाथों से अपने बच्चे का कत्ल कर दे.

जब बंदा सिंह ने यह करने से मना कर दिया तो जल्लाद ने स्वयं तेज धार वाली तलवार से अजय सिंह के टुकड़े कर दिए और उसका तड़फता कलेजा निकालकर बंदा सिंह के मुंह में ठूंस दिया.

अपने बच्चे का कत्ल भी उन्हें अपने फैसले से डिगा नहीं पाया और उन्होंने मौत को गले लगाना बेहतर समझा.

इसके बाद जल्लादों ने खंजर मार कर बंदा सिंह की आंख निकाल दी और बायां पैर काट दिया. गर्म चिमटों से उनके शरीर का मांस नौचा गया.

हड्डियों से चिपका मांस कितनी देर टिकता, वह सब खींच लिया गया और जब मांच के नीचे से सफेद हड्डियां दिखाई देने लगीं, तो उनके शरीर के प्रत्येक अंग को काटकर अलग-अलग कर दिया गया.

बंदा सिंह बहादुर ने यह अत्याचार बड़ी दिलेरी से सहा.

इसके बाद उनके शेष बचे साथियों को भी इसी तरह से मार दिया गया.

इस तरह से बाबा बंदा सिंह ने बड़ी बहादुरी के साथ मौत को गले लगाया, लेकिन मुगलों के जुल्म और यातनाएं उन्हें डिगा न सकीं.

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