पुण्य स्मरण: निहत्थे पठानों पर गोलियां चलाने से इंकार कर 11 साल जेल भोगी थी वीर चंद्र सिंह गढ़वाली ने

……………………………………………… चरित्र-निर्माण, समाज-सुधार तथा राष्ट्रवादी जन-चेतना के लिए समर्पित *मातृभूमि सेवा संस्था* (राष्ट्रीय स्तर पर पंजीकृत) आज देश के ज्ञात व अज्ञात राष्ट्रभक्तों को उनके अवतरण, स्वर्गारोहण व बलिदान दिवस पर कोटि कोटि नमन करती है। 🙏🙏🌹🌹🌹🌹
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*🔥वीर हवलदार मेजर चन्द्र सिंह गढवाली🔥*

✍️ सौहार्दपूर्ण साम्प्रदायिक ताना-बाना हमेशा से ही भारतीय समाज का एक विशेष आकर्षण रहा है। इतिहास साक्षी है कि मुस्लिम हाकिम खां सूरी ने रक्तरंजित हल्दीघाटी में महाराणा प्रताप के सेनापति के रूप में अपनें प्राणों की आहुति दी।इसी परंपरा में एक और नया अलंकरण कडिबद्ध हुआ 23 अप्रैल 1930 को *जब वीर हवलदार मेजर चन्द्र सिंह गढवाली के नेतृत्व में रॉयल गढवाल राइफल्स के जवानों ने भारत की आजादी के लिये लड़ने वाले निहत्थे पठानों पर गोली चलाने से मना कर दिया था।* बिना गोली चले, बिना बम फटे पेशावर में इतना बड़ा धमाका हो गया कि एकाएक अंग्रेज भी हक्के-बक्के रह गये, उन्हें अपने पैरों तले जमीन खिसकती हुई सी महसूस होने लगी। चन्द्र सिंह गढ़वाली का जन्म 25 दिसम्बर 1891 में हुआ था। चन्द्रसिंह के पूर्वज चौहान वंश के थे जो मुरादाबाद में रहते थे पर काफी समय पहले ही वह गढ़वाल की राजधानी चांदपुरगढ़ में आकर बस गये थे और यहाँ के थोकदारों की सेवा करने लगे थे। चन्द्र सिंह के पिता का नाम जलौथ सिंह भंडारी था। और वह एक अनपढ़ किसान थे। इसी कारण चन्द्र सिंह को भी वो शिक्षित नहीं कर सके पर चन्द्र सिंह ने अपनी मेहनत से ही पढ़ना लिखना सीख लिया था।🙏🙏🌹🌹

🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳 03 सितम्बर 1914 को चन्द्र सिंह सेना में भर्ती होने के लिये लैंसडौन पहुंचे और सेना में भर्ती हो गये। यह प्रथम विश्वयुद्ध का समय था। 1 अगस्त 1915 में चन्द्रसिंह को अन्य गढ़वाली सैनिकों के साथ अंग्रेजों द्वारा फ्रांस भेज दिया गया। जहाँ से वे 1 फ़रवरी 1916 को वापस लैंसडौन आ गये। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ही सन् 1917 में चन्द्रसिंह ने अंग्रेजों की ओर से मेसोपोटामिया के युद्ध में भाग लिया। जिसमें अंग्रेजों की जीत हुई थी। सन् 1918 में बगदाद की लड़ाई में भी हिस्सा लिया। प्रथम विश्व युद्ध समाप्त हो जाने के बाद अंग्रेजो द्वारा कई सैनिकों को निकालना शुरू कर दिया और जिन्हें युद्ध के समय तरक्की दी गयी थी उनके पदों को भी कम कर दिया गया। इसमें चन्द्रसिंह भी थे। इन्हें भी हवलदार से सैनिक बना दिया गया था। जिस कारण इन्होंने सेना को छोड़ने का मन बना लिया। पर उच्च अधिकारियों द्वारा इन्हें समझाया गया कि इनकी तरक्की का खयाल रखा जायेगा और इन्हें कुछ समय का अवकास भी दे दिया। इसी दौरान चन्द्रसिंह महात्मा गांधी के सम्पर्क में आये।कुछ समय पश्चात इन्हें इनकी बटैलियन समेत सन् 1920 में बजीरिस्तान भेजा गया। जिसके बाद इनकी पुनः तरक्की हो गयी। वहाँ से वापस आने के बाद इनका ज्यादा समय आर्य समाज के कार्यकर्ताओं के साथ बीता। और इनके अंदर स्वदेश प्रेम का जज़्बा पैदा हो गया। पर अंग्रेजों को यह रास नहीं आया और उन्होंने इन्हें खैबर दर्रे के पास भेज दिया। इस समय तक चन्द्रसिंह मेजर हवलदार के पद को पा चुके थे।

🌹🌹🇮🇳🇮🇳 *उस समय पेशावर में स्वतंत्रता संग्राम की लौ पूरे जोरशोर के साथ जली हुई थी। और अंग्रेज इसे कुचलने की पूरी कोशिश कर रहे थे। इसी काम के लिये 23 अप्रैल 1930 को इन्हें पेशावर भेज दिया गया। और हुक्म दिये की आंदोलनरत जनता पर हमला कर दें। पर इन्होंने निहत्थी जनता पर गोली चलाने से साफ मना कर दिया। इसी ने पेशावर कांड में गढ़वाली बटेलियन को एक ऊँचा दर्जा दिलाया और इसी के बाद से चन्द्र सिंह को चन्द्रसिंह गढ़वाली का नाम मिला और इनको पेशावर कांड का नायक माना जाने लगा।* अंग्रेजों की आज्ञा न मानने के कारण इन सैनिकों पर मुकदमा चला। गढ़वाली सैनिकों की पैरवी मुकुन्दी लाल द्वारा की गयी जिन्होंने अथक प्रयासों के बाद इनके मृत्युदंड की सजा को कैद की सजा में बदल दिया। इस दौरान चन्द्रसिंह गढ़वाली की सारी सम्पत्ति ज़ब्त कर ली गई और इनकी वर्दी को इनके शरीर से काट-काट कर अलग कर दिया गया।

🇮🇳🇮🇳 *सन् 1930 में चन्द्रसिंह गढ़वाली को 14 साल के कारावास के लिये ऐबटाबाद की जेल में भेज दिया गया। जिसके बाद इन्हें अलग-अलग जेलों में स्थानान्तरित किया जाता रहा। पर इनकी सज़ा कम हो गई और 11 साल के कारावास के बाद इन्हें 26 सितम्बर 1941 को आजाद कर दिया।* परन्तु इनके में प्रवेश प्रतिबंधित रहा। जिस कारण इन्हें यहाँ-वहाँ भटकते रहना पड़ा और अन्त में ये वर्धा गांधी जी के पास चले गये। गांधी जी इनके बेहद प्रभावित रहे। 8 अगस्त 1942 के भारत छोड़ों आंदोलन में इन्होंने इलाहाबाद में रहकर इस आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निभाई और फिर से 3 तीन साल के लिये गिरफ्तार हुए। 1945 में इन्हें आजाद कर दिया गया। 01 अक्टूबर 1979 को चन्द्रसिंह गढ़वाली का लम्बी बिमारी के बाद देहान्त हो गया। 1994 में भारत सरकार द्वारा उनके सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया गया। तथा कई सड़कों के नाम भी इनके नाम पर रखे गये। *मातृभूमि सेवा संस्था आज ऐसे वीर को उनकी 41वीं पुण्यतिथि पर शत शत नमन करती है।*🌹🌹🌹🌹🙏🙏🌹🌹🌹🌹

✍️ *प्रशांत टेहल्यानी*
🇮🇳 *मातृभूमि सेवा संस्था 9891960477* 🇮🇳

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