हमारी पीढ़ी के स्कूली दिन नहीं थे आसान

हमारी पीढ़ी के स्कूली दिन इतने खराब कटे।

रावत जी आपने तो एक एक शब्द बिलकुल सही लिखा है। मुझे 1962 से 1967 के बीच का समय याद है । तब खाद्यान्न की बड़ी किल्लत थी। वैसे तो 1942, 43 में आकाल पड़ा था जिसमे बंगगल मे तो लाखों लोग भूख से मर गये थे। मैने डाक्टर अमर्त्य सेन की पुस्तक और डाक्टर शशिथरूर के lectures से इस Bengal famine के बारे मे पढ़ा और जाना। हमारे पहाड़ी इलाकों मे भी कमोवेश ऐसी ही हालत थी। और ये स्थिति 1968 , 70 के बाद ही तब ही सुधर पाई जब green and white revolution शुरू हुआ। पहाड़ों में एक तो गरीबी और ऊपर से खाद्यान्न की कमी, मिट्टी तेल की कमी, चीनी की कमी‌ । उस समय जीवन बहुत कठिनाई भरा था।

मेरे कयी स्कूली साथी कयी बार दिन में केवल एक बार का भोजन पाते थे। उन बच्चों को स्कूल की प्रार्थना सभा में चक्कर आ जाया करते थे। और टीचर के पूछने पर वे बताते थे कि कयी दिनों से एक टाइम ही खाना खाया है। इतनी गरीबी सभी पहाड़ी घरों में थी तब। हम सभी बच्चे मोटा झोटा खाकर भी मस्त रहा करते थे– छंछेड़ा- बाड़ी, झंगोरा खाकर बिलकुल टनाटन मस्त। उस दौरान बाजार में गेहूं चावल चीनी कम मिलता था इसलिए जो भी सस्ता अनाज मिल रहा होता था उसे ही खरीदकर खाया जाता था। गांवों से लोग अपने खेती की अच्छा अनाज गेहूं चावल, चौलाई, सरसों लाकर बाजार में आते और उनके बदले में दो गुना या तीन गुना मात्रा मे मिलने वाला मोटा अनाज कोदा झंगोरा exchsnge करके घर ले जाते। Barter system । लक्ष्य ये होता था कि हर दिन के भोजन की व्यलस्था हो ही जाय। हर दिन कुछ न कुछ खाने को मिल ही जाय। भूखा न रहना पड़े।

1965 मे पाकिस्तान की लड़ाई के समय चीनी, राशन और मिट्टी के तेल की बहुत ज्यादा किल्लत हो गयी थी। प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री ने सारे देश से आवाह्न किया था कि सप्ताह मे एक दिन का भोजन त्याग दें। बिजली नहीं थी तब। सरसों के तेल के दीपक या मिट्टी के तेल की ढिबरी मे पढ़ते थे या फिर दारू के पव्वे के ढक्कन पर छेद करके उसमें बत्ती डालकर दीपक बनाकर (इस दीपक को लैम्पू कहते थे) और उसकी रोशनी में पढते थे। कभी कभी इनमें से कुछ भी नहीं रहता था घर में तब रसोई में चूल्हे की रोशनी में पढ़ते थे मां के पास बैठकर होम वर्क करते थे, पढते थे।

गांव जाकर खेती का काम भी किया । मां ने गाय पाली थी तो उसके लिए मां घास का गठ्ठर बना लेती थी और उन गठ्ठरों को लेने जाते थे। लकडी के गठ्ठर भी इसी तरह लाते थे। धारे से 5 या 6 बंठे पानी भरकर लाने की duty थी हम बच्चों की। पानी का धारा भी दूर था। पर अपनी duty तो हर दिन करनी थी। आज हमारे बच्चे इन सत्य बातों को अजीब कहानियां मानते हैं। पर हमारी पीढ़ी के लोगों ने सबसे खराब समय झेला है और सबसे ज्यादा प्रताड़ित भी रहे हैं। पहले माता-पिता और टीचर डांटते थे। अब बच्चों की डांट खाते हैं। सारी जिन्दगी डांट खाने में ही गुजर गयी।
पर इन सबके बाबजूद भी हमारी पीढ़ी के लोगों ने अच्छा शांतिपूर्ण और प्रेम पूर्ण जीवन जिया। सभी ने सुदूर ग्रामीणक्षेत्रों में गांव की स्कूलों मे पढ़ाई भी की। खूब मेहनत की। कक्षा 5 तक हमें अपनी पाटी, बोल्ख्या और बैठने के लिए चीनी की बोरी (जो बरसात मे छाते का काम भी करती थी) अपने कंघों पर टांग कर लेजानी पड़ती थी। स्कूलों में बैठने के लिए टाठ पट्टी की व्यवस्था नहीं होती थी। इस तरह मेहनत से पढ़कर सभी जने अपने अपने पांवों पर खड़े भी हुए।

कालिका प्रसाद काला ऐडवोकेट ।

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