ज्ञान: भगवद्गीता प्रबंध शास्त्र का भी ग्रंथ क्यों माना जाता है?

किसी भी प्रकार के प्रबंधन या मैनेजमेंट में किसी समस्या का समाधान, किसी चुनौती का सामना कैसे किया जाता है? इसका जो सबसे सरल उपाय अपनाया जाता है, उसमें सबसे पहले प्रॉब्लम स्टेटमेंट रखा जाता है। मोटे तौर पर कह सकते हैं कि समस्या है क्या, उसे परिभाषित करने का प्रयास किया जाता है। उदाहरण के तौर पर आप एक अक्सर सामने आने वाला प्रश्न देख सकते हैं, जिसमें धूप में बाल पकाकर आ गया कोई पूछता (या पूछती) है, “फिर उनमें और हममें अंतर क्या रह जायेगा?” जब भगवद्गीता देखेंगे तो आप पाएंगे कि करीब-करीब यही अर्जुन की समस्या भी है। पहले ही अध्याय (अर्जुनविषाद योग) में वो पूछते हैं –

कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन।।1.39

परन्तु जनार्दन, कुलक्षय से होने वाले दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से विरत होने के लिए क्यों नहीं सोचना चाहिये।

वो लोग तो समझदार नहीं हैं, लेकिन हम तो समझदार हैं। ऐसा करने के फायदे-नुकसान का उन्हें पता नहीं लेकिन हमें जब नुकसान पता है तो हमें क्यों नहीं समझदारी दिखाते हुए इस पाप से दूर रहना चाहिए? ये जो सवाल कुछ शारीरिक रूप से वयस्क हो चुके किन्तु मानसिक सामर्थ्य की तुलना में अपरिपक्व लोग करते दिखते हैं, लगभग वही बात तो अर्जुन भी करते दिख रहे हैं! इसी लिए दूसरे अध्याय के आरंभ में ही भगवान कहते हैं कि शब्दावली तो तुमने पंडितों वाली चुनी है, लेकिन बातें मूर्खतापूर्ण कर रहे हो!

वापस अब प्रबंधन के सिद्धांत की और चलें तो हम ये पाते हैं कि पहले अध्याय में अर्जुन अपनी समस्या को विस्तार से बताता है। अलग-अलग कई तर्कों और भविष्य की संभावनाओं पर चर्चा करते हुए वो समस्या को परिभाषित कर रहा है। इसे ही “प्रॉब्लम स्टेटमेंट” कहा जाता है। सिर्फ एक वाक्य में समस्या परिभाषित हो जाये, ऐसा अक्सर सरल नहीं होता। विस्तार से उसपर चर्चा के बाद ही समस्या को सही-सही परिभाषित किया जा सकता है, जिससे कोई समस्या के किसी भाग की अनदेखी न हो। इसलिए पहला अध्याय पूरे 47 श्लोकों का है।

प्रॉब्लम स्टेटमेंट में समस्या को परिभाषित कर लेने के बाद बारी आती है विकल्पों पर चर्चा की। इस भाग में ये बात की जाती है कि संभावित विकल्प क्या हो सकते हैं? उपलब्ध संसाधनों से जो कुछ भी किया जा सकता हो, उन सभी की एक बार चर्चा होगी। इसलिए ये भाग लम्बा सा हो जाता है और यही भगवद्गीता में भी दिखेगा जहाँ दूसरा अध्याय सबसे लम्बे अध्यायों में से एक है। यहाँ 72 श्लोकों में उन सभी विकल्पों पर बात होती है जिनपर आगे चर्चा होने वाली है। प्रबंधन में एक बार सभी विकल्पों को लिख लेने के बाद एक-एक करके सभी पर चर्चा की जाती है जिससे पता चले कि किस विकल्प के प्रयोग में क्या हानि-लाभ होने की संभावना है।

आगे के अध्यायों में हम लोग पाते हैं कि एक-एक करके भक्तियोग, कर्मयोग, सन्यास आदि की चर्चा होती है। फिर से प्रबंधन में अंत में एक समरी या सारांश प्रस्तुत होता है। पूरी भगवद्गीता में 700 श्लोक हैं तो उसका सारांश (समरी) लगभग इतने का 10 प्रतिशत तो होगा ही। इसलिए अंतिम अध्याय भी दूसरे अध्याय जैसा ही बड़ा सा, 78 श्लोकों का होता है। लम्बे समय तक, कई-कई सदियाँ बीत जाने पर भी प्रबंधन और संवाद के मूल नियमों पर आधारित होने के कारण भगवद्गीता की प्रासंगिकता बनी रह जाती है। योग की एक विशेष शैली पर ध्यान देते हुए, जैसे भक्तियोग के लिए केवल बारहवां अध्याय, भी कुछ लोग भगवद्गीता का अध्ययन करते हैं।

ऐसे ही अन्य उपायों से भी विशेष भागों में बांटकर भगवद्गीता का अध्ययन किया जा सकता है। जहाँ तक इस प्रॉब्लम स्टेटमेंट वाली शैली की बात है, इसे आप आदिशंकराचार्य के अद्वैतमत पर आधारित भाष्य या फिर विशिष्टाद्वैत मत के श्री रामानुजाचार्य के भाष्य में भी देख सकते हैं। आदिशंकराचार्य का भाष्य भगवद्गीता के पहले श्लोक से नहीं बल्कि (प्रॉब्लम स्टेटमेंट को छोड़कर) सीधे दूसरे अध्याय के दसवें श्लोक से आरंभ होता है। ऐसे ही श्री रामानुजाचार्य अपने भाष्य में पहले से उन्नीसवें श्लोक पर एक टिप्पणी, बीसवें से पच्चीसवें पर एक टिप्पणी, फिर छब्बीसवें से सैंतालिसवें श्लोक पर तीसरी टिप्पणी में पहला अध्याय समाप्त कर देते हैं।

बाकी आपको कैसे अध्ययन करना है, वो आपको स्वयं पढ़कर तय करना होगा क्योंकि जो हमने बताया है वो नर्सरी स्तर का है और पीएचडी के लिए आपको स्वयं पढ़ना होगा, ये तो याद ही होगा!
✍🏻आनन्द कुमार

 

 

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