शिंजो आबे ने जापान के लिए जो किया,वो सबको याद रहेगा हमेशा
जापान के पीएम शिंज़ो आबे के ‘अचानक’ जाने से जो बदलने वाला है
डॉक्टर जॉन निल्सन राइट
वरिष्ठ शोधकर्त्ता, कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी
जापान के प्रधानमंत्री शिंज़ो आबे ने शुक्रवार को स्वास्थ्य कारणों से इस्तीफ़ा दे दिया
संशोधनवादी, राष्ट्रवादी या व्यावहारिक यथार्थवादी? शिंज़ो आबे और उनकी विरासत को कैसे परिभाषित किया जाये, इसे लेकर जापान और अंतरराष्ट्रीय स्तर के टिप्पणीकारों की राय विभाजित है.
शिंज़ो आबे ने शुक्रवार को स्वास्थ्य कारणों से जापान के प्रधानमंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया, जिसके बाद इस विषय पर और चर्चा हो रही है. आबे युद्ध के बाद जापान के सबसे लंबे समय तक प्रधानमंत्री रहे.
अपने आलोचकों के लिए, आबे ने एक पुरानी और रूढ़िवादी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व किया जिनकी विदेश नीति अत्याधिक मुखर रही.
वहीं अपने समर्थकों के लिए, आबे ने देश की वैश्विक स्थिति को काफ़ी सुधारा है, उन्हें लगता है कि आबे की बदौलत जापान दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन पाया क्योंकि वे देश के राष्ट्रीय हितों को महसूस कर पाते थे.
असल में, शिंज़ो आबे की ये दोनों छवियाँ सटीक हैं.
एक रूढ़िवादी राजनीतिज्ञ के रूप में देश और विदेश, दोनों जगह जापान के गौरव को बहाल करने के इरादे से, शिंज़ो आबे ने अपने आठ वर्षों के दौरान देश की राष्ट्रीय पहचान और ऐतिहासिक परंपराओं को आगे बढ़ाने के लिए लगातार काम किया.
आबे ने जापान के नागरिक जीवन में सम्राट की स्थिति की पुष्टि की, हाई-स्कूल की पाठ्य-पुस्तकों से अत्याधिक आत्म-आलोचनात्मक ऐतिहासिक आख्यानों को दूर किया और युद्ध के बाद के संविधान को संशोधित करने की असफल कोशिश की.
यह राष्ट्रवादी एजेंडा मुख्य रूप से जापान पर केंद्रित रहा.
इसके विपरीत, विदेशी मामलों में (चाहे सुरक्षा या आर्थिक नीति में), आबे काफ़ी व्यावहारिक व्यक्ति रहे.
उन्होंने मौजूदा गठबंधनों (सबसे विशेष रूप से अमरीका के साथ) को मज़बूत किया और क्षेत्रीय-वैश्विक ताक़तों के साथ नई साझेदारियाँ कीं. इस दौर में जापान ने अपने वैचारिक झुकाव को दूर रखते हुए, लोकतांत्रिक और सत्तावादी, दोनों तरह के देशों के साथ अपने रिश्ते आगे बढ़ाए.
वैसे प्रधानमंत्री के रूप में आबे की उपलब्धियाँ सौभाग्य, चतुर चुनावी गणना और समय के संयोजन का परिणाम हैं.
साल 2012 से अब तक, शिंज़ो आबे ने छह चुनावों में जीत हासिल की. इनमें तीन निचले और तीन ऊपरी सदन के चुनाव शामिल हैं. लेकिन उनकी जीत की एक बड़ी वजह जापान के कमज़ोर विपक्ष को माना जाता है.
आबे ने क्रमिक और वृद्धिशील सुधारों के माध्यम से सफलता प्राप्त की.
सुरक्षा नीति के मामले में, आबे के क्रमिकतावादी नज़रिये के परिणाम कई प्रमुख क्षेत्रों में देखे जा सकते हैं.
उनमें 2013 में जापान की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद की स्थापना शामिल है. 2014 में एक नए गोपनीयता क़ानून का पारित होना और जापान के आत्मरक्षा बलों को सामूहिक सुरक्षा अभियानों में भाग लेने की अनुमति देने वाले प्रावधान शामिल हैं.
आबे के दौर में जापान के रक्षा ख़र्च में क़रीब 13 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि हुई, उन्होंने अधिक लचीले रक्षा सिद्धांतों को विकसित किया और सेना के लिए नये मूल्यवान सैन्य-हार्डवेयर समेत एफ़-35 लड़ाकू विमान और जापान की क्षेत्रीय प्रक्षेपण क्षमताओं को बढ़ाने में सक्षम नए इज़ुमो श्रेणी के हेलिकॉप्टर से लैस विध्वंसक शामिल किये.
इसी महीने, जापान के रक्षा मंत्री तारो कोनो ने जापान के यूके, अमरीका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड और कनाडा के साथ ‘फ़ाइव आइज़ इंटेलिजेंस’ पार्टनरशिप में शामिल होने की बात कही थी जिसके ज़रिए जापान ने यह संकेत दिये कि शिंज़ो आबे की यह ‘शांति नीति’ अब जापान के लिए ‘न्यू नॉर्मल’ बन चुकी है.
ट्रंप के साथ चलना आसान नहीं था
शिंज़ो आबे को डोनाल्ड ट्रंप के साथ घनिष्ठ संबंध बनाये रखने में मिली सफलता के लिए श्रेय दिया जाना चाहिए क्योंकि अमरीका की ‘बदमाशी वाली रणनीति’ से वे कूटनीति के ज़रिये पार पाने में सफल रहे.
हालांकि जापान पर अमरीका के अन्य सहयोगियों की तरह यह दबाव बना रहा कि वो डिफ़ेंस पर ख़र्च बढ़ाये और बतौर मेज़बान देश अमरीकी सेना का समर्थन करे. लेकिन जापान ने कूटनीतिक समझदारी के दम पर अमरीका के साथ किसी तरह का व्यापारिक तनाव नहीं होने दिया और दोनों देशों के बीच गठबंधन की साझेदारी के मूल तत्व मज़बूत रहे.
विदेश नीति के संदर्भ में अगर थोड़ा व्यापक ढंग से समझें, तो आबे एक कूटनीतिक प्रर्वतक रहे हैं और रणनीतिक सोच के मामले में उन्होंने अपनी क्षमता का प्रदर्शन किया है.
आबे के दौर में हुआ यह परिवर्तन भारत और ऑस्ट्रेलिया के साथ नई रणनीतिक साझेदारी की एक नई मेज़बानी के रूप में परिलक्षित होता है. उन्होंने दक्षिण-पूर्वी एशिया के देशों के साथ रक्षा समझौते किये. यूके और फ़्रांस के साथ महत्वकांक्षी द्विपक्षीय विदेशी और रक्षा साझेदारी की. वहीं प्रशांत और भारतीय महासागरों में फैले देशों की एक श्रृंखला के साथ आर्थिक और सुरक्षा नीति का सामंजस्य बनाने के उद्देश्य से एक नई इंडो-पैसिफ़िक सोच को अभिव्यक्त किया.
चीन को कैसे संभाला
आबे ने अपने दौर में ट्रांस-पैसिफ़िक पार्टनरशिप (टीपीपी-11) को मज़बूत करने में निर्णायक भूमिका निभाई.
उन्होंने 2019 में यूरोपीय संघ के साथ एक सफल व्यापारिक समझौता किया और 2018 में चीन के साथ कई वित्तीय और विकास समझौतों पर बातचीत की.
ऐसे में, जबकि शिंज़ो आबे चीन द्वारा उत्पन्न भूस्थैतिक ख़तरों के बारे में पूरी तरह से अवगत रहे, उन्होंने राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ जापान के व्यावहारिक सहयोग के रास्ते बंद नहीं होने दिये.
आबे के प्रगतिवाद ने ही घरेलू आर्थिक प्रबंधन के लिए प्रधानमंत्री के ‘अबेनॉमिक्स’ दृष्टिकोण को भी रेखांकित किया जो राजकोषीय, मौद्रिक और संरचनात्मक नीति में नवपरिवर्तन की अनुमति देता है.
यहाँ, हालांकि, सफलता निश्चित रूप से बहुत कम रही और उसका प्रस्तुतिकरण ज़्यादा किया गया.
इस साल की दूसरी तिमाही में जापान की जीडीपी 4.6 ट्रिलियन अमरीकी डॉलर रही, जबकि जनवरी-मार्च 2013 के बीच, यानी आबे के पद संभालने के तुरंत बाद, यह इससे कुछ ज़्यादा थी. माना जाता है कि इस समय जापान के सामने कॉरपोरेट सेक्टर में बड़े बदलावों को अंजाम देने की चुनौती है.
शिंज़ों आबे की इन सभी उल्लेखनीय उपलब्धियों के बावजूद, पिछले साल बिक्री कर बढ़ाकर 8% से 10% किये जाने से उनकी लोकप्रियता में गिरावट देखी गई. भ्रष्टाचार के घोटालों की एक श्रृंखला भी सामने आयी जिसने नुक़सान किया.
2016 के रियो ओलंपिक के समापन समारोह में शिंज़ो आबे
उन्होंने राजनीति को, निस्संदेह अपनी कुछ महत्वकांक्षाओं को हासिल किये बिना ही अलविदा कह दिया है.
शिंज़ो आबे संवैधानिक संशोधन करना चाहते थे. वे कुछ क्षेत्रीय विवादों का समाधान चाहते थे जिसमें रूस के साथ दूसरे विश्व युद्ध के बाद से अटके कुछ समझौते शामिल थे.
शिंज़ो आबे की आकांक्षाओं और राष्ट्रवादी महत्वाकांक्षाओं के बावजूद, उनकी व्यावहारिक उपलब्धियों में उनकी सबसे स्थायी विरासत होने की संभावना है.