विवेचना: बेटी पिता की संपत्ति में जन्मना हिस्सेदार,पत्नी-बहू परिवार की सिर्फ सदस्य

बेटों की ही तरह बेटियां भी जन्म के साथ पैतृक संपत्ति में बराबरी की हकदार; 10 पॉइंट्स में जानिए क्या है सुप्रीम कोर्ट का नया फैसला?
हिंदू उत्तराधिकार कानून 1956 में लागू हुआ था और इसे 2005 में बदला गया
संशोधित कानून पर सवाल उठ रहे थे कि यदि पिता की मौत 2005 से पहले हुई है तो भी क्या बेटी को पैतृक संपत्ति में अधिकार मिलेगा
सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) कानून 2005 को लेकर अहम फैसला सुनाया। कोर्ट ने कहा- अगर पिता की मौत 9 सितंबर 2005 से पहले हुई है, तो भी बेटियों को पैतृक संपत्ति में बराबरी का हक है। हिंदू उत्तराधिकार कानून 1956 में लागू हुआ था। इसे 2005 में संशोधित किया गया। इसके सेक्शन 6 में बदलाव करते हुए बेटियों को भी पैतृक संपत्ति में भागीदार बनाया गया था।
संशोधित कानून पर सवाल उठ रहे थे। मुख्य सवाल तो यही था कि यदि पिता की मौत 2005 से पहले हुई है तो भी क्या बेटी को पैतृक संपत्ति में अधिकार मिलेगा? इस पर सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की दो बैंचों ने अलग-अलग फैसले सुनाए थे। इस वजह से भ्रम की स्थिति थी। अब इस मामले में जस्टिस अरुण मिश्रा की अगुआई वाली तीन जजों की बैंच ने मंगलवार को जो फैसला सुनाया, वह सब पर लागू होगा।

10 पॉइंट्स में जानिए क्या था मामला? और सुप्रीम कोर्ट ने अब क्या फैसला सुनाया?

सुप्रीम कोर्ट ने प्रकाश बनाम फूलवती (2016) और दानम्मा बनाम अमर (2018) केस में अलग-अलग फैसले सुनाए थे। 2016 के फैसले में जस्टिस अनिल आर. दवे और जस्टिस एके गोयल की बेंच ने कहा था कि 9 सितंबर 2005 को जीवित कोपार्सनर (भागीदार) की जीवित बेटियों को ही हक मिलेगा। वहीं, 2018 के केस में जस्टिस एके सिकरी और जस्टिस अशोक भूषण की बेंच ने कहा कि पिता की मौत 2001 में हुई है तो भी दोनों बेटियों को पैतृक संपत्ति में हिस्सा मिलेगा।
दिल्ली हाईकोर्ट की जस्टिस प्रतिभा एम. सिंह ने विनीता शर्मा बनाम राकेश शर्मा केस में 15 मई 2018 को सुप्रीम कोर्ट के दोनों फैसलों का उल्लेख किया और इस अंतर्विरोधी स्थिति को सामने रखा। प्रकाश बनाम फूलवती केस को सही मानते हुए अपील रद्द की। लेकिन, सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर करने की इजाजत/सर्टिफिकेट भी दिया ताकि कानूनी स्थिति स्पष्ट हो सके।
इसी आधार पर यह मामला सुप्रीम कोर्ट में आया। पहले के दोनों फैसले दो जजों की बेंच ने सुनाए थे। इस वजह से इस बार तीन जजों की बैंच बनी ताकि इस सवाल का जवाब तलाशा जा सके कि यदि सितंबर-2005 यानी नया कानून लागू होने से पहले पिता की मौत हुई है तो बेटियों को संपत्ति में अधिकार मिलेगा या नहीं? जस्टिस अरुण मिश्रा, जस्टिस एस अब्दुल नजीर और जस्टिस एमआर शाह ने मंगलवार को इस पर अपना फैसला सुनाया।
दरअसल, इस मामले को साफ करने के लिए सरकार का इरादा जानना जरूरी था। इस वजह से केंद्र सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता भी पेश हुए। उन्होंने केस में कहा कि बेटियों को बेटों के बराबर हक देने के लिए ही उन्हें कोपार्सनर बनाया गया है। यदि उन्हें अधिकार नहीं मिला तो यह उनसे उनके मौलिक अधिकार को छीनने जैसा होगा।
केंद्र सरकार ने कोर्ट से यह भी कहा कि 2005 में कानून में संशोधन रेस्ट्रोस्पेक्टिव नहीं बल्कि ऑपरेशंस में रेस्ट्रोएक्टिव है। यानी संशोधित कानून लागू होने से पहले से इसके प्रावधान प्रभावी रहेंगे। कोपार्सनर का अधिकार बेटी ने जन्म से अर्जित किया है, लेकिन कोपार्सनरी तो उसका जन्मसिद्ध अधिकार है।
यह भी स्पष्ट किया कि संशोधित विधेयक 20 दिसंबर 2004 को राज्यसभा में पेश किया गया था। इसका मतलब यह है कि उससे पहले पैतृक संपत्ति में जो भी बंटवारे हुए हैं, उन पर संशोधित कानून का प्रभाव नहीं होगा। सुप्रीम कोर्ट ने इन दलीलों को भी स्वीकार किया है।
केंद्र की दलील थी कि 9 सितंबर 2005 को संशोधित कानून लागू हुआ और इसके साथ ही बेटियां भी जन्म से कोपार्सनर बन गईं। कोपार्सनर प्रॉपर्टी को लेकर जो अधिकार और दायित्व बेटों के हैं, वह बेटियों के भी रहेंगे।
इस संबंध में यह बताना जरूरी है कि भारत में 1956 में हिंदू उत्तराधिकार कानून लागू हुआ था। उससे पहले मिताक्षरा से सबकुछ तय होता था। यह याज्ञवल्क्य स्मृति पर विज्ञानेश्वर की टीका है। इसकी रचना 11वीं शताब्दी में हुई। यह ग्रन्थ ‘जन्मना उत्तराधिकार’ के सिद्धान्त के लिए प्रसिद्ध है। मिताक्षरा के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति को जन्म से ही पिता के संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में हिस्सेदारी मिल जाती है। 2005 से बेटियां भी इसके दायरे में आ गई हैं।
मंगलवार को अपना फैसला सुनाते हुए जस्टिस मिश्रा ने कहा- बेटियां भी माता-पिता को उतनी ही प्यारी होती हैं, जितने कि बेटे। ऐसे में उन्हें भी पैतृक संपत्ति में बराबरी से अधिकार मिलना चाहिए। बेटियां पूरी जिंदगी प्यारी ही होती हैं। बेटियों को भी पूरी जिंदगी कोपार्सनर होना चाहिए। भले ही पिता जीवित हो या नहीं।
कोपार्सनर वह व्यक्ति है जो जन्म से ही संयुक्त परिवार की संपत्ति में हिस्सेदार हो जाता है। हिंदू अविभाजित परिवार (HUF) में कोपार्सनर और सदस्य में मूल अंतर यह है कि कोपार्सनर पैतृक संपत्ति में हिस्से के लिए दबाव बना सकता है लेकिन सदस्य नहीं। 2005 में संशोधित कानून लागू होने से पहले बेटियां परिवारों की सदस्य होती थी, कोपार्सनर नहीं। यह भी स्पष्ट है कि पत्नी या बहू परिवार की सदस्य हो सकती है लेकिन कोपार्सनर नहीं।

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