मत: शतप्रतिशत पाकिस्तान की मत प्रचारित करने को बनी फिल्म ‘पठान’

पठान पाकिस्तान का पक्ष रखने वाली फिल्म है

इस बार कोई बहाना नहीं है। वे जानते थे कि लोगों ने उनके सॉफ्ट प्रोपोगैंडा की चालाकी को पकड़ लिया है और अब इसे चुपचाप बर्दाश्त नहीं करेंगे। फिर भी बॉलीवुड उर्फ उर्दूवुड के अभिजात वर्ग ने एक और घटिया बेकार फिल्म पठान बनाई,जो कि ना सिर्फ पाकिस्तान की कट्टर छवि को उदार छवि बनाती है बल्कि वह पाकिस्तान की कुख्यात जासूसी एजेंसी आईएसआई को भी क्लीन चिट देती है।

इस फिल्म में पठान (उर्फ पठान /पश्तून/ पख्तून) और अफगानिस्तान के मदरसा टीचर्स को भी दयालु मानवतावादी के रूप में दिखाया गया है, बावजूद इसके कि जग जाहिर सच्चाई यही है कि ये जो तालिबान- एक देवबंदी मदरसा से तालीम पाए हुए, पठान बहुल आतंकवादी समूह है, वे अन्य अफगान इस्लामवादियों के साथ मिलकर सभी हिंदू ,सिख और शिया हजारा अल्पसंख्यक को,उस देश से व्यवस्थित रूप से खत्म कर रहे हैं।

फिल्म की समीक्षा एक ऐसे व्यक्ति के इनपुट के आधार पर है जिसने केवल इस कारण यह फिल्म देखी कि इसे यशराज फिल्म्स ने बनाया था और अब यशराज का स्तर किस हद तक गिर गया है, यह देखकर वह हैरान रह गया, उसके दिल में गुस्सा भर गया!

फिल्म,लाहौर में एक पाकिस्तानी जनरल के साथ शुरू होती है जिससे पता चलता है कि उसे कैंसर है और उसके पास अब केवल और केवल तीन ही वर्ष शेष रह गए हैं। उसी समय उसने और उसके डॉक्टर ने टीवी पर अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के बारे में समाचार सुना। डॉक्टर को बहुत गुस्सा आता है और जनरल इसे “युद्ध की घोषणा” करार दे देता है। वह तुरंत अपने वरिष्ठ अधिकारियों से फोन पर बात करता है और कहता है “कूटनीति का समय समाप्त हो गया है…. यदि हम संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव पर निर्भर रहेंगे तो भारत का अगला लक्ष्य हमारा आज़ाद कश्मीर (पीओजेके) होगा।”

जी हां, आपने सही सुना -हमें यह विश्वास करने के लिए कहा जा रहा है कि पाकिस्तान अब तक ‘कूटनीति का अनुसरण’ कर रहा था, जोकि वास्तव में हास्यास्पद है। 1948 में जम्मू कश्मीर पर बलात्कार और लूटपाट के माध्यम से पठान कबीलाई लुटेरों का आक्रमण, 1971 में पंजाबी पठान के नेतृत्व वाली पाक सेना द्वारा नरसंहार, कारगिल युद्ध, 1980 के दशक के उत्तरार्ध से पाकिस्तानी सेना आईएसआई द्वारा शुरू किया गया सीमा पार आतंकवाद, उनकी ,’1000 घाव द्वारा मृत्यु’ की रणनीति के रूप में ,मुंबई पर 26/11 का हमला -यह सब ‘कूटनीति’ का हिस्सा था ??

फिर जनरल कहता है,”जो जवाब देना है,वो कोई खुदा का बंदा नहीं कर सकता… शैतान से दोस्ती करने का वक्त आ गया है”

इसलिए अब हमें ये मानने के लिए कहा जा रहा है कि पाकिस्तान ने जो अनगिनत खून के प्यासे जिहादियों का उत्पादन किया है- लश्कर का आका हाफिज सईद,जैश का आका मौलाना मसूद अजहर,मौलाना इलियास कश्मीरी (यह बर्बर वीर हुतात्मा जवान भाऊसाहेब मारुति तालेकर का सिर काट कर उसे पाकिस्तान वापस ले गया जहां जिहादियों ने उस सिर के साथ फुटबॉल खेला फिर इसे पाक राष्ट्रपति मुशर्रफ को पेश किया जिन्होंने उस कश्मीरी को उसकी इस ‘बहादुरी’ के लिए पुरस्कृत किया), या वो पाकिस्तानी सैनिक जिन्होंने कैप्टन सौरभ कालिया और उनके आदमियों को इस तरह की यातनाएं दी जो कि नाजियों को भी कसमसाने पर मजबूर कर दे; या भारचुंडी दरगाह के मौलवी मियां मिट्ठू की तरह के लोग, जो नाबालिक हिंदू लड़कियों का अपहरण, बलात्कार और धर्मांतरण करने से पहले पलक भी नहीं झपकाते; या गजवा-ए-हिंद के सपने देखने वाले शोएब अख्तर और ‘माचो पठान’ शाहिद अफरीदी जैसे पाकिस्तानी क्रिकेटर जिन्होंने एक बार अपने घर का टीवी तोड़ दिया था सिर्फ इसलिए क्योंकि उनकी बेटियां टीवी सीरियल में हिंदुओं को पूजा करते हुए देख उसकी नकल कर रही थीं, ये सब जिहादी नहीं बल्कि ‘खुदा के बंदे’ हैं।

तो इस फिल्म में यह शैतान कौन है जिसके साथ, भारत के उकसावे के कारण, पाकिस्तानी जनरल को हाथ मिलाने के लिए मजबूर होना पड़ा ? यह और कोई नहीं बल्कि जॉन अब्राहम द्वारा निभाए गए एक पूर्व रॉ एजेंट जिम का क़िरदार है, जो कई पदकों का विजेता एक भारतीय सैनिक था पर अब बागी हो गया है क्योंकि फिल्म की घटिया कहानी के अनुसार, एक बार भारत सरकार ने सोमालियाई समुद्री लुटेरों को दस करोड़ रुपए देने से मना कर दिया जिस कारण उनकी गर्भवती पत्नी की हत्या कर दी गई थी।

“क्या सरकार के पास पैसे की कमी थी… क्या होता अगर किसी मंत्री के परिवार को बंधक बना लिया गया होता,” हमारा नायक ‘पठान’, शाहरुख खान द्वारा अभिनीत किरदार,बाद में जिम की कहानी सुनते हुए घृणा से पूछता है; जिसके द्वारा की गई सामूहिक हत्या के लिए,अप्रत्यक्ष रूप से भारत के नेताओं पर ही आरोप लगाया जा रहा है।

जिम अब ‘आउटफिट एक्स’ नामक एक आतंकी समूह का नेतृत्व करता है, जो किसी वैचारिक कारण से नहीं, बल्कि कॉन्ट्रैक्ट पर काम करता है। हमें बताया गया है कि इस्लामिक आतंकवादी संगठन दाएश (इस्लामिक स्टेट उर्फ आईएसआईएस का दूसरा नाम) और बोको हरम द्वारा किए गए आतंकी हमले वास्तव में जिम के निजी आतंकवादी समूह को बाहरी स्तोत्र के रूप में ठेके पर दिए गए थे। तो वास्तव में यह आतंकवाद एक भारतीय द्वारा किया गया है।

प्रभावशाली दिमागों में अब यह विचार बोया जा रहा है कि आज दुनिया में सबसे बड़ा खतरा अल कायदा, आईएसआईएस,तालिबान,पाक सेना,आईएसआई,जेईएम, लश्कर-ए-तय्यबा,हूजी जैसे इस्लामी आतंकी संगठन नहीं, जो इस्लामिक खलीफा स्थापित करने या गजवा-ए-हिंद स्थापित करने के लिए काम कर रहे हैं, बल्कि वो आतंकवादी संगठन हैं जो अब कारपोरेट बन गए हैं और जो सबसे ऊंची बोली लगाने वालों के लिए उपलब्ध हैं।

फिल्म की नायिका, डॉक्टर रुबीना ‘रुबाई’ मोहसिन‌ का किरदार जो दीपिका पादुकोण द्वारा निभाया गया है, एक पाकिस्तानी डॉक्टर है, जो आईएसआई एजेंट बन गई और जिसे पाकिस्तानी जनरल ने जिम के आतंकवादी संगठन में शामिल होने के लिए भेजा है। उसके पिता को एक मध्य पूर्वी देश में बहुत सवाल पूछने के लिए पुलिस द्वारा प्रताड़ित किया गया था और वह अपनी मां के साथ पाकिस्तान लौट आई जहां उसने मेडिकल कॉलेज में दाखिला ले लिया। ‘फिर इंसानियत की खिदमत के लिए तुमने आईएसआई ज्वाइन कर ली’ हमारा नायक उसे कहता है। दर्शक उसके इस कथन से यह निश्चय नहीं कर पा रहे हैं कि वह ये बात गंभीरता से कह रहा है या मजाक में । अर्थात आईएसआई इंसानियत की खिदमत का काम कर रही है। क्या मज़ाक है ये!!

नोट: यह वही आईएएसआई है जिसने 26/11 के मुंबई आतंकी हमले की योजना बनाई और उसे अंजाम दिया, आतंकवादियों को सेटेलाइट फोन पर निर्देशित किया कि कैसे गैर मुस्लिम हिंदुओं को यातना दी जाए और उनकी हत्या की जाए। यही है इंसानियत की खिदमत??

हमारी नायिका नायक से पूछती है, “क्या तुम सच में पठान हो? क्या तुम मुस्लिम हो?” फिर हमें उसकी पिछली कहानी सुनाई जाती है- कैसे वह अपने माता पिता को नहीं जानता, उन्होंने उसे एक सिनेमाघर में छोड़ दिया था। कैसे वह पहले एक अनाथालय में फिर एक किशोर केंद्र और फिर रिमांड होम (किशोर अपराधियों के लिए सुधार सुविधा) में रहता था। वह कहता है”मेरे देश ने मुझे पाला और बड़ा किया” उसे एक अच्छे बेटे की तरह अपने देश की सेवा करने के लिए भारतीय सेना में शामिल होने के लिए प्रेरित किया।

“तो तुम एक लावारिस से खुदा गवाह कैसे बने?” हमारी नायिका,बॉलीवुड की दो पुरानी फिल्मों के नाम लेते हुए पूछती है। उर्दू मुहावरा खुदा गवाह का अर्थ है ‘अल्लाह मेरा गवाह हो’ जो अक्सर धर्मनिष्ठ मुसलमानों द्वारा प्रयोग किया जाता है।

“2002 में, हम अफगानिस्तान में अमेरिकी सेना के साथ एक संयुक्त मिशन पर थे। यह मेरा पहला मिशन था। एक तालिबानी नेता के जीपीएस फोन सिगनल को मार्क करके अमेरिका ने मिसाइल दागी लेकिन उन्होंने गलती से उसी नाम के एक मौलाना पर निशाना साध दिया जो उस समय एक मदरसे में तीस बच्चों को पढ़ा रहा था।”

मिसाइल हमला करने ही वाली थी कि हमारा हीरो मौलाना का फोन छीन कर उसे फेंक देता है और बच्चों को बचा लेता हैं लेकिन खुद घायल हो जाता है। उस गांव के निवासी उसकी बहुत देखभाल और सेवा करते हैं और उसे कोमा से बाहर निकालने में सफल हो जाते हैं। एक दयालु पठान महिला उसकी बांह पर एक इस्लामी ताबीज़ बांधती है और उसे ‘हमारा पठान’ कहती है।तब से हर साल हमारा हीरो अपने पठान परिवार के साथ ईद मनाता दिखता है।

आइए इस बात के बारे में अपने अविश्वास को निलंबित करने के लिए सहमत हों कि कैसे बिना नाम वाला एक आदमी भारतीय सेना में शामिल हो गया या जीपीएस सक्षम मोबाइल फोन और मिसाइल ट्रैकिंग सिस्टम के बारे में तकनीकी प्रश्न को भूल जाएं। पठान में जो दिखाया गया है उससे कहीं अधिक गंभीर मुद्दा है अमेरिका के साथ अफगानिस्तान में भारतीय सेना के जवानों को लड़ते हुए दिखाना, जबकि हमारी सरकार ने स्पष्ट रूप से ऐसा करने के लिए पश्चिमी मांगों का विरोध किया है, तो यह राष्ट्रीय सुरक्षा का इतना गंभीर उल्लंघन है कि, यह चौंकाने वाली बात है कि हमारे सेंसर बोर्ड,सरकार और सेना ने इस फिल्म को पास कैसे होने दिया। यह कुछ हलकों में व्यापक रूप से आयोजित दृष्टिकोण की पुष्टि करता है कि हम अभी भी एक गैर गंभीर राष्ट्र हैं,जो अर्थहीन गांधीवादी गुण संकेत में डूबे हुए हैं।

हम सभी जानते हैं कि फिल्मों का कितना गहरा असर समाज की मानसिकता पर पड़ता है तो ऐसे समझिए कि इस फिल्म को अगर कोई अफगानिस्तान-पाक क्षेत्र में बैठा एक जिहादी देखेगा‌ तो क्या इस बात को सच मानकर ‘काफिर भारत’ के खिलाफ जिहाद छेड़ने के लिए एक और कारण नहीं मान सकता ?

इसलिए पठान ना केवल आईएसआई और पाकिस्तान के इस्लामी राज्य की अच्छी छवि प्रस्तुत करने की कोशिश कर रहा है बल्कि यह वास्तव में अफगानिस्तान में अमेरिकी युद्ध में हमारी सैन्य भागीदारी के बारे में एक झूठी कहानी बनाकर भारत को खतरे में भी डाल रहा है।

आगे बढ़ते हुए, हमारे नायक को नायिका द्वारा पीठ में छुरा घोंपा जाने के बाद उनकी यूरोप की सड़कों पर एक और बैठक होती है।रुबीना अरबी अभिवादन सलाम वालेकुम(तुम्हें शांति मिले) बोलते हुए रज़ा नाम के एक भारतीय एजेंट पर बंदूक तानती है, लेकिन हमारा नायक उसके पीछे आता है और ना सिर्फ सामान्य प्रतिक्रिया में वालेकुम अस्सलाम कहता है बल्कि एक लंबा संस्करण, वालेकुम अस्सलाम रहमतुल्लाहि बरकातुह (अल्लाह की शांति दया और आशीर्वाद तुम्हारे साथ भी हो) जिसे कुछ महाद्वीप के मुसलमान को भी पूर्ण रुप से समझने में मुश्किल होगी।

रुबीना फिर हमारे नायक को जिम के निंद्य जैव-आतंकवाद की साजिश के बारे में बताती है और कैसे उसे भारत द्वारा अनुच्छेद 370 को निरस्त करने से नाराज पाकिस्तान में, एक चरमपंथी द्वारा नियुक्त गया है। यहां भी एक भारतीय सैनिक की छवि को कलंकित किया जा रहा है।

फिर वह कहती है “यह हमारी सरकार का काम नहीं है, बल्कि एक जनरल कादिर है जिसने हिंदुस्तान द्वारा अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के बाद, आईएसआई चरमपंथियों से हाथ मिला लिया.है.. मुझे नहीं पता था कि मेरे अपने लोग इस तरह का पागलपन कर सकते हैं। मैं भी तुम्हारी तरह एक पठान हूं जो अपने देश के लिए कुछ भी कर सकती है, लेकिन हजारों बेगुनाहों को मारना मेरे विचार में युद्ध नहीं है।” क्या एक पाकिस्तानी द्वारा ऐसी बात कहा जाना दोगलापन और पाखंड नहीं लगता,जो कि मूलतः कट्टरता की पराकाष्ठा हैं??

हालांकि नायक और नायिका के जिम के खिलाफ हाथ मिलाने के बावजूद भी वह उत्परिवर्तित वायरस के साथ भाग जाने में सफल हो जाता है।एक समय पर जिम और रुबीना आमने सामने आते हैं और वह उससे कहता है कि वह अपने ही लोगों को धोखा दे रही है तो वह कहती है “जनरल कादिर ‘मेरे लोग’ नहीं है। जब मेरे लोग सुनेंगे कि उसने क्या किया है तो वे उसे फांसी पर लटका देंगे।”

इस तरह से पाकिस्तान और उसके लोगों को बॉलीवुड द्वारा सकारात्मक प्रकाश में चित्रित किया जा रहा है।यह वही देश है जो ‘बांग्लादेश के कसाई’ जनरल टिक्का खान का सम्मान करता है, जिसने 1971 में तीस लाख बंगालियों का नरसंहार करवाया, जिनमें से बीस लाख चालीस हजार हिंदू थे,और ‘शुद्ध मुसलमानों’ की नस्ल बनाने के लिए दो से चार लाख लड़कियों और महिलाओं के सामूहिक बलात्कार को मंजूरी दी, उसी दुष्ट को एक राष्ट्रीय नायक के रूप में और 1972 में उसे सेना प्रमुख के रूप में पदोन्नत किया गया, जबकि उसने दुनिया में अब तक के सबसे नृशंस नरसंहार में से एक का आयोजन किया था। खान की 2002 में 87 वर्ष की आयु में प्राकृतिक कारणों से मृत्यु हो गई और उसे इस्लामाबाद के पास रावलपिंडी में पाकिस्तानी सेना के कब्रिस्तान में “पूर्ण सैन्य सम्मान” के साथ दफनाया गया।

फिल्म में आगे दिखाया गया है कि पठान के विरोध को दरकिनार कर रुबीना को रॉ ने पूछताछ को हिरासत में ले लिया गया है क्योंकि वह एक आईएसआई एजेंट है। पठान उससे कहता है कि वो उसे कुछ भी नहीं होने देगा,”ये एक पठान का वादा है।” पठानों के इस मिथक को एक बहादुर, सम्मानीय लोगों के रूप में दिखाना लंबे समय से बॉलीवुड उर्फ उर्दुवुड का पालतू प्रोजेक्ट रहा है।

हम रुबीना को भारतीय एजेंटों द्वारा वॉटर बोर्डिंग के से प्रताड़ित होते हुए देखते हैं,तभी पठान आता है और उसे बचाता है और कहता है-“मुझे खेद है रुबीना, डर लोगों को अंधा बना देता है” वह फिर अपने ही एजेंटों पर हमला करता है रुबीना के साथ जिम के साथ अंतिम प्रदर्शन के लिए भाग जाता है,जो अफगानिस्तान में है और जहां उसने जैव आयुध युक्त मिसाइलों को तैनात किया हुआ है।

फिल्म का एक मुख्य आकर्षण है जब अविनाश ‘टाइगर’ राठौर (सलमान खान)अपने साथी रॉ एजेंट पठान को बचाने को प्रवेश करता है। टाइगर का ट्रेडमार्क पहनावा कीफियेह है- काले और सफेद चेक वाला दुपट्टा जो ज्यादातर अरब पहनते है- उसका चरित्र, निर्माता वाईआरएफ द्वारा उनके स्पाई यूनिवर्स के हिस्से के रूप में बनाई गई दो पिछली फिल्मों में नायक था- एक था टाइगर (2012)टाइगर जिंदा है (2017)।

दिलचस्प बात यह है की पिछली फिल्मों में टाइगर को ज़ोया हुमैमी नाम की एक आईएसआई एजेंट से प्यार हो जाता है- वे शादी करते हैं और अपनी संबंधित एजेंसियों से दूर रहने को छुप छुप कर रहते हैं । एक फिल्म में इस युगल को इराक में फंसी भारतीय और पाकिस्तानी नर्सों को बचाने के मिशन में रॉ और आईएसआई को एक साथ काम करने के लिए भी मौका मिलता है। इस फ्रेंचाइजी की तीसरी फिल्म,वॉर (2019) में एक और बागी रॉ एजेंट ‘कबीर’ (ऋतिक रोशन) जो स्पष्टत: प्रतिपक्षी के रूप में है जबकि उसका पीछा उसका अपना शागिर्द कैप्टन खालिद (टाइगर श्रॉफ) कर रहा है।

वाईआरएफ स्पाई यूनिवर्स फ्रेंचाइजी की नैतिकता

रॉ और आईएसआई कुछ समान संस्थाएं हैं जो अच्छे या बुरे के लिए समान रूप से सक्षम हैं। इसके अलावा रॉ एजेंटों के पास बदमाश और बागी होने और सामूहिक हत्यारों में बदलने की प्रवृत्ति है। दोनों देशों को सब भूल कर दोस्त बन‌ जाना चाहिए ताकि अब ना रॉ की जरूरत हो और ना ही आईएसआई की। साथ ही ये ध्यान देने की बात है कि सबसे अच्छे रॉ एजेंट के नाम हैं टाइगर, कबीर, खालिद,पठान।

आप इस लेख को बॉलीवुड के,अत्यधिक कट्टरपंथी पठान समुदाय के महिमामंडन के, लंबे इतिहास के रुप में पढ़ सकते हैं, अगर आपको अभी भी संदेह है कि यह फिल्म घृणित क्यों है, जो कोई भी स्वस्थ और जागरूक समाज कभी नहीं बनाएगा।

निष्कर्ष

यह कहने का कोई आसान तरीका नहीं है-फिल्म पठान के निर्माण से जुड़े किसी भी व्यक्ति को शर्म आनी चाहिए कि पाकिस्तान की घृणित असलियत जानते हुए भी वे ऐसी झूठी और भ्रामक कहानी वाली फिल्म का हिस्सा कैसे बने।

फिल्म देखने गए दर्शकों को फिर भी माफ किया जा सकता है – आखिरकार मार्क्सवादी-धर्मनिरपेक्ष-उदारवादी गिरोह द्वारा दशकों से संस्कारित किए जाने के कारण हमारे देश में सच्चे इतिहास के बारे में जागरूकता अभी भी बहुत कम है। फिर उसमें बॉलीवुड पीआर मशीनरी की चकाचौंध जोड़ दें।

प्रसारण मंत्रालय में सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन (सीबीएफसी) को बॉलीवुड कबाल का सामना करने की हिम्मत नहीं है तो हमारी सेना और पीएमओ (जिसे रॉ रिपोर्ट करती है)को एक कड़ा स्टैंड लेने की जरूरत है।अगर सूचना और पठान जैसी फिल्में और वाईआरफाई स्पाय यूनिवर्स की बनाई गई ऐसी अन्य फिल्में न केवल भारतीय सेना और रॉ की पाकिस्तानी आर्मी और आईएसआई के साथ तुलना करके इनकी छवि खराब कर रहे हैं, बल्कि पठान जैसी फिल्में, विदेशी धरती पर एक विवादास्पद युद्ध में हमारी सैन्य भागीदारी को गलत तरीके से चित्रित करके हमारे सैनिकों को सीधे तौर पर खतरे में डाल रहे हैं ।

बॉलीवुड को अपनी विक्षिप्त कल्पनाओं का अनुसरण करने को, राष्ट्रीय हितों के साथ खिलवाड़ करने की अनुमति किसी भी कीमत पर नहीं दी जा सकती है । सेना और रॉ/आईबी को उन्हें चित्रित करने वाली सभी बॉलीवुड स्क्रिप्ट की जांच करनी चाहिए और यदि आवश्यक हो तो सेंसर बोर्ड में भी अपनी उपस्थिति सुनिश्चित करें।

स्पष्ट रूप से, बेशर्म रंग, गीत पर हिंदू समूहों के विरोध के कारण सीबीएफसी और दिल्ली उच्च न्यायालय से पठान की अतिरिक्त जांच भी फिल्म में इन मूलभूत खामियों को पकड़ने में विफल रही।

लेकिन सबसे बढ़कर इस फिल्म के निर्माता- यशराज फिल्म्स (वाईआरएफ) के निर्माता आदित्य चोपड़ा, निर्देशक सिद्धार्थ आनंद, लेखक श्रीधर राघवन और अब्बास टायरवाला, इस के स्टार अभिनेता जैसे शाहरुख खान, दीपिका पादुकोण, जॉन अब्राहम, डिंपल कपाड़िया आदि और मीडिया आउटलेट्स और समीक्षक जो इसके लिए प्रचार का हिस्सा बने हैं,उन सभी को ऐसे झूठे पाखंडी मत प्रचारक फिल्म बनाने को जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए जो दुनिया के अब तक के सबसे दुष्ट धार्मिक फासीवादी राष्ट्र के अपराधों को हवा देता है ।

नीचे कुछ तस्वीरें हैं जिन्हें इन अभिजात वर्ग को देखने के लिए मजबूर करना चाहिए- क्या पता उनमें से कुछ के पास हिंदू और साथी मनुष्यों के लिए कुछ महसूस करने के लिए अभी भी थोड़ा विवेक और मानवता बची हो।

 

लेकिन लुटियंस के बुद्धिजीवियों की तरह बॉलीवुड के अभिजात्य वर्ग से हृदय परिवर्तन की उम्मीद करना व्यर्थ है। वह अपनी शक्ति के नशे में चूर है और एक प्रतिध्वनी कक्ष में रहते हैं जो वास्तविकता से बहुत दूर है।

अब समय आ गया है कि सच को यथार्थ रूप में दर्शाया जाए और स्पष्ट रूप से धर्म के पक्ष में खड़ा हुआ जाए। मैं अब ऐसे लोगों, या उनका समर्थन करने वालों के साथ राष्ट्रीयता की भावना साझा नहीं करता। हिंदू जीवन और भारत की इस प्राचीन सभ्यता के लिए उनकी घोर अवहेलना, के खिलाफ कठोर सामाजिक और नागरिक प्रतिक्रिया होनी चाहिए।

अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद: रागिनी विवेक अग्रवाल

 

 

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