राहुल का कद बढ़ाने में क्यों जुटी है भाजपा? मौका भुना पायेंगें राहुल?

Rahul Gandhi Should Change His Agenda To Unite Opposition Parties To Fight With Bjp In Coming Elections

मत: भारतीय जनता पार्टी चाहती है ऊंचा होता रहे राहुल गांधी का कद लेकिन फायदा तो उनके झुकने में है

Lok Sabha Elections 2024 : राहुल गांधी सांसदी खोने के बाद अपने लिए बड़ा अवसर तलाश सकते हैं। उनके सामने विपक्ष को एकजुट करने का महत्वपूर्ण मौका है, लेकिन क्या वो इसका फायदा उठा पाएंगे? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या वो ऐसा करना चाहते भी हैं या नहीं?

हाइलाइट्स
1-लोकसभा सदस्यता छिनने के बाद राहुल गांधी राष्ट्रीय राजनीति में और चमकने लगे हैं
2-भारत जोड़ो यात्रा से ही राहुल का कद बढ़ा और अब सांसदी जाने से हो रहा है फायदा
3-मजेदार बात है कि राहुल गांधी के बढ़ते कद से भाजपा भी खुश है, छिपा है बड़ा राज

राहुल गांधी की सांसदी छिन जाने के बाद कांग्रेस पार्टी भले ही जनता के बीच गुस्सा दिखा रही हो, लेकिन अंदर-अंदर खुश हो रही है कि उसके एजेंडे को ही बल मिल रहा है। कांग्रेस मान रही है कि राहुल गांधी पर ऐक्शन से केंद्र सरकार और भाजपा ने उसके ही नैरेटिव को मजबूत कर दिया है कि देश का लोकतंत्र खतरे में है। मजे की बात है कि भाजपा को भी उतनी ही खुशी हो रही है। यानी भाजपा-कांग्रेस, दोनों के लिए विन-विन सिचुएशन! ऐसा कैसे?

पॉलिटिकल रिसर्चर आसिम अली ने  द टाइम्स ऑफ इंडिया (ToI) में इसका कारण बताया है। साथ ही उन्होंने कहा कि कांग्रेस पार्टी की यह खुशी तभी टिक पाएगी जब राहुल गांधी अपने विचारों में मौलिक अंतर ला पाएं। वो कहते हैं कि इसमें कोई संदेह नहीं कि राष्ट्रीय स्तर पर राहुल गांधी का कद बढ़ रहा है, लेकिन इसमें भाजपा का भी हाथ है। आसिम का मानना है कि राहुल गांधी की संसद सदस्यता जाने के बाद कांग्रेस का आक्रामक रुख और राहुल गांधी का चर्चाओं के केंद्र में आना उसके लिए अच्छा ही है, ना कि बुरा। वो कहते हैं, ‘अब राहुल गांधी पर है कि वो इस धारणा को सही ठहराते हैं या गलत।’

दरअसल, राहुल गांधी की सांसदी जानने के बाद वो पार्टियां और नेता भी कांग्रेस के समर्थन में आ गए जो उसका मुखर विरोध किया करते हैं। मसलन भारत राष्ट्र पार्टी (BRS), आम आदमी पार्टी (AAP) और तृणमूल कांग्रेस (TMC) ने भाजपा की जमकर आलोचना की। आप संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने तो यहां तक कहा कि भाजपा सरकार ब्रिटिश शासन से भी ज्यादा अत्याचारी है। ये सभी राहुल गांधी के पिच पर आकर ‘लोकतंत्र को खत्म करने’ वाला राग ही अलाप रहे हैं। विपक्ष के आपसी मतभेद भूलकर एकजुट होने की तरफ बढ़ते कदम से भाजपा में घबराहट होनी चाहिए, लेकिन ऐसा है नहीं। बल्कि वो चाहती ही है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने राहुल गांधी का चेहरा उभरे ताकि चुनावों में उसकी बढ़त बरकरार रहे। ऐसा लगता है कि कर्नाटक और मध्य प्रदेश में भाजपा के खिलाफ सत्ताविरोधी लहर जड़ पकड़ रही है। ऐसे में मोदी बनाम राहुल के शोर से भाजपा की जमीन वापस मिल सकती है। भाजपा की इस सोच के पीछे जमीनी सच्चाई भी है। इंडिया टुडे के हालिया मूड ऑफ नेशन सर्वे में नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता 53 प्रतिशत है जबकि राहुल गांधी को सिर्फ 14 प्रतिशत लोग बतौर प्रधानमंत्री देखना चाहते हैं।

अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए सत्ता पक्ष जहां राष्ट्रवाद के रथ पर सवार होकर सत्ता की सीढ़ी चढ़ना चाहता है तो विपक्ष लोकतंत्र के हवाले से सत्ता विरोधी हवा बनाने के ताक में है। लेकिन विपक्ष के साथ समस्या यह है कि वह बार-बार पलड़ा बदलता रहता है। उधर, भाजपा अपने उद्देश्य में पूरी तरह साफ है। यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि लोकतंत्र पर खतरे का ढोल पीटना राजनीतिक रूप से गैर-लाभकारी है, खासकर तब जब सत्ताधारी दल राष्ट्रवाद की दुदुंभी बजा रहा हो। 1977 और 1989 का उदाहरण ही ले लें। कांग्रेस ने 1977 में आपातकाल (1977 Emergency) का यह कहकर बचाव किया कि विपक्षी नेताओं ने राष्ट्रीय सुरक्षा खतरे में डाल दी थी। उसी तरह, 1989 में कांग्रेस ने राजीव गांधी के नेतृत्व में नए भारत की आक्रामक विदेश नीति का ढिंढोरा पीटा और लगे हाथ विपक्ष को अवसरवादियों का कुनबा बता दिया जो कश्मीर और पंजाब में राष्ट्रीय एकता के लिए खड़ी हुई गंभीर चुनौती से निपटने के बिल्कुल लायक नहीं है। उस वक्त कांग्रेस पार्टी ने अखबारों में पूरे पन्ने का विज्ञापन दिया जिसमें एक टूटी हुई गुड़िया का चित्र था और लिखा था, ‘मेरा दिल भारत के लिए धड़कता है और मैं किसी को इसके टुकड़े करने नहीं दूंगा।’

यह भी ध्यान देने की बात है कि तब एकजुट विपक्ष ने कांग्रेस की तानाशाही और भ्रष्टाचार का मुद्दा खूब उछाला, फिर भी दोनों ही चुनावों में दक्षिण भारत के चारों राज्यों में कांग्रेस की स्थिति पर कोई नकारात्मक असर नहीं पड़ा। 1977 हो या 1989, कांग्रेस पार्टी ने चारों राज्यों में या तो अपनी स्थिति बरकरार रखी या उसमें सुधार करने में कामयाबी हासिल की।

इससे एक मतलब तो निकलता ही है कि केंद्र सरकार में बैठी मजबूत पार्टी के खिलाफ लोकतंत्र को कमजोर करने का नैरेटिव चुनावों में तभी फायदेमंद साबित हो पाता है जब इसका स्थानीय समस्याओं के साथ तालमेल कराया जाए। लेकिन राहुल गांधी ऐसा नहीं कर पा रहे हैं। उन्होंने ब्रिटेन में जो कहा, उससे भाजपा का एजेंडा ही पूरा होता है- लोकतंत्र की झूठी चिंता बनाम सच्चा राष्ट्रवाद। भारत जोड़ो यात्रा के कारण राहुल का कद भी इसलिए बढ़ पाया क्योंकि वो राज्यों से गुजरे और वहां की स्थानीय समस्याओं को देखा-समझा और उस पर बात की। इतिहास के पन्नों को पलटें तो उत्तर भारत के राज्यों में स्थानीय स्तर के राजनीतिक दलों का उदय ही इसलिए हो पाया क्योंकि उन्होंने जनता को लोकतंत्र में राजा बनाने के नारे लगाए और दलितों, पिछड़ों के साथ-साथ अल्पसंख्यकों के बड़े वर्ग का विश्वास जीत लिया। 1989 के चुनावों में दक्षिण भारत में अच्छा करने वाली कांग्रेस को उत्तर भारत में मुश्किलों का सामना करना पड़ा। वीपी सिंह विपक्ष का राष्ट्रीय चेहरा जरूर थे, लेकिन राज्यों में जाति-समुदाय के आधार पर मुद्दे बदलते गए जिन्हें स्थानीय दलों ने अच्छे से भुनाया।

भारत जोड़ो यात्रा के बाद कांग्रेस का जोश हाई है। वह प्रधानमंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी के एकमात्र दमदार विकल्प के तौर पर राहुल गांधी को फिर से पुश करने में जुट गई। मगर यह रणनीति खोटी साबित हो सकती है। राहुल गांधी हाथरस केस में कोर्ट का फैसला, भिवानी में लिंचिंग, शिव सेना को कानूनी झटका और कर्नाटक में भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों को उठाने से चूक गए। उन्होंने खुद को राष्ट्रीय गौरव और राष्ट्रीय सुरक्षा की बहस तक सीमित रखा है। बहरहाल, प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी की दृष्टि से राहुल गांधी की सांसदी जाना विपक्ष के लिए खुशखबरी जरूर हो सकती है, लेकिन इसका फायदा तभी संभव है जब कांग्रेस पार्टी प्रादेशिक दलों को उनके स्थानीय मुद्दों को मजबूती देने में मदद करे और राहुल गांधी सूत्रधार की भूमिका अपना लें। ऐसा ही 1989 में वीपी सिंह ने पूरे विपक्ष के लिए किया था। क्या राहुल ऐसा कर पाएंगे? यह बड़ा सवाल है। अगर एक-दूसरे से दूरियां बरत रहे विपक्षी दलों को एकता के सूत्र में पिरो सकें तो राहुल गांधी वाकई में भाजपा की यह धारणा तोड़ देंगे कि उनका बढ़ता कद विपक्ष नहीं बल्कि सत्ता पक्ष के लिए ही फायदेमंद है।

 

 

 

 

 

27 मार्च 2023

 

 

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