युगों बाद भी वेद ज्यों के त्यों कैसे? बौद्धों, मिशनरियों और मुस्लिम हमलों में भी ये चमत्कार ही तो है

फाइनल इयर ग्रेजुएशन (संस्कृत) की परीक्षा में अक्सर एक विषय “संस्कृत वांग्मय का इतिहास” भी होता है। चूँकि आजकल जो संस्कृत पठन-पाठन और परीक्षा की (निहायत ही घटिया) पद्दति चलती है, उसमें इस बात पर जोर दिया जाता है कि छात्र-छात्राएं कितना रट सकते हैं, इसलिए इस विषय में भी काफी रटना पड़ता है। इसमें जो महत्वपूर्ण प्रश्न होते हैं उनमें से एक है “वेदांगों के नाम और उनका महत्व बताएं”। इस सवाल के साथ समस्या ये होती है कि व्याकरण और ज्योतिष वेदांग होंगे, ये तो आसानी से याद रहता है। बाकि के चार में से छन्द एक है ये परीक्षा में जैसे तैसे याद आता है। इसके आगे के तीन बड़ी मुश्किल से याद आते हैं।

इस समस्या को सुलझाने के लिए हम लोग याद रखते हैं कि छन्द को वेदों का पैर, कल्प को हाथ, ज्योतिष को नेत्र, निरुक्त को कान, शिक्षा को नाक, व्याकरण को मुख कहा गया है। इस तरह शरीर के छह अंगों से मिलाकर हम लोग इस प्रश्न का उत्तर याद रखते हैं। किसी भी परीक्षा के वेदांग वाले प्रश्न में किसी का भी लिखा हुआ उत्तर देख लेंगे तो ये वाक्य लिखा मिलेगा ही मिलेगा – छन्द को वेदों का पैर, कल्प को हाथ, ज्योतिष को नेत्र, निरुक्त को कान, शिक्षा को नाक, व्याकरण को मुख कहा गया है। अब सवाल है कि वेदों को आखिर इन छः हिस्सों में बाँटने की जरूरत ही क्यों पड़ती है? एक तो ये जानकारी को “स्पेशलाइज” कर देता है। दूसरे आप किस हिस्से पर अधिक पकड़ रखते हैं, ये वेद सिखाने वालों को भी समझ में आता है।

वेद के मन्त्रों के उच्चारण की विधि “शिक्षा” में बताई जाती है। ये वेदांग का पहला भाग है जिसमें स्वर-वर्ण आदि के उच्चारण की शिक्षा दी जाती है। इतनी सदियों तक जब बर्बर कबीलाई आक्रमणकारी और धर्म परिवर्तन के लिए आये हमलावर जब पुस्तकों को जला रहे थे, तब भी वेद अपने मूल रूप में बचे रहे क्योंकि “शिक्षा” नाम का वेदांग था। इसके जरिये बिलकुल पक्का-पक्का उच्चारण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी बढ़ता रहा। सर काटकर सवा मन जनेऊ जलाने की घटनाओं के बाद भी वेद पूरा-पूरा रटकर बैठे हरेक व्यक्ति की हत्या संभव नहीं हो पाई इसलिए वेद अपने मूल रूप में बचे रह गए।

किस वैदिक कर्म में कौन से मन्त्र का प्रयोग होगा, ये “कल्प” नाम के वेदांग से पता चलता है। अब इसकी तीन शाखायें होती हैं- श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र और धर्मसूत्र। यज्ञों से सम्बंधित नियम “कल्प” में बताये जाते हैं। कल्प का मोटे तौर पर अर्थ हिस्सा भी लगाया जा सकता है। यानि कौन सा मन्त्र किस हिस्से का है, ये कल्प से पता चलता है। वैदिक ग्रन्थ अपने सही क्रम में रहें, ये “कल्प” से सुनिश्चित हो पाया। इसके बाद व्याकरण आता है। शब्दों के उदात्त, अनुदात्त तथा स्वरित स्वरों की स्थिति का बोध व्याकरण से होता है।

इसके बाद “निरुक्त” की बारी आती है। इससे शब्दों का अर्थ समझा जाता है। शब्दों का प्रयोग जिन-जिन अर्थों में किया गया है, वो सभी अलग-अलग अर्थ “निरूक्त” के जरिये बताये जाते हैं। आज की शिक्षा पद्दत्ति से तुलना करें तो “लिंग्विस्टिक्स” में शायद शिक्षा, व्याकरण और निरुक्त तीनों मिलकर साथ आएंगे। यज्ञ और अन्य आयोजनों के लिए समय-घड़ी भी देखनी होगी, इसलिए वेदांग का एक हिस्सा “ज्योतिष” है। अंत में आते हैं “छन्द”। हर मन्त्र का अपना एक छन्द होता है। यानि अक्षर और मात्राओं की गिनती तय होगी। किसी किस्म की हेरफेर, अक्षर-मात्राओं को बदल देने को वैदिक मन्त्रों का छन्दों में होना, अत्यंत कठिन बना देता है।

उदाहरण के तौर पर आप देख सकते हैं कि आजकल जो हिंदी कविता लिखी जाती है, वो बेतुकांत होती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि बेतुकांत कविता लिख डालना आसान होता है। इसकी तुलना में किसी से पञ्चचामर छन्द में
“हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती –
स्वयंप्रभा समुज्जवला स्वतंत्रता पुकारती –“
जैसी कोई कविता लिख देने कहा जाये, या अनुष्टुप, गायत्री जैसे किसी छन्द में लिख देने कहा जाए तो अधिकांश लोग हाथ खड़े कर देंगे। शिव तांडव इसी कठिन पञ्चचामर छन्द में रचित है। तुलसीदास, कबीर, रैदास जैसा कुछ दोहा-चौपाई में रच देना भी आसान काम नहीं होता।

इतने विभागों में होने का लाभ ये हुआ कि विश्व की सबसे प्राचीन रचना होने पर भी वेद अभी तक, अपने मूल स्वरुप में ही बचे रहे। विश्व धरोहर को इतनी सदियों तक बचाकर रखने के लिए जिनकी प्रशस्ति होनी चाहिए थी, उन्हें आमतौर पर इसके लिए गालियाँ पड़ती हैं। बर्बर कबीलाई हमलावर, धर्म परिवर्तन के लिए जुटे “सोल हार्वेस्टर्स” और उनकी फेंकी बोटियों पर पलने वाले ऐसी गाली गलौच करते दिख जायेंगे। वैसे इतने वेदांगों को पढ़ने सीखने में 15-20 वर्ष लगेंगे, ये अनुमान लगाना कठिन नहीं ही होगा? जो इन सभी छः भागों को पढ़ चुके (और पढ़ते-पढ़ते अपने से छोटों को सिखाते भी रहे), उन्हें वाग्मी कहते हैं। वाग्मी का अर्थ ये भी होगा कि वो शास्त्रार्थ में निपुण है।

जैसे गुरुकुलों में इनकी शिक्षा मिलती है, वो रेजिडेंशियल स्कूल से थोड़े अलग होते हैं। मिलते-जुलते होते हैं क्योंकि बच्चे वहाँ परिवार से दूर गुरुओं के पास रहते हैं। अलग इसलिए क्योंकि रेजिडेंशियल स्कूल की तरह वहाँ से बच्चे गर्मी-जाड़ों की छुट्टियों में किसी घर नहीं लौट रहे होते। वर्षों गुरुकुल में ही भिक्षाटन करते, पढ़ते रह जाते हैं। सुबह ब्रह्म मुहूर्त में यानि साढ़े तीन – चार बजे के आस पास उनकी दिनचर्या आरंभ होती है। इतनी सुबह प्रतिदिन जागने के नाम पर ही कई लोग इनकार कर देंगे। हर दिन इसी समय ठन्डे पानी से नहाने कह दिया जाए, तो भी कई सूरमा वापस कुश्ती लड़ने को आसान काम मानकर पतली गली से निकल लेंगे। लेकिन इतने पर रुकने के बदले इसमें संन्यास और जोड़ लीजिये।

वाग्मी होने के अलावा सन्यासी भी हो, ये शंकराचार्य बनने की प्रमुख अहर्ताएं हैं। ऐसा भी नहीं कि जो जो वाग्मी हों और सन्यासी हों, सभी शंकराचार्य हो जायेंगे। पीठ बहुत कम हैं और ऐसे सन्यासी सैकड़ों होते हैं। कोई गारंटी नहीं कि सभी शंकराचार्य बन पाएंगे। कुछ क्यूट शुगर फ्री पीढ़ी के धूप में बाल पकाकर आ गए बुड्ढे पूछ सकते हैं कि शंकराचार्य बनने की क्वालिफिकेशन क्या है? हो सकता है कुछ युवाओं में सहज जिज्ञासा हो अपने धर्म के प्रति और वो भी पूछें कि शंकराचार्य बनने के लिए क्या पढ़ना होता है? अगली बार ऐसे प्रश्नों से सामना हो तो बताइयेगा कि वाग्मी हो, शास्त्रार्थ में निपुण हो, और सन्यासी हो। ये तीन मिनिमम क्वालिफिकेशन तो चाहिए। पूरा कर लें, फिर आगे की और प्रक्रिया भी देखते हैं!

 

✍🏻आनन्द कुमार  की पोस्ट

 

 

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