मत: नूपुर शर्मा मामले में भाजपा कहां चूकी, क्यों चूकी?

नूपुर शर्मा मामले में बीजेपी से कहां हुई गलती

बीजेपी और संघ परिवार के अंदर भी यह महसूस किया जा रहा है कि हाल की कुछ घटनाओं से पार्टी के स्तर पर बेहतर तरीके से निपटा जा सकता था। उदाहरण के लिए, नूपुर शर्मा और नवीन जिंदल प्रकरण में बीजेपी क्या करें, क्या ना करें की स्थिति में आ गई, जिससे कार्यकर्ता और समर्थक हैरान थे। यह विवाद असल में पार्टी से जुड़ा था, सरकार की इसमें बड़ी भूमिका नहीं हो सकती थी। पाकिस्तान के एक पत्रकार ने तो नूपुर शर्मा वाले पूरे विडियो का विश्लेषण करते हुए दावा किया कि टीवी डिबेट में मुस्लिम डिबेटर ने विवादित टिप्पणी करने के लिए उन्हें भड़काया था। कई मुस्लिम मौलवियों ने भारत में भी यही बात कही। बीजेपी इसी बात को अपने तरीके से देश के सामने रखती तो स्थिति दूसरी होती।

क्या करना चाहिए था

विवाद उभरने के साथ बीजेपी नेतृत्व को पूरे डिबेट की विडियो मंगा कर उसका विश्लेषण करना चाहिए था। वे नूपुर शर्मा के बयान से असहमति प्रकट करने के साथ ये दो काम करतेः

पहला, प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाकर बताते कि कैसे मुस्लिम प्रवक्ता हिंदू देवी-देवताओं को अपमानित कर रहे हैं।
दूसरा, नेतृत्व से संकेत मिलने के बाद कार्यकर्ता और समर्थक सक्रिय हो जाते और लोकतांत्रिक व्यवस्था में अपने विरोध के अधिकार का उपयोग करते।
लेकिन पार्टी के नूपुर के खिलाफ एक्शन लेने से बीजेपी के सारे प्रवक्ता डर गए। उन्हें लगा कि अगर किसी डिबेट में उनके मुंह से भी कुछ ऐसा-वैसा निकल गया तो उनकी भी नूपुर शर्मा जैसी दशा हो सकती है। यहां तक कि उदयपुर में कत्ल से संबंधित टीवी डिबेट्स में भी बीजेपी प्रवक्ता नहीं दिखे। लेकिन ऐसा पहली बार नहीं हुआ है।

 

नूपुर शर्मा की गिरफ्तारी को लेकर पिछले महीने मुंबई में हुआ प्रदर्शन (फोटोः ANI)

अग्निपथ स्कीम का अनुभव

अग्निपथ योजना के विरोध के दौरान बिहार में बीजेपी के अध्यक्ष और उपमुख्यमंत्री के घरों पर हमले हुए, तीन जिला कार्यालय जला दिए गए, जगह-जगह तोड़फोड़ और भीषण आगजनी हुई। लेकिन उसके समानांतर राजनीतिक स्तर पर अहिंसक प्रतिरोध नहीं हुआ। बिहार और केंद्रीय बीजेपी कहीं सड़क पर उतरती नहीं दिखी।

ऐसी हर चुनौती का सामना राजनीतिक स्तर पर करना श्रेष्ठतम रास्ता है। कानूनी अजेंसियों की भूमिका है, लेकिन उनकी सीमाएं हैं। साफ दिख रहा था कि विरोध प्रदर्शनों में एक साथ वे सारी नकारात्मक शक्तियां इकट्ठा हो गई हैं, जो मोदी, शाह, योगी को सत्ता से हटाना चाहती हैं। विरोधी राजनीतिक दल उनका साथ दे रहे थे। इससे बुरी स्थिति क्या होगी, जब पार्टी को लगे कि उसे सड़क पर आना चाहिए। पार्टी मशीनरी को अगर ऐसा महसूस नहीं हुआ तो यह अच्छी बात नहीं है।

वास्तव में आक्रामक विरोधों और हिंसा की हालिया तस्वीरों ने पूरे देश को चिंतित किया है। लेकिन उससे कहीं ज्यादा चिंताजनक है सत्ता और राजनीति के स्तर पर इनसे निपटने में दिखीं व्यापक कमियां। ज्ञानवापी या फिर अग्निपथ के विरुद्ध प्रदर्शनों में हुई हिंसा कतई आश्चर्यजनक नहीं थी। नूपुर शर्मा मामले में जब सड़कों पर भड़काऊ नारे लग रहे थे, तभी आने वाले हालात का अंदाजा लगाया जा सकता था।

जरूरी है दीर्घकालिक रणनीति

वैचारिक दृष्टि से नरेंद्र मोदी, अमित शाह, योगी आदित्यनाथ, बीजेपी, संघ और इसे विस्तारित करें तो भारत के विरुद्ध संगठित, सशक्त दुष्प्रचार अभियानों से बार-बार सामना होने के बाद तो इनसे निपटने की सुविचारित, दीर्घकालिक रणनीति और कार्ययोजना आवश्यक हो गई है। जब भी पिछले कुछ वर्षों में ऐसे विरोध हुए, लगा ही नहीं कि इनके समानांतर देश में अहिंसक प्रतिरोध की शक्तियां भी हैं। मैं इसके दो उदाहरण नीचे दे रहा हूं:

1-कृषि कानून विरोधी आंदोलन के दौरान बार-बार अपील होती रही कि कानून के समर्थकों को सड़क पर आना चाहिए। बीजेपी किसान मोर्चा यह काम कर सकती थी, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया।
2-नागरिकता संशोधन कानून के दौरान शाहीनबाग के खतरनाक व अवैध धरना के विरुद्ध आम लोगों के आह्वान पर ही अनेक जगह समानांतर विरोध प्रदर्शन हुए।

बीजेपी अगर योजनाबद्ध तरीके से सड़कों पर उतरती तो उसका असर होता और इस मामले को लेकर विरोधी शक्तियों को विश्व भर में दुष्प्रचार का अवसर नहीं मिलता।
ये तो कुछ उदाहरण है। आप देखेंगे कि ऐसी किसी भी स्थिति में जब स्वयं प्रधानमंत्री या गृहमंत्री अमित शाह बाहर आए, तभी पार्टी को थोड़ा-बहुत खड़ा होते देखा गया है। प्रश्न है कि ऐसा क्यों हो रहा है? सरल उत्तर यही है कि नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय राजनीति में आने के कारण बीजेपी को जनता का मत प्राप्त हो गया, पार्टी सत्ता में आ गई, लेकिन सांस्कृतिक पुनर्जागरण और भारत के पुनर्निर्माण की दृष्टि से बीजेपी और उससे जुड़े संगठनों के अंदर जिस तरह की प्रखरता और स्फूर्ति पैदा होनी चाहिए थी, वह नहीं हुई।

पार्टी में हो आंतरिक सुधार

वह निस्तेज और भ्रमित बीजेपी थी, जो यूपीए के सामने चुनावों में नहीं टिक पाई। नेतृत्व बदल गया, उससे जनता में आकर्षण पैदा हुआ, लेकिन पार्टी में संगठनात्मक और वैचारिक स्तर पर आंतरिक सुधार नहीं हुआ। लंबे समय से आंदोलन और वैचारिक अभियानों के ना चलने से कार्यकर्ताओं का स्वाभाविक प्रशिक्षण भी नहीं हुआ। ऐसा हुआ होता तो पार्टी के अंदर स्वतःस्फूर्त चेतना होती, जिससे वह इन घटनाओं और विरोध प्रदर्शनों के समानांतर प्रखरता से प्रतिरोध करती दिखती। पूरी बीजेपी का मनोविज्ञान ऐसा दिखता है जैसे मोदी-योगी-अमित शाह ही सब कुछ कर देंगे। चुनाव लड़ने वाले मानते हैं कि उनके कारण हम चुनाव जीत जाएंगे और हमारे सामने चुनौतियां नहीं खड़ी होंगी। जाहिर है, इस स्थिति को बदलने के लिए सारी असाधारण चुनौतियों की समग्र समीक्षा कर योजनाबद्ध तरीके से संगठन, वैचारिकता और जमीनी संघर्ष की दृष्टि से बीजेपी के अंदर ऐसा आंतरिक सुधार करना होगा कि पार्टी हर परिस्थिति में जीवंत इकाई की भूमिका निभा सके।

*अवधेश कुमार

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