चर्चित ब्लाग: खबरदार, कमजोरी नहीं, चुप्पी सबसे बड़ा हथियार है मोदी का

कमजोरी नहीं, प्रधानमंत्री मोदी का सबसे बड़ा हथियार है चुप्पी!
पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनावों के नतीजों के बाद वहां भारतीय जनता पार्टी कार्यकर्ताओं पर लगातार हमले हो रहे हैं, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कोई बयान नहीं आया है. कोरोना को लेकर एक के बाद एक तमाम विपक्षी राज्यों के मुख्यमंत्री और नेता उन पर निशाना साध रहे हैं, लेकिन पीएम मोदी चुप हैं. यहां तक कि उनके अपने समर्थक भी पश्चिम बंगाल में भाऊ कार्यकर्ताओं की हत्या के बाद से बौखलाए हुए हैं और मोदी को भला-बुरा कह रहे हैं, तब भी मोदी ने अपनी खामोशी तोड़ी नहीं है. आखिर मोदी की इस चुप्पी का राज क्या है, जो देश-दुनिया में जाने जाते हैं अपने आक्रामक अंदाज और बयानों के लिए. लेकिन मोदी की राजनीति पर बारीक निगाह रखने वालों के लिए इसमें कुछ भी नया नहीं है. मोदी चुप्पी को अपने हथियार के तौर पर इस्तेमाल करते हैं और पूरी तैयारी कर पहला मौका मिलते ही हिसाब-किताब बराबर कर लेते हैं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सबके निशाने पर हैं, क्या विरोधी और क्या समर्थक

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सबके निशाने पर हैं, क्या विरोधी और क्या समर्थक. पश्चिम बंगाल में लगातार तीसरी बार सत्ता की बागडोर संभालते ही ममता बनर्जी और उनकी पार्टी टीएमसी तो ठीक, टूटे-बिखरे-पस्त विपक्ष ने भी दीदी में रानी लक्ष्मीबाई की कल्पना करनी शुरु कर दी है, जो 2024 में मोदी को केंद्र से उखाड़ फेंकेगी. मोदी से खुन्नस का आलम ये है कि जिस कांग्रेस पार्टी को बंगाल में एक भी सीट नहीं मिली, उसके भी कर्णधार राहुल गांधी ममता को बधाई देने में लगे हुए हैं, क्योंकि ममता ने पश्चिम बंगाल पर बीजेपी का कब्जा नहीं होने दिया. शिवसेना की भी खुशी छिपाये नहीं छुप रही.

पश्चिम बंगाल में पार्टी कार्यकर्ताओं पर हमले को लेकर क्यों चुप हैं मोदी

मोदी पर खुद के समर्थकों का भी काफी दबाव है. सोशल मीडिया के सुपरस्टार मोदी खुद हैं, लेकिन पिछले कुछ दिनों से उसी पर गालियां पड़ रही हैं, उनके हार्डकोर समर्थक उन्हें लानतें भेज रहे हैं, आखिर उन्होंने पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी का शपथ ग्रहण होने देने की जगह वहां राष्ट्रपति शासन क्यों नहीं लगाया. बकायदा इंदिरा गांधी का उदाहरण दिया जा रहा है कि अगर भाजपा की जगह कांग्रेस के कार्यकर्ताओं की हत्या हुई होती और इंदिरा प्रधानमंत्री होंती तो किस तरह से अभी तक पश्चिम बंगाल में ममता शासन की जगह राष्ट्रपति शासन लगा होता और टीएमसी के गुंडों को सबक सिखाया जा चुका होता, जिन्होंने भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्या की है, लूट मचाई है और यहां तक कि महिलाओं के साथ बलात्कार और विभत्स अत्याचार किये हैं.

विपक्ष उड़ा रहा है मजाक, लेकिन मोदी हैं चुप

जिस मोदी के बारे में मशहूर है कि उनकी आंखों से निकलने वाली आग को बर्दाश्त करना सबके बूते की बात नहीं है, उनको वो नेता और मुख्यमंत्री भी आंख दिखा रहे हैं, जिन्हें खुद राजनीति में पांव रखे जुम्मा-जुम्मा चार दिन नहीं हुए हैं और अपनी जमीन ही तलाशने में लगे हुए हैं, तब भी पीएम मोदी पर सभी संवैधानिक मर्यादाओं को ताक पर रखते हुए छींटाकशी कर रहे हैं. ताजा उदाहरण झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन का है, जिन्हें पीएम मोदी ने कल फोन किया कोरोना के सामने साझी लड़ाई को लेकर, लेकिन आभार मानने की जगह सोरेन ने कह दिया कि मोदी हमेशा मन की बात करते हैं, काम की कोई बात करते नहीं हैं. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल तो पीएम मोदी के सामने अनाप-शनाप बयान और हरकतों के लिए मशहूर ही हैं. ज्यादा समय नहीं बीते, जब सारे प्रोटोकॉल को किनारे रखते हुए पीएम मोदी से तमाम राज्यों के सीएम वाली बैठक के दौरान अपनी स्पीच को चुनावी अंदाज में डिलिवर करते हुए केजरीवाल ने उसे लाइव प्रसारित भी करवा डाला.

कोरोना को लेकर अंतरराष्ट्रीय मीडिया के निशाने पर हैं मोदी
देशी-विदेशी मीडिया भी पिछले कई महीनों से पीएम मोदी को निशाने पर लिए हुए है. लगातार लाशों के अंबार को दिखाते हुए मोदी सरकार की विफलता की चर्चा करते हुए मोदी के भविष्य को लेकर गंभीर सवाल खड़े किये जा रहे हैं. बहुत सारे विश्लेषक तो ये भी बड़ी हिम्मत से कहने लग गये हैं कि मोदी का सितारा अब अस्ताचल की तरफ है, कोरोना ने मोदी का भविष्य सील कर दिया है और 2024 में देश की राजनीति में बड़ा बदलाव देखने को मिलेगा.

ये सब कुछ हो रहा है, तब भी मोदी चुप हैं. ज्यादातर विश्लेषक जब ये कह रहे हैं कि मोदी के राजनीतिक कैरियर का ये सबसे बुरा दौर है, तब भी मोदी अपना बचाव करने की जगह चुप हैं. क्या कारण है मोदी की इस चुप्पी का. क्या मोदी असहाय हैं, या फिर उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं है, वो भी तब जबकि उनके सियासी भविष्य और प्रदर्शन को लेकर फातिहा पढ़ा जा रहा है और शंका के आवरण में उनके कुछ समर्थक भी आ रहे हैं कि क्या होगा मोदी का, कैसा है उनका भविष्य, खास तौर पर तब जबकि कोरोना का कोई अंत आता नहीं दिख रहा.

चुप्पी है मोदी का सबसे बड़ा हथियार

जहां तक मोदी का सवाल है, उनकी सियासत को करीब से देखने वाले लोगों को मोदी की इस चुप्पी में कुछ भी नया नहीं लगता है. दरअसल ये पहली बार नहीं है, जब मोदी के राजनीतिक भविष्य पर सवाल उठे हैं, उनकी राजनीति को खत्म होता हुआ मान लिया गया है, उनको भयावह आलोचना का सामना करना पड़ा है या फिर उन पर पूरी तरह फेल होने का आरोप चस्पां किया गया है.
अगर मोदी के कैरियर को ध्यान से देखें, तो नियमित अंतराल पर मोदी के साथ ऐसा होते रहा है और जब भी ऐसा मौका आया है, मोदी ने चुप्पी ही साधी है. जवाब दिया है तो अपने काम से, अपने प्रदर्शन से. जब भी उन्हें खत्म मान लिया गया, वो फीनिक्स जैसे तेजी से उठ खड़े हुए है और इस दौरान चुप्पी उनका सबसे बड़ा हथियार रही.

हर बड़ी चुनौती का सामना करते वक्त चुप रहे मोदी

गुगल और तकनीक के दौर में लोगों की स्मरण शक्ति लगातार कमजोर होती जा रही है, जब भी कुछ जरूरत पड़ी, गुगल सर्च कर लिया. लेकिन जो अब भी दिमाग पर जोर डालना जानते हैं, उनको मोदी के सियासी कैरियर में ऐसे दर्जनों किस्से ध्यान में आ जाएंगे, जब मोदी के बारे में कहा गया कि वो राजनीतिक तौर पर समाप्त हो गये हैं या होने जा रहे हॉं. लेकिन मोदी ने हर बार अपने आलोचकों को गलत साबित किया. मोदी के मामले में गलत साबित होने की यही वो पीड़ा है, जो हर बार विरोधियों और आलोचकों को पहला मौका मिलते ही मोदी के बारे में फतवा जारी करने के लिए उकसाती है. दिक्कत ये है कि भारतीय राजनीति में फतवे एक स्तर से आगे कामयाब नहीं रहे हैं, मोदी के मामले में भी यही हुआ है.

जब गुजरात से 1995 में विदाई हुई थी तब भी खामोश रहे थे मोदी

बहुत कम लोगों को याद होगा कि 1995 में गुजरात में बीजेपी ने जब पहली बार सरकार बनाई थी, उस वक्त बीजेपी के जीत के हीरो थे नरेंद्र मोदी. गुजरात बीजेपी के संगठन महामंत्री के तौर पर मोदी ने गुजरात में बीजेपी की अकेले दम वाली पहली सरकार के बनने की स्क्रिप्ट लिखी थी और पार्टी को शानदार जीत दिलाई थी. उस वक्त महज 45 साल के थे मोदी, और पार्टी की गुजरात इकाई में कद्दावर नेताओं की कोई कमी नहीं थी, उनसे सीनियर थे केशुभाई पटेल, शंकरसिंह वाघेला, कांशीराम राणा, सुरेश मेहता जैसे तमाम नेता. इन सबके बीच केशुभाई पटेल को सीएम बनाया गया, जिसे वाघेला कभी बर्दाश्त नहीं कर पाए. वाघेला को हमेशा ये टीस रही कि केशुभाई के मुकाबले गुजरात के सीएम की कुर्सी पर उनका क्लेम ज्यादा था, लेकिन मोदी ने केशुभाई को न सिर्फ सीएम बनवा दिया, बल्कि वाघेला समर्थकों को बोर्ड और कॉरपोरेशन में जगह भी नहीं लेने दी. गुस्से में आए वाघेला ने विद्रोह कर दिया और इस विद्रोह को खत्म करने की कीमत मोदी ने खुद आगे से बढ़कर चुकाई. मोदी ने गुजरात बीजेपी के तत्कालीन अध्यक्ष कांशीराम राणा को अपना इस्तीफा सौंपा और दिल्ली की राह पकड़ी. मोदी के सियासी दुश्मन मानते हैं कि वाघेला की जिद के कारण ही मोदी को गुजरात से सियासी तौर पर 1995 में निर्वासित होना पड़ा, उस गुजरात से, जो न सिर्फ उनकी जन्मभूमि थी, बल्कि जहां बीजेपी को पहली दफा अपने बूते पर सत्ता में लाने में मोदी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. उस समय भी तमाम सियासी पंडितों ने मान लिया कि जिस तेजी के साथ मोदी ने सियासत में अपने लिए नाम कमाया, उसी तरह से उनका पतन भी हो गया. एक गुजराती नेता गुजरात के बाहर जाकर कर भी क्या लेगा.

चुपचाप अपना प्रभाव बढ़ाते रहे मोदी और सीएम के तौर पर की वापसी

लेकिन मोदी ने अपने विरोधियों और राजनीतिक पंडितों की भविष्यवाणी को झूठा साबित करने में ज्यादा समय नहीं लिया. 1995 में चुपचाप दिल्ली की राह पकड़ते समय मोदी ने कोई हल्ला-हंगामा नहीं किया, बल्कि पार्टी की केंद्रीय इकाई ने जो जिम्मेदारी सौंपी, उसे चुपचाप स्वीकार किया. अगले छह वर्षों में मोदी ने अपने काम का लोहा इस कदर मनवाया कि हरियाणा, हिमाचल प्रदेश सहित कई राज्यों के प्रभारी का दायित्व सफलतापूर्वक निभाने के बाद वो बीजेपी की केंद्रीय इकाई में संगठन महांमत्री बने और यहां से सीधे अक्टूबर 2001 में गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर उन्होंने अपने गृह प्रदेश में वापसी की. खुद मुंह बंद रखते हुए अपने आलोचकों का मुंह बंद करने का ये पहला बड़ा उदाहरण मोदी ने पेश किया.

गुजरात में पार्टी के अंदर के विरोधियों को भी चुपचाप निबटाया

सात अक्टूबर 2001 को गुजरात का मुख्यमंत्री बन जाने के बावजूद मोदी की राह आसान नहीं थी. उनकी कैबिनेट के अपने साथी सहयोग करने को तैयार नहीं थे. इसमें पहला नाम सुरेश मेहता का था, जो केशुभाई पटेल के बाद गुजरात के मुख्यमंत्री रह चुके थे 1995-96 में. उन्होंने पहले तो वरिष्ठता का सवाल उठाते हुए मोदी के मंत्रिमंडल में शामिल होने से इंकार कर दिया और जब शामिल हो भी गये तो अंदर से चिढ़े ही रहे. इस तरह के माहौल में मोदी को अपना काम आगे बढ़ाना था, टेस्ट की जगह वन डे की पारी खेलनी थी, क्योंकि महज दो साल के अंदर गुजरात में चुनाव होने थे. गुजरात में बीजेपी के खिलाफ माहौल बन चुका था, क्योंकि केशुभाई पटेल सरकार ने 26 जनवरी 2001 को आए भयावह भूकंप के बाद राज्य में राहत और पुनर्वास कार्यों को ढंग से नहीं किया था, लोगों का गुस्सा आसमान पर था. इसकी झलक भी मिल चुकी थी, जब स्थानीय निकायों के साथ ही साबरकांठा लोकसभा और साबरमती विधानसभा के लिए हुए उपचुनावों में बीजेपी को करारी हार का सामना करना पड़ा था और इसी से घबराए बीजेपी के आलाकमान ने केशुभाई को हटाकर गुजरात में सरकार की कमान मोदी को देने का फैसला किया था, फटाफट सब कुछ ठीक करने के लिए.

इसी माहौल में मोदी को खुद विधानसभा में प्रवेश भी करना था. हजारों लोगों को चुनाव लड़ा और जीता चुके मोदी ने तब तक खुद कोई चुनाव नहीं लड़ा था. जब उन्होंने एक समय के अपने शिष्य रहे हरेन पंड्या को अहमदाबाद की एलिसब्रिज विधानसभा सीट खाली करने के लिए संदेशा भिजवाया, तो पंड्या ने साफ तौर पर मना कर दिया. पंड्या तब तक केशुभाई पटेल के काफी करीब आ चुके थे और एक दिन खुद राज्य का सीएम बनने का सपना भी देख रहे थे. ऐसे में मोदी को राजकोट का रुख करना पड़ा, जहां की राजकोट-2 सीट को वजूभाई वाला ने सामने से चलकर खाली किया.

पहले चुनाव की कड़ी चुनौती के समय भी शांत रहे मोदी
वजूभाई वाला ने सीट तो खाली कर दी, लेकिन राजकोट न सिर्फ सौराष्ट्र का केंद्र, बल्कि मोदी विरोधी गतिविधियो का केंद्र भी बन चुका था. केशुभाई पटेल खुद राजकोट से ही थे और अंदर ही अंदर मोदी को निबटाने की कोशिश कर रहे थे. धीरे से पटेल कार्ड भी खेला जा रहा था, किस तरह से पटेल सीएम केशुभाई पटेल को हटाकर मोदी ने खुद सीएम की कुर्सी हथिया ली है. केशुभाई से मोदी के व्यक्तिगत संबंध और कड़वाहट का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता था कि जिस केशुभाई पटेल को मोदी ने पहली बार 1995 में मुख्यमंत्री बनवाया था, उसी केशुभाई पटेल ने 1998 में बीजेपी के दोबारा चुनाव जीतने पर सीएम पद की शपथ लेने के दौरान तत्कालीन प्रदेश संगठन महामंत्री संजय जोशी के इशारे पर मोदी को समारोह में शामिल होने के लिए निमंत्रण तक नहीं भेजा था. मोदी केशुभाई के रहते जब भी गुजरात एकाध दिन के लिए किसी सामाजिक या निजी कार्य से आते थे, उनके पीछे-पीछे गुजरात पुलिस के खुफिया विभाग के जवान लगे रहते थे केशुभाई के इशारे पर. मोदी ये सबकुछ जान रहे थे, तब भी चुप्पी ही साधे रखी थी और बिना हल्ला-गुल्ला मचाए गुजरात की सीएम की कुर्सी पर बैठे, तो करीब पौने तेरह साल बाद तभी खाली किया, जब वो देश के पीएम बन गये और तब से पीएम की कुर्सी पर मजबूती से बने हुए हैं.

जिंदगी का पहला चुनाव भी मोदी ने बिना अपने खिलाफ साजिश करने वाले लोगों का नाम लिए, हल्ला मचाए जीता. जीत की खुशी वो मना पाते, उससे पहले ही गुजरात में गोधरा कांड हो गया और उसके अगले दिन गुजरात के कई हिस्सों में भड़के दंगे पूरे देश और दुनिया में गुजरात रायट्स के तौर पर जाने गये और इसी के साथ ही पूरी दुनिया में मोदी की छवि उस फासिस्ट की बना दी गई, जिसने जानते-बूझते कत्लेआम करा दिया, वो भी तब जब मोदी ने दंगे के पहले दिन ही राज्य में सेना बुला ली थी और अपने पहले संबोधन में विधानसभा के अंदर ये कहा था कि लहू का कोई रंग नहीं होता, खून किसी का भी बहे, ये दुखद है.

दंगों या मुठभेड़ के आरोपों पर भी चुप्पी साधे रखी, होने दिया अदालत का फैसला

गुजरात दंगों के दौरान या फिर दंगों की समाप्ति के बाद भी मोदी पर इस्तीफे का भयावह दबाव रहा. यहां तक कि पार्टी के कई नेताओं ने भी इसके लिए सुर बुलंद किये, विपक्ष और मीडिया तो इसके लिए दबाव बना ही रहा था. मोदी ने तब भी चुप्पी साधे रखी. किसी चीज का प्रतिकार नहीं किया. विधानसभा भंग की, जनता की अदालत में गये, चुनाव में भारी जीत हासिल की और एक बार फिर से गुजरात की कमान संभाली. मोदी की चुप्पी सिर्फ प्रचार के दौरान टूटती थी, प्रचार कार्य समाप्त हो जाने के बाद फिर से खामोशी.

2002 की जीत के बाद भी मोदी के लिए चुनौतियां खत्म नहीं हुईं. पार्टी के अंदर अब भी एक ऐसा बड़ा धड़ा था, जो कि लगातार उनके पीछे लगा रहा. जिस पार्टी के आज मोदी सबसे बड़े चेहरे हैं, उस पार्टी में भी मोदी को शुरुआती दौर में काफी संघर्ष करना पड़ा. मोदी के सीएम बनते ही संजय जोशी की गुजरात से विदाई हो गई थी, लेकिन वो जल्दी ही बीजेपी की केंद्रीय इकाई में संगठन महामंत्री बन बैठे, मोदी के विरोधियों को पूरी शह दी. यही वजह रही कि मोदी के सामने लगातार पार्टी के अंदर बगावती सुर उठते रहे. हालात तो यहां तक थे कि मई 2004 में पार्टी के वरिष्ठ नेता एके पटेल के फार्महाउस पर पार्टी के विधायक बड़ी तादाद में इकट्ठा हुए, और उसमें कोली समाज के बड़े नेता और एक समय टाडा के आरोपी और गुजरात

सरकार में मंत्री रहे पुरुषोत्तम सोलंकी ने ये बयान तक दे डाला कि अगर केशुभाई कहें, तो मैं मोदी को खुद उठाकर दिल्ली फेंक आउंगा. ये हालात थे उस वक्त.

चुनाव में हमलावर, बाकी समय में खामोशी

2007 चुनावों के पहले मोदी जहां एक तरफ दंगे और मुठभेड़ मामलों को लेकर विपक्ष के निशाने पर थे, उसी समय उनकी पार्टी के अंदर भी गुजरात में बगावत हो रही थी. हालात यहां तक बने कि 2007 विधानसभा चुनावों के ठीक पहले बीजेपी नेताओं का एक बड़ा समूह पार्टी छोड़कर एक नया दल बना बैठा, महागुजरात जनता पार्टी के तौर पर, जिसकी अगुआई कर रहे थे गोरधन झड़फिया और जिन्हें शह हासिल थी केशुभाई पटेल के साथ-साथ वीएचपी के तत्कालीन महासचिव प्रवीण तोगड़िया की, जो कि एक समय हार्डकोर, फायरब्रांड हिंदुत्व के बड़े चेहरे के तौर पर काफी रसूख रखते थे और झड़फिया और केशुभाई की तरह ही गुजरात के शक्तिशाली पटेल समुदाय से आते थे. ऐसे में मोदी को 2007 का विधानसभा चुनाव दो फ्रंट पर लड़ना पड़ा एक तरफ कांग्रेस थी, जिसकी अगुआई में केंद्र में मनमोहन सिंह की सरकार चल रही थी, तो दूसरी तरफ अपने ही लोग थे, जो सामने खड़े होकर चुनौती दे रहे थे. पटेल समुदाय गुजरात में पार्टी का महत्वपूर्ण वोट बैंक रहा है, खास तौर पर सौराष्ट्र के इलाके में. मोदी को हराने के लिए इस समुदाय को भी पार्टी से दूर करने की कोशिश हुई, मोदी को किसान विरोधी और पटेल विरोधी करार देते हुए, क्योंकि मोदी ने चुनावो के ठीक पहले बिजली चोरी को रोकने के लिए विशेष पुलिस थाने बनाए थे और कड़ी सजा का प्रावधान किया था, जिसे किसान विरोधी कहकर प्रचारित किया गया. इस त्रिकोणीय लड़ाई में भी मोदी विजयी होकर निकले, चुप्पी उनका हथियार रही, कभी पार्टी के अंदर अपने विरोधियों को लेकर कोई सार्वजनिक बयान नहीं दिया, लेकिन जब मौका आया, तो चुनावी समर में धूल-धूसरित कर दिया.

अमेरिका ने वीजा देने से मना किया, तब भी रहे खामोश
मोदी के सामने चुनौतियां कभी कम नहीं हुईं. एक तरफ मोदी जहां 2003 से ही लगातार वाइब्रेंट गुजरात सम्मेलन कर राज्य में देशी-विदेशी निवेश हासिल कर विकास का अपना गुजरात मॉडल विकसित करने में लगे थे, तो दूसरी तरफ उनके सियासी विरोधी लगातार कैंपेन में लगे हुए थे. इसमें सिर्फ सियासी पार्टियां नहीं थीं, वो एनजीओ और आक्रामक तेवर अख्तियार करने वाला इंटरनेशनल मीडिया भी था, जिसने मोदी को 2002 दंगों के कारण खलनायक छोड़कर किसी और रोल में नहीं देखने की कसम खाई थी. यही वजह रही कि 2005 में जब मोदी को अमेरिका जाकर वहां बसे आप्रवासी भारतीयों के सम्मेलन को संबोधित करना था और गुजरात में निवेश लाने के लिए माहौल बनाना था, ऐन मौके पर अमेरिकी सरकार ने मोदी को वीजा देने से मना कर दिया. ऐसा पहली बार हुआ कि भारत के किसी बड़े और औद्योगिक तौर पर संपन्न राज्य के सीएम को अमेरिका ने एनजीओ और विरोधी लॉबी के दबाव में वीजा देने से मना कर दिया हो. मोदी ने उस मौके पर भी सार्वजनिक तौर पर कुछ नहीं बोला, चुप्पी साधे रखी, वीडियो कांफ्रेंसिंग से उस सम्मेलन को संबोधित किया. इस वीजा बैन के बाद मोदी सीधे सितंबर 2014 में अमेरिका गये, जब वो सीएम से पीएम बन चुके थे. संयुक्त राष्ट्र की महासभा को संबोधित किया और उसके बाद अमेरिकी राष्ट्रपति के तौर पर बराक ओबामा ने व्हाइट हाउस में मोदी की मेजबानी की, जो व्हाइट हाउस सबसे बड़ा प्रतीक है अमेरिकी शासन और शक्ति का. मोदी ने चुप्पी साधे रखी नौ सालों तक, कहा कुछ नहीं, लेकिन आलोचकों ने अपने गाल पर करारा थप्पड़ महसूस किया, जब मोदी के स्वागत में पूरा व्हाइट हाउस सजा-धजा बैठा था.

आरोप लगते रहे, खामोश रहे, क्लीन चिट मिली तो कहा सत्यमेव जयते

ऐसा नहीं था कि गजुरात में 2002 और फिर 2007 का चुनाव जीतने के बाद मोदी के लिए परेशानी खत्म हो गई थी. मोदी के सामने साजिशें कम नहीं हुईं. एक न एक बहाने से कोर्ट में मोदी के सामने याचिकाएं दाखिल होती रहीं. देश की सर्वोच्च अदालत के तौर पर सुप्रीम कोर्ट ने विशेष जांच दल यानी एसआईटी का गठन किया और इसके जरिये गुजरात दंगों की साजिश से संबंधित जाकिया जाफरी की याचिका में लगे आरोपों की जांच कराई. इस दौरान खुद गुजरात पुलिस के कई अधिकारी खुलेआम मोदी की मुखालफत कर रहे थे. लेकिन मोदी ने चुप्पी साधे रखी. आखिरकार खुद एसआईटी को संबंधित कोर्ट में अपनी रिपोर्ट दाखिल करनी पड़ी, सुप्रीम कोर्ट की स्क्रुटिनी के बाद, जिसे कोर्ट ने मंजूर किया, मोदी को क्लीन चिट मिली. मोदी ने कोई सार्वजनिक अट्टहास नहीं किया, फैसले के बाद सिर्फ एक ब्लॉग लिखा, देश की जनता के नाम, शीर्षक था सत्यमेव जयते.

यूपीए की थी मोदी को अंदर करने की साजिश

एक तरफ कोर्ट में दांव पेंच, तो दूसरी तरफ सीबीआई का इस्तेमाल मोदी को फंसाने के लिए किया जा रहा था. केंद्र में शासन में थी कांग्रेस की अगुआई वाली यूपीए. यही वो समय था, जब सीबीआई को पिंजरे वाला तोता कहा गया. उसी तोते ने अपने राजनीतिक आकाओं की शह पर गुजरात के तत्कालीन गृह राज्य मंत्री अमित शाह को इशरत जहां मुठभेड़ केस का आरोपित बनाते हुए विशेष अदालत में उनके सामने चार्जशीट कर दी. अमित शाह के सामने सरेंडर के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा. जिस गुजरात में अमित शाह जेल मंत्री भी थे, उसी राज्य की सबसे बड़ी साबरमती सेंट्रल जेल में उन्हें कई महीने गुजारने पड़े. उस समय कोशिश ये थी कि अमित शाह के बाद मोदी को भी इस मामले में पकड़ा जाए, फंसाया जाए. सीबीआई के जो दस्तावेज उस समय लीक हुए थे, उसमें ये बात साफ तौर पर सामने भी आई थी. ये सब कुछ चल रहा था, तब भी मोदी चुप थे. न सिर्फ मोदी ने चुप्पी बनाए रखी, बल्कि वो साबरमती सेंट्रल जेल में कभी अमित शाह से मिलने भी नहीं गये. मुख्यमंत्री के तौर पर अपने पद की मर्यादा का उन्हें ख्याल था, इसलिए कभी जेल जाकर मुलाकात नहीं की. उस समय भी उनके राजनीतिक दुश्मनों ने जोर- शोर से ये खबर प्लांट करवाई कि मोदी ने अपने सबसे खास सहयोगी अमित शाह का भी साथ छोड़ दिया है, जैसा अभी आरोप लग रहा है कि मोदी ने पश्चिम बंगाल के अपने समर्थकों का साथ छोड़ दिया है, क्यों नहीं खुलकर वो उनका साथ दे रहे हैं, ममता के खिलाफ आवाज बुलंद कर रहे हैं. इस समय जिस बात के लिए मोदी की आलोचना हो रही है, 2010 में भी मोदी की चुप्पी के लिए ही आलोचना हुई थी. तमाम उकसावे के बावजूद मोदी ने अपना आपा नहीं खोया, मोदी को पता था कि उनकी सरकार का प्रदर्शन और जनता के लिए किया गया काम ही आखिरकार उनके काम आएगा और इसी मिशन के साथ वो लगे रहे, 2012 का विधानसभा चुनाव फिर से बड़े मार्जिन से जीता, वो भी तब जबकि एक बार फिर से उनके सामने मैदान में कांग्रेस के अलावा गुजरात परिवर्तन पार्टी के बैनर तले केशुभाई पटेल खड़े थे, जिन्हें हटाए जाने के बाद मोदी पहली बार गुजरात के सीएम बने थे 2001 में. लेकिन मोदी ने इस चुनौती का भी मजबूती से मुकाबला किया और तीसरी बार गुजरात में पार्टी को अपनी अगुआई में जीत दिलाई.

आडवाणी ने मोदी की प्रधानमंत्री उम्मीदवारी का विरोध किया, तब भी रहे खामोश

पड़ोस के तीन राज्यों – मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी 2013 में वो पार्टी के सबसे बड़े कैपेनर रहे और वहां भी पार्टी को सफलता दिलाई. इस तरह की सिद्धि के बीच जब पूरे देश में मोदी के लिए माहौल सजा हुआ था, मोदी को एक बार फिर से अंदर से ही चुनौती मिली, लालकृष्ण आडवाणी ने मोदी की पीएम के तौर पर उमीदवारी का विरोध किया. मोदी ने तब भी अपना आपा नहीं खोया, कोई बयान नहीं दिया और आखिरकार अपने दम पर पर पार्टी को 2014 में केंद्र में सत्ता में लेकर आए. भाजपा की अपने दम पर केंद्र में ये पहली सरकार थी.व जाहिर है, उसके बाद से इतिहास बदल चुका है. तमाम केसों से एक के बाद एक अमित शाह को राहत मिली, मोदी के विश्वस्त अमित शाह पार्टी के हाल के वर्षों के सबसे सफल अध्यक्ष रहे और 2019 से देश के गृह मंत्री हैं, पूरे नौ साल बाद सरकार में वापसी की, राज्य से सीधे केंद्र में, वो भी मोदी की अगुआई में ही.

जहां तक मोदी का सवाल है, चुनौतियां प्रधानमंत्री बनने के बाद भी खत्म नहीं हुईं. कभी नोटबंदी को लेकर उनके खिलाफ माहौल बना, तो कभी जीएसटी लागू करने को लेकर, कभी कश्मीर में धारा 370 को खत्म करने को लेकर वो विपक्ष के निशाने पर रहे, तो कभी सीएए को लेकर. लेकिन मोदी सार्वजनिक तौर पर इन पर खामोश ही रहे, मोदी की इस बात के लिए आलोचना होती रही कि वो बोलते क्यों नहीं हैं, मौबी बाबा क्यों बन जाते हैं.

लेकिन मोदी को अच्छी तरह से पता है कि काम बोलता है और ये जनता है, जो सब कुछ जानती है. जब 2018 में बीजेपी एमपी, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में सरकार नहीं बना पाई, तो सभी राजनीतिक भविष्यवेत्ताओं ने 2019 लोकसभा चुनावों के पहले में मोदी का सितारा डूबते हुए दिखाना शुरु कर दिया था. लेकिन हुआ उल्टा ही, इन्हीं राज्यों के मतदाताओं ने महज कुछ महीने के अंदर ही हाथ खोलकर मोदी की झोली में लोकसभा सीटें दे दीं.

मोदी की चुप्पी है खतरनाक

यही हाल एक बार फिर से है. पश्चिम बंगाल में ममता की जीत के बाद से इसी तरह का माहौल विपक्ष बना रहा है कि मानो मोदी के लिए उल्टी गिनती शुरु हो गई है, बाकी आस विपक्ष को कोरोना की महाआपदा से है. इसलिए केंद्र से सहयोग का भाव नहीं के बराबर, पहले लॉकडाउन किया तो क्यों किया और जब मोदी ने इसके लिए राज्यों पर जिम्मेदारी डाली, तो लॉकडाउन क्यों नहीं कर रहे, मोदी पर ये आरोप. लेकिन मोदी जुबानी जंग में शामिल नहीं हो रहे. उन्हें पता है कि बहस करने और जुबान चलाने की जगह जनता की सेवा में अपना ज्यादा समय खर्च करना बेहतर रहेगा. मोदी के लिए जनता जनार्दन है, और वो जानते हैं कि ये जनता उचित समय आने पर सही-गलत का फैसला कर देती है, जैसा कि उनके राजनीतिक कैरियर में हमेशा, हर कुछ वर्षों पर ऐसा होता आया है. अगर सावधान रहने की आवश्यकता है तो विपक्ष को, क्योंकि मोदी की चुप्पी हमेशा खतरनाक होती है, तूफान के पहले की शांति जैसी. और जहां तक समर्थकों का सवाल है, उन्हें ये ध्यान होगा कि मोदी कभी किसी को भूलते नहीं, साथ में जो लोग हैं, उनका दुख दर्द हमेशा उनकी प्राथमिकता में होता है, भरोसा न हो आंख उठाकर देख लें. जिन लोगों के बारे में माना जा रहा था कि मोदी ने उन्हें किनारे लगा दिया है, आज वो सबसे करीब हैं, सबसे मजबूत हैं.

पटखनी देने के लिए समय अपने हिसाब से चुनते हैं मोदी
और हां आखिरी बात, मोदी हर चुनौती का जवाब देने के लिए अपने हिसाब से समय तय करते हैं. याद करना मुनासिब होगा कि 2016 में उरी में हुए आंतकी हमले के बाद मोदी पर कितने ताने कसे जा रहे थे, विरोधी तो ठीक, समर्थकों में भी निराशा थी. लेकिन मोदी ने उसका जवाब दिया, बिना देश और दुनिया को खबर किये, बिन मुंह खोले, दुश्मन देश पाकिस्तान को तो पता भी नहीं चला कि कब सर्जिकल स्ट्राइक हुई. यही नहीं पुलवामा हमले के बाद भी मोदी ने कुछ नहीं कहा, चुप्पी साधे रखी, और 2019 में सीमा पार बालाकोट में एयर स्ट्राइक करा डाली. दोनों ही मौकों पर देश और दुनिया को भरोसा हीं नहीं हुआ कि जो पाकिस्तान अपनी न्युक्लियर ताकत के बल पर ये मानकर बैठा था कि भारत उसकी सीमा में घुसकर कभी हमला नहीं करेगा, वो इसके लिए हिम्मत कैसे जुटा पाया. जाहिर है, मोदी ने कभी भी बदला लेने के पहले ढिंढोरा नहीं पीटा, सबक सीखाने का हल्ला नहीं किया और जब बदला लिया तो पाकिस्तान क्या पूरी दुनिया को पता चल गया. मोदी के विरोधियों ही नहीं, समर्थकों को भी हमेशा ये याद रखना होगा, मोदी की चुप्पी दब्बूपन का संकेत नहीं, उचित समय पर माकूल जवाब का संकेत होती है, खतरनाक होती है. कम से कम पिछले ढाई दशकों का इतिहास तो यही बताता है. (ये लेखक के निजी विचार हैं)

ब्लॉगर के बारे में

ब्रजेश कुमार सिंह


लेखक नेटवर्क18 समूह में मैनेजिंग एडिटर के तौर पर कार्यरत हैं. भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली से 1995-96 में पत्रकारिता की ट्रेनिंग, बाद में मास कम्युनिकेशन में पीएचडी. अमर उजाला समूह, आजतक, स्टार न्यूज़, एबीपी न्यूज़ और ज़ी न्यूज़ में काम करने के बाद अप्रैल 2019 से नेटवर्क18 के साथ. इतिहास और राजनीति में गहरी रुचि रखने वाले पत्रकार, समसामयिक विषयों पर नियमित लेखन, दो दशक तक देश-विदेश में रिपोर्टिंग का अनुभव

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